बुधवार, 11 जुलाई 2012

वन महोत्सव पर विशेष
हमारे धर्मग्रंथों में वृक्ष महिमा
                                  डॉ. खुशालसिंह पुरोहित

    भारतीय संस्कृति वृक्ष-पूजक संस्कृति है । वृक्षों में देवत्व की अवधारणा और उसकी पूजा की परम्परा हमारे देश में प्राचीन काल से रही है । वृक्षों की पूजा प्रकृति के प्रति आदर प्रकट करने का सरल माध्यम है, वृक्षों के प्रति केसा प्रेम शायद ही किसी देश की संस्कृति में हो जहां वृक्ष को मनुष्य से भी ऊंचा स्थान दिया गया है ।
    वैदिक काल में प्रकृति के आराधक भारतीय ऋषि भी अपने अनुष्ठानों में वनस्पति पूजा को विशेष महत्व देते थे । वेदों और आरण्यक ग्रथों में प्रकृति की महिमा का सर्वाधिक गुणगान है । इस काल में वृक्षों को लोक देवता की मान्यता दी गयी थी । वृक्षों में देवत्व की अवधारणा का उल्लेख वेदों के अतिरिक्त प्रमुख रूप से मत्स्यपुराण,अग्निपुराण, भविष्यपुराण, नारदपुराण, रामायण, भगवदगीता और शतपथ ब्राह्मण आदि ग्रंथों में मिलता है । मोटे रूप में देखे तो वेद, पुराण, संस्कृत और सूफी साहित्य, आगम, पंचतंत्र, जातक कथायें, कुरान, बाइबिल, गुरूग्रंथ साहब हो या अन्य कोई धार्मिक ग्रंथ हो सभी में वृक्षों में लोक मंगलकारी स्वरूप का परिचय मिलता है ।
    दुनिया में सभी प्राचीन सभ्यताआें का आधार मनुष्य का प्रकृति के प्रति प्रेम और आदर का रिश्ता है । इसी कारण पेड़, पहाड़, नदी और मनुष्येत्तर प्राणियों की पूजा की परम्परा का प्रचलन हुआ । मोहनजोदड़ों और हड़प्पा की खुदाई से मिले अवशेषों से पता चलता है कि उस समय समाज में मूर्ति पूजा के साथ ही पेड़-पौधों एवं जीव जन्तुआें की पूजा की परम्परा भी थी । भारतीय प्राचीन साहित्यिक ग्रंथों में चित्रकला, वास्तुकला और वृक्ष पूजा के अनेक प्रसंग मिलते है । अंजता के गुफा, चित्रों और सांची के तोरण स्तंभों की विभिन्न आकृतियों में वृक्ष-पूजा के अनेक प्रसंग मिलते है । अंजता के गुफा चित्रों और सांची में तोरण स्ंतभों की विभिन्न आकृतियों में वृक्ष-पूजा के दृश्य है । जैन और बौद्ध साहित्य में वृक्ष-पूजा का विशेष स्थान रहा है ।
    हमारे सबसे प्राचीन ग्रंथ वेद में प्रकृतिकी परमात्मा स्वरूप में स्तुति है । इसके बाद वाल्मिकी रामायण, महाभारत, मनुस्मृति और नारद संहिता में वृक्ष-पूजा की विविध विधियों का विस्तार से वर्णन है । सभी धार्मिक आयोजनों एवं पूजा पाठ में पंच पल्लव (पीपल, गुलर, पलाश, आम और वट वृक्ष के पत्ते)की उपस्थिति अनिवार्य होती है । हमारे प्राचीन साहित्य में जिन पवित्र और अलौकिक वृक्षों का उल्लेख है उनमें कल्पवृक्ष प्रमुख है । कल्पवृक्ष को देवताआें का वृक्ष कहा जाता है । पौराणिक ग्रंथ स्कंदपुराण में पांच पवित्र छायादार वृक्षों (पीपल, बेल, बरगद, आंवला व अशोक) के समुह को पंचवटी कहा गया है ।
    हमारे सभी धर्मग्रंथ पेड़ पौधों के प्रति प्रेम और आदर का पाठ पढ़ाते है । भगवान बुद्ध के जीवन की सभी घटनायें वृक्षों की छाया में घटी थी । आपका बचपन साकवन में बीता, इसके बाद प्रथम समाधि जामुन वृक्ष की छाया में, बोधि प्रािप्त् पीपल की छाया में और निर्वाण साल वृक्ष की छाया में हुआ । भगवान बुद्ध ने भ्रमणकाल में अनेकों वनों/बागों में प्रवास किया था इनमें वैशाली की आम्रपाली का ताम्रवन, पिपिला का सखादेव आम्रवन और नालंदा में पुखारीन आम्रवन के नाम उल्लेखनीय है । जैन धर्म में जैन शब्द जिन से बना है, इसका अर्थ है समस्त मानवीय वासनाआें पर विजय प्राप्त् करने वाला । तीर्थ का शाब्दिक अर्थ है नदी पार करने का स्थान अर्थात घाट । धर्म रूपी तीर्थ का जो प्रवर्तन करते है वे तीर्थंकर कहलाते है । तपस्या के पश्चात सभी तीर्थंकरों को कैवल्य ज्ञान (विशुद्ध ज्ञान) की प्रािप्त् किसी न किसी वृक्ष की छाया में हुई थी, इन वृक्षों को कैवलीवृक्ष कहा जाता है ।  
    सिख धर्म में वृक्षों का अत्याधिक महत्व है, देशभर में ४८ गुरूद्वारों का नाम वृक्ष पर है । वृक्ष को देवता और धर्मस्थल के पास स्थित वृक्ष समूह को गुरू के बाग  कहा जाता है । इनमें गुरू से जुड़े कुछ प्रमुख वृक्ष है - नानकममता का पीपल वृक्ष, रीढा साहब का रीढा वृक्ष, टाली साख का शीशम, और बेर साहब का बेर का वृक्ष प्रमुख   है । इसके साथ ही कुछ अन्य पूजनीय वृक्षों में दुख भंजनी बेरी, बाबा की बेरी और मेहताब सिंह की बेरी प्रमुख है ।
    पृथ्वी पर पाये जाने वाले जिन पेड़-पौधों का नाम कुरान-मजीद में आया है, उन पेड़ों को मुस्लिम धर्मांवलंबी पूजनीय मानते है। इन पवित्र पेड़ों में खजूर, बेरी, पीलू, मेहंदी, जैतून, अनार, अंजीर, बबूल, अंगूर और तुलसी प्रमुख है । इनमें से कुछ पेडों के बारे में मोहम्मद साहब (रहमतुल्लाह अलैहे) ने वर्णन किया है, इस कारण इन पेड-पौधों का महत्व और भी बढ़ जाता है ।
    भारतीय संस्कृति की परम्परा वृक्षों के साथ सह-जीवन की रही है । पेड़ संस्कृति के वाहक है । प्रकृति और संस्कृति के साहचर्य से ही सभ्यता दीर्घजीवी होती है । इसलिए जंभोजी महाराज की सीख में कहा गया है सिर सारे रूख रहे तो सस्ते जाण, इसी क्रम में धराड़ी और ओरण जैसी परम्पराआें ने जातीय चेतना को प्रकृति चेतना से आत्मसात कर वृक्ष पूजा और वृक्षा रक्षा से जीवन में सुख-समृद्धि और आनंद की कामना की है । आज      इसी भावना को विस्तारित कर हम मानवता के भविष्य को सुरक्षित रख सकते है ।

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