बुधवार, 11 जुलाई 2012

प्रसंगवश 
विदेशों में भारतीय खेती फैलाता अंग्रेज
    अलबर्ट  हॉवर्ड को अंग्रेजी हुकुमत ने सन् १९०५ में भारतीय किसानों को रासायनिक खेती सिखाने भेजा था क्योंकि सन् १८४० में जर्मनी में प्रारंभ हुई रासायनिक खेती २० वीं सदी के प्रारंभ तक सारे संसार में फैल चुकी थी । केवल भारत बचा था । यहाँ आकर पूसा (बिहार) में जब उसने शासकीय अनुसंधान केन्द्र पर कदम रखा तो जिज्ञासावश वह केन्द्र के आसपास के खेत देखने लगा । उसे आश्चर्य हुआ कि मात्र गोबर गोमूत्र की खाद और बहुफसलीय खेती से बिहारी किसान इतनी ज्यादा उपज कैसे ले लेते हैं । उसने नियमित भारतीय खेती का और किसानों के रहन-सहन का अभ्यास शुरू किया । उसकी जिज्ञासा उसे पूरे देश का भ्रमण करने ले गई, उसने शासकीय अनुसंधान केन्द्र छोड़ा । वह बगैर किसी हस्तक्षेप के अपनी मर्जी से शोध और अनुसंधान करना चाहता था । उसे यह अवसर दिया इन्दौर के महाराज होल्कर ने सन् १९२४ में महाराजा ने उसे इन्दौर में ३०० एकड़ जमीन मुहैय्या करायी और उसने यहाँ इन्स्टीट्यूट ऑफ प्लांट इंण्डस्ट्री प्रारंभ की (जो आज कृषि महाविद्यालय नाम से जाना जाता है) ७ साल के शोध के बाद उसने बगैर किसी बाहरी आदान के गोबर, गोमूत्र और   फसल अवशेषों से जैविक खाद बनाने की विधि खोज निकाली जिसे इन्दौर मेथड ऑफ कम्पोस्ट मेकिंग नाम दिया गया । धीरे-धीरे पूरे संसार में इन्दौर खाद बिकने लगा । मात्र सिलोन और भारत के चाय बागानों में उन दिनों दस लाख मेट्रिक टन इन्दौर का खाद बिकता था ।
    सन् १९३४ में अलबर्ट हॉवर्ड वापिस इंग्लैण्ड लौट गए  । सन् ४० में उनकी मृत्यु हुई । उनकी पत्नी ने सन् १९४८ में भारतीय खेती पर सर अलबर्ट हॉवर्ड की लिखी पुस्तक एन एग्रीकल्चरल टेस्टामेन्ट प्रकाशित की जो सन् १९५६ के बाद लुप्त् हो      गई । गोवा के द अदर इंडिया प्रेस के सौजन्य से वह पुस्तक सन् १९९६ में पुन: मुद्रित  हुई । उसका मराठी और हिन्दी में अनुवाद भी हो चुका है । हिन्दी में यह पुस्तक एक खेती का वसीयतनामा नाम से उपलब्ध है, जिसका मूल्य रूपये १००/- है।
    अन्य सुरक्षा की वैश्विक चिंता के मद्देनजर जहाँ जी.एम.  फसलों जैसी खतरनाक खेती भारत पर लादी जा रही है वहाँ हमें हमारी खेती वैज्ञानिक ढंग से समझना अब जरूरी हो गया है । उसके लिए सर अलबर्ट हॉवर्ड हमारे मार्गदर्शक बन सकते हैं ।       अरूण डिके, इन्दौर (म.प्र.)
   
   


   

   


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