बुधवार, 16 मार्च 2016

कृषि जगत
खेसारी दाल : एक सोचा समझा षडयंत्र 
डॉ. ज्योति प्रकाश
कृषि तथा पोषण विज्ञानियों की खेसारी समर्थक लॉबी से मिलीभगत, खेसारी में मौजूद नुकसानदायी रसायन बीओएए के बजाए ओडीएपी नामक रसायन बताना, दरअसल इस दाल से होने वाले लंगडापन की जिम्मेदारी से मुक्त होने का सोचा समझा षडयंत्र है। ऐसे में खाद्य सुरक्षा से जुड़ी संस्थाओं को अपनी निष्पक्ष स्वायत्ता प्रमाणित करने के गंेभीर दायित्व का निर्वाह करना है ताकि गरीब जनता को इस दाल से होने वाले खतरों से बचाना है ।
गौरतलब है खेसारी दाल को लेकर परोसे जाने वाले झूठों की फेहरिस्त अन्तहीन है । जैसे, अपने में मौजूद बीओएए के कारण खेसारी, लाख प्रयासों के बाद भी, जब नुकसानदायक होने की अपनी सदियों पुरानी पहचान से मुक्ति नहीं पा सकी । ऐसे में इसको सुरक्षित बताने में जुटी लॉबी ने बताया कि खेसारी में नुकसानदायी बीओएए होता ही नहीं है और असल में तो, खेसारी में ओडीएपी (ऑक्जेलिल डाईअमीनो प्रोपियॉनिक एसिड) नामक रसायन होता है । 
यह खेसारी को, पिछले दरवाजे से, लंगडा बनाने की जिम्मेदारी से मुक्त कराने का एक सोचा समझा षडयंत्र था । बीओएए के  खेसारी में पाये जाने तथा इसके लंगडा बना देने वाले दुष्प्रभाव पर पर्याप्त  ठोस वैज्ञानिक आधारों को इकट्ठा कर चुके होने से मेरा चौंकना स्वाभाविक था । तब, आगे की जाँच-पडताल से पता चला कि खेसारी-समर्थक लॉबी की सुविधा के लिए, वैज्ञानिकों ने परस्पर मिलीभगत कर, बीओएए को ओडीएपी वाला एक नया नाम दे दिया था ।
राजनेताओं की बेबसी तो फिर भी समझी जा सकती है । लेकिन वैज्ञानिकों की...?
कृषि तथा पोषण विज्ञानियों की खेसारी समर्थक लॉबी से मिलीभगत को खेसारी घोटाले की दूसरी महत्वपूर्ण कड़ी कहा जा सकता है । बिना कोई प्रयोग किये कथित प्रयोग के महत्वपूर्ण परिणामों को पा लेने से लगाकर अपने ही शोध से निकले परिणामों को नकार देने तक इस मिलीभगत की एक लम्बी सूची है । और चोटी के समझे जाने वाले देश के विज्ञानी इसमें शामिल घपलेबाजों के सिरमौर रहते आये   हैं । बीती सदी में अनेक अन्तर्राष्ट्रीय फोरमों में, इन विज्ञानियों की पूरी कलई उतारी भी जा चुकी है । 
खेसारी को लेकर दशकों तक छिड़ी रही बहस से अनभिज्ञ नयी पीढ़ी के लिए यह तथ्य चौंकाने वाला होगा कि आज जिस 'पोषण विज्ञानी` डॉ. शान्तिलाल कोठारी का नाम खेसारी की खेती को प्रतिबन्ध से मुक्ति दिलाने वाले 'हीरो` की तरह सुर्खियों में है वह, अपनी तमाम शैक्षणिक योग्यताओं तथा महिमा मण्डित विशेषज्ञाताओं के साथ, बीती सदी में छिड़ी तीखी बहसों के बीच उस समय भी मौजूद थे जब योजना आयोग अपने उपाध्यक्ष डॉ. एम जी के मेनन के निजी दिशा निर्देश में खेसारी की सच्चई को उसकी जड़ तक तलाशने में जुटा हुआ था । लेकिन भूख हड़ताल की सार्वजनिक धमकियों से आगे, उनके पास ऐसा एक भी ठोस वैज्ञानिक तर्क अथवा तथ्य नहीं था जो आयोग को खेसारी की खेती के पक्ष में सन्तुष्ट करा पाया हो । इसके उलट, कोठारी आज भी खेसारी की खेती और खेसारी के कारण लंगडेपन से प्रभावित व्यक्तियों को लेकर ऐसे कुतर्क देते मिल जाते हैंजिन्हें सुनकर, चिकित्सा, विष विज्ञान तथा कृषि विज्ञान के जानकार उनकी नीयत पर तो नहीं फिर भी उनकी शैक्षणिक योग्यताओं पर प्रश्नचिन्ह लगाने को विवश हो जाते हैं ।
फिर भी, खेसारी का जहर नये सिरे से फन उठा रहा है इसे कुचलना ही होगा । नहीं तो, ऐसा अनर्थ होगा जिससे मुक्ति  की कोई राह कभी नहीं ढूँढी जा सकेगी । यह तर्क भी एक छलावा है कि खेसारी आम आदमी को भोजन में प्रोटीन की कमी से मुक्ति दिलायेगी । दरअसल, खेसारी में मौजूद ट्रिप्सिन इन्हिबिटर नामक एक प्राकृतिक विशिष्ट शरीर के पाचन तंत्र में मौजूद ट्रिप्सिन नामक उस एन्जाइम को अपना काम करने से रोक देता है जो भोजन में शामिल प्रोटीन को पचाने की क्रिया में अहम भूमिका निभाता है। सरल शब्दों में इसका तात्पर्य है कि खेसारी में चाहे जितना भी प्रोटीन क्यों ना हो, सामान्य घरेलू स्थितियों में खायी जाने वाली यह महान समृद्ध दाल शरीर के लिए निरी निरुपयोगी ही रहेगी । क्योंकि, शरीर उसके प्रोटीन-भण्डार को ग्रहण ही नहीं कर   पायेगा ।
वहीं, इस महत्वपूर्ण सवाल पर भी दावेदारों ने अपने होंठ सिले हुए हैं कि समेकित (क्यूमिलेटिव, यानि धीरे-धीरे शरीर में इकट्ठी होकर) असर करने वाली खेसारी में नगण्यै जहर का क्या मतलब    होगा ? 'समेकित प्रभाव` का मतलब है कि जितना भी यह विष खाया जायेगा, वह पूरा का पूरा, खाने वाले के शरीर में इकट्ठा होता जायेगा । अर्थात, खेसारी खाने वाले को एक दिन ऐसा भी देखने को मिल सकता है जब उसके शरीर में एकत्रित हुए इस विष की मात्रा उसके स्वास्थ्य के लिए 'सुरक्षित` सीमा-रेखा को लांघ ले । और इस तरह, वह लेथारिज्म से प्रभावित हो जाये ।
सच्चई से भरे इस तर्क से बचाव का ब्रह्मास्त्र भी पोषण विज्ञानियों ने तलाश रखा है । प्रसिद्ध विज्ञान पत्रिका लेन्सैट ने गेटाहन एवं उनके सहयोगियों द्वारा सन् २००३ में लिखे शोधपत्र का उल्लेख करते हुए कहा कि नये प्रकार के (सुरक्षित) तिवडे को खाने वालों को सुरक्षा की केवल कुछ 'छोटी-मोटी` शर्तों का पालन करना होगा । इन शर्तों का सार यह है कि खाने से पहले तिवडा को भिगोकर इतनी देर रखना होगा जिससे उसमें खमीर उठने लगे । उसके बाद, इस खेसारी को एण्टी ऑक्सिडेण्ट वाले बीजों की तरी (ग्रेवी) में मिलाने और सल्फर अमीनो एसिड वाले अनाजों के साथ मिलाकर खाने से, उसको खाने से होने वाले पक्षाघात की सम्भावना 'कम` हो जाती है ।
स्पष्ट है, खतरे की चेतावनी देने वाले क्लिष्ट तकनीकी और वैज्ञानिक  कारण स्वयं वैज्ञानिक दस्तावेजों में ही पर्याप्त मात्रा में सुलभ हैं ।
खेसारी से जुडे 'व्यवसाय` की तह तक जाने पर, यह सच्चई उजागर हो जाती है कि अतीत का सारा खेल मिलावट के व्यवसाय का रहा है। हाँ, इस मिलावट के प्रकार अलग-अलग अवश्य रहे हैं । इस सबके बीच महत्वपूर्ण खबर यह भी है कि फूड सेटी एण्ड स्टैण्डर्ड अथॉरिटी ऑफ इण्डिया (एफएसएसएआई) ने निर्णय लिया है कि वह अपने स्तर पर, स्वतंत्र रूप से, पहले यह जाँचेगी कि खेसारी मानव खाद्य के लिए सच में सुरक्षित है या नहीं ? उसका कहना है कि अपने इस मूल्यांकन के बाद ही वह खेसारी की खेती पर से प्रतिबन्ध उठाने की इण्डियन काउन्सिल ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च (आईसीएआर) तथा आईसीएमआर की अनुसंशाओं को अपनी सहमति देगी ।
जैसा कि हमारे देश में सदा से होता आया है, एफएसएसएआई पर प्रत्यक्ष-परोक्ष दबाव बढ़ाने का घृणित खेल भी आरम्भ हो गया है । वायदा बाजार के आसरे देश में दालों की कृत्रिम रूप से फैलायी गयी कमी को खेसारी के सहारे दूर कर पाने का कुतर्क इस खेल का ऐसा आसान हथियार है । यह एक ऐसा हथियार है जिसका सहारा लेकर जनमानस को खेसारी के पक्ष में आसानी से उद्वेलित किया जा सकेगा । इसके बाद जनदबाव की आड़ ले, खेसारी पर प्रतिबन्ध को उठाने की विवशता दिखाना बहुत सरल हो जायेगा । वहीं दूसरी ओर, यह एक ऐसा हथियार भी है जिसे स्वास्थ्य विज्ञान के ठोस तर्कों से काट पाना केवल इस कारण कठिन होगा क्योंकि छलावे वाले इस हथियार के साथ उसका कोई  ठोस वैज्ञानिक तर्क कभी रखा ही नहीं जायेगा । 
एफएसएसएआई के सामने परीक्षा की ऐसी कठिन घड़ी है जब उसे अपनी निष्पक्ष स्वायंत्ता प्रमाणित करने के गम्भीर दायित्व का निर्वाह करना है । बड़ा सवाल तो यह भी है कि क्या एफएसएसएआई ऐसा मंच है भी या नहीं जिसे एक सिद्ध दोषी फसल के सुरक्षित होने अथवा नहीं होने का कोई प्रमाण पत्र देने का नैतिक अथवा वैधानिक अधिकार प्राप्त है ? इस सबसे इतर महत्वपूर्ण यह है कि खेसारी बोई, काटी और बेची ही नहीं जानी चाहिए । 

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