सामयिक
खाने में कुछ तो गड़बड़ है
सुश्री चेतना जोशी
आजकल अखबारों में, टेलिविजन में भोजन विशेषकर सब्जियों में बहुत ही भयानक कीटनाशकों की, जहरीले रंगों की उपस्थिति की खबरें भी आती रहती है । ऐसी खबरें विचलित तो करती हैं पर फिर करें तो क्या करें ।
दूसरे विकल्पों की अनुपस्थिति में हम वही सब खाते रहते हैं । कीटनाशक हैं तो साथ में पौष्टिक तत्व भी हैं । खाना छोड़ें भी तो कैसे? पर कुछ नए शोधों की जानकारी ने तो नई ही परेशानी खड़ी कर दी है । शोध जो ये साबित कर रहे हैंकि सब्जियों और अनाजों में पोषक तत्वों की मात्रा भी अब लगातार घटती ही जा रही है ।
बचपन में ही मां ने मन मंे डाल दिया था कि खाना तो पौष्टिक होना चाहिए । फिर ये भी समझा दिया कि ज्यादा विज्ञापित और दिखने में लाजवाब चीजें तो शरीर के लिए किसी काम की होती ही नहीं । गाजर आंखों के लिए अच्छी है, रेशेदार भोजन पाचन ठीक रखता है। पूर्णतया स्वस्थ रहने के लिए हरी पत्तेदार साग-सब्जियां जरूरी हैं। वगैरह, वगैरह ।
ऐसी शिक्षाएं बचपन में ही मिल जाएं तो कथित तौर पर पौष्टिकता से लबलबाई हुई सब्जियों और दालों की तरफ रुझान हो जाना स्वाभाविक है। धीरे-धीरे फिर वे स्वादिष्ट भी लगने लगती हैं । मन इधर-उधर बाजार में सजी भोजन सामग्री पर ज्यादा नहीं भागता । खाने-पीने का कुछ अनुशासन भी आ जाता है और एक संतोष-संतुष्टि का भाव भी कि मैं तो पौष्टिक भोजन ही कर रहा हूं ।
ऐसी शिक्षाएं बचपन में ही मिल जाएं तो कथित तौर पर पौष्टिकता से लबलबाई हुई सब्जियों और दालों की तरफ रुझान हो जाना स्वाभाविक है। धीरे-धीरे फिर वे स्वादिष्ट भी लगने लगती हैं । मन इधर-उधर बाजार में सजी भोजन सामग्री पर ज्यादा नहीं भागता । खाने-पीने का कुछ अनुशासन भी आ जाता है और एक संतोष-संतुष्टि का भाव भी कि मैं तो पौष्टिक भोजन ही कर रहा हूं ।
आजकल अखबारों में, टेलिविजन में भोजन विशेषकर सब्जियों में बहुत ही भयानक कीटनाशकों की, जहरीले रंगों की उपस्थिति की खबरें भी आती रहती हैं । ऐसी खबरें विचलित तो करती हैं पर फिर करें तो क्या करें । दूसरे विकल्पों की अनुपस्थिति में हम वही सब खाते रहते हैं । कीटनाशक हैं तो साथ में पौष्टिक तत्व भी हैं । खाना छोड़ें भी तो कैसे? पर कुछ नए शोधों की जानकारी ने तो नई ही परेशानी खड़ी कर दी है। शोध जो ये साबित कर रहे कि सब्जियों और अनाजों में पोषक तत्वों की मात्रा भी अब लगातार घटती ही जा रही है। ये सब्जियां और अनाज अब पहले जैसे पौष्टिक नहीं रहे । कीटनाशक बोनस में !
इस विषय को अच्छी तरह से समझने की कोशिश ने मेरी आंखें ही खोल दीं । पता लगा डॉ. डेविस और उनके शोध में संलग्न साथियों का, जिन्होंने समय के साथ सब्जियों और अनाजों की पोषक तत्वों की मात्रा में आए बदलावों को जानने की, मापने की ठान ली । इन लोगों ने तैंतालीस तरह की अलग-अलग सब्जियों और अनाजों में मौजूद पोषक तत्वों की मात्राआंे में पचास साल के समय में आए अंतर का तुलनात्मक अध्ययन किया है । इनमें आलू, प्याज, टमाटर, मूली, सरसों, पालक, फल्ली और मक्का आदि शामिल थे ।
शोध से निष्कर्ष निकला कि इन सब्जियों और अनाजों में उपस्थित छह पोषक तत्वों की मात्राओं में पचास सालों में काफी कमी आई हैं । आयरन की मात्रा में पन्द्रह फीसदी की कमी पाई गई । कैल्शियम की मात्रा में सोलह फीसदी तथा विटामिन बी और सी की मात्रा में अड़तीस और बीस फीसदी तक की कमी मिली । यह शोध जर्नल ऑफ दी अमेरिकन कॉलेज ऑफ न्यूट्रीशन में प्रकाशित हुआ है। शोधकर्ताओं के अनुसार पोषक मात्रा में आई हुई कमी की वजह सब्जियों और अनाजों की पैदावार को बढ़ाने के लिए की गई कवायदें हैं। भले ही इन कवायदों का इरादा ऐसा था नहीं ।
अब इसीलिए ऐसी घटनाओं को अनिच्छित दुष्प्रभाव भी कहा जाता है । वैज्ञानिकों ने इसके पीछे पौधों के वातावरण यानी इनवायरमेंटल तथा जैनेटिक, दो प्रकार के प्रभावों को सक्रिय माना । इनमें से पौधे के वातावरण द्वारा जनित प्रभाव को तो जैरल एवं बेवर्ली नामक वैज्ञानिकोंने वर्ष १९८१ में ही समझा देने की कोशिश की थी । वह सब भी एक महत्वपूर्ण परंतु साधारण से मालूम पड़ने वाले प्रयोग के माध्यम से ।
इन वैज्ञाानिकों ने लाल रसभरी फल के कई सारे पौधे बोए । सभी पौधों को बढ़ने और फलने-फूलने के लिए बिलकुल समान वातावरण दिया । अंतर रखा तो बस एक चीज में । जिस मिट्टी में पौधे लगाए, उसमें अलग-अलग मात्रा में फास्फोरस डाल दिया । मिट्टी के अलग-अलग नमूनों में मात्रा १२ पीपीएम (पार्ट्स-पर-मिलियन) से लेकर अधिक से अधिक ४४ पीपीएम तक रखी । यह पीपीएम क्या बला है, उसे भी समझ लें : मिट्टी में १ पीपीएम मात्रा में उपस्थिति होने का मतलब है कि एक किलोेग्राम मिट्टी में वह पदार्थ एक मिलीग्राम मात्रा में उपस्थित है। किलो में चुटकी भर भी नहीं, राई बराबर बस ।
पौधे बढ़ते रहे । वैज्ञानिकों ने आठ महीने के बाद उन पौधों में फास्फोरस की मात्रा का अध्ययन किया तो पाया कि फास्फोरस की सामान्य मात्रा (१२ पीपीएम) में बढ़े हुए पौधों के मुकाबले ४४ पीपीएस फास्फोरस वाली मिट्टी में बढ़े हुए पौधों में फास्फोरस की सघनता बीस फीसदी तक अधिक थी । मिट्टी में ज्यादा फास्फोरस था तो पौधों में भी उसकी मात्रा ज्यादा होना लाजमी ही है । पर चौंकाने वाली बात यह सामने आई कि ऐसे पौधों में अन्य पोषक तत्वों जैसे पोटेशियम, कैल्शियम, मैगनिशियम, मैग्नीज, जिंक तथा कॉपर और बोरोन की मात्रा में बीस फीसदी से लेकर पचपन फीसदी तक की कमी आ गई थी ।
फास्फोरस की बढ़ी हुई मात्रा की वजह से पौधों का शुष्क द्रव्यमान भी बढ़ गया था । वैज्ञानिकों ने माना कि अधिक उर्वरण ने पौधों को तेजी से तो बढ़ाया पर साथ ही उसमें खनिज पदार्थों की सघनता को कम कर दिया । चंूकि पोषक तत्वों की मात्रा में कमी पौधों के वातावरण में भिन्नता की वजह से थी, उन्होंने इसको `वातावरण द्वारा प्रेरित तरलीकरण` का नाम दिया ।
अब ये समझना आसान है कि मिट्टी को मिले हुए अधिक उर्वरण का साग-सब्जियों तथा फल और अनाजों की पोषक तत्वों की मात्रा से कैसा टेढ़ा संबंध है। ऐसे शोधों का हिंदुस्तान में अभाव है। इंग्लैंड तथा अमेरिका के शोध इस पर रोशनी डालते हैं । इन देशों में ब्रौकली, हरे रंग की फूलगोभी काफी खाई जाती है । ये कैल्शियम का एक बेहतरीन स्त्रोत मानी जाती है। इसकी विभिन्न प्रजातियों में कैल्शियम की मात्रा क्या समान बनी हुई है या ये भी बदल गई है ?
ये सब जानने के लिए वैज्ञानिकों ने सन् १९८० और १९९० के दशक में निकाली गई इसकी २७ प्रजातियों का अध्ययन किया । पाया गया कि ब्रौकली की इन प्रजातियों में कैल्शियम की मात्रा सन् १९५० में ब्रौकली में मौजूद मात्रा के मुकाबले ७७ प्रतिशत तक कम हो गई है। इतना बड़ा अंतर करीब ४६ वर्षों के अंतराल में । `ब्रौकली खाओ-पौष्टिक है` ऐसा कहना तो जैसे कहावत मात्र हो गया हो । फिर ऐसा ही चला तो आगे आने वाले वर्षों में कितना कैल्शियम बचेगा भला ।
ब्रौकली तो वैसे भी हम कम ही खाते हैं । हम तो देसी सब्जियां, अनाज, फल ही ज्यादा पसंद करते हैं । ऐसा सोचकर भी फायदा नहीं । हम ब्रौकली के साथ हो रही दुर्घटना से बच नहीं सकते । गेहूं तो खाते हैं न हम । यह कार्बोहाइड्रेट के अलावा जिंक और आयरन जैसे खनिजों का भी अच्छा स्त्रोत है । डॉ. गार्विन और उनके साथियों के मुताबिक जब भी गेहूं की पैदावार में एक किलोग्राम का मुनाफा हुआ तो उसमें मौजूद आयरन और जिंक की मात्रा ३ नैनो ग्राम तक कम हो गई । उन्होंने गेहूं की १४ तरह की प्रजातियों के अध्ययन के बाद ये निष्कर्ष निकाले हैं । ये १४ प्रजातिया अमेरिका में करीब १०० वर्षों के दौरान विकसित हुई तथा फली-फूली हैं । तो आधुनिक कृषि विज्ञान ने प्रति एकड़ गेहंू की पैदावार बढ़ाई और साथ ही साथ उसी अनुपात में उसकी पौष्टिकता घटाई ।
जैसे गेहूं वैसा ही हमारा कृषि और बागवानी का विज्ञान सब्जियों पेड़, पौधों में फलों के साथ कर रहा है । उनकी संख्या ज्यादा से ज्यादा हो, फल दिखने में भी सुंदर हों, आकार में भी बड़े से बड़े हों- वैज्ञानिक इन सभी गुणोंे का समावेश अपने बनाए बीजों में कराना चाहता है। पर बीजों में पोषण भी अधिक से अधिक हो, ऐसा उसकी प्राथामिकता में अमूमन नहीं होता । फलों, सब्जियों और अनाजों का ८० फीसदी से भी ज्यादा भाग कार्बोहाईड्रेट होता है ।
जब एकब्रीडर उपज को बढ़ाने का जतन करता है तो वह उसके कार्बोहाईड्रेट को ही बढ़ाता है । एक किस्म के बाद दूसरी किस्म विकसित की जाती है । फल बड़े से बड़ा और संख्या में अधिक से अधिक होता चला जाता है । इन सबके बीच पौधों में मिट्टी से खनिज को लेने की क्षमता या प्रोटीन और विटामिन आदि पोषक तत्वों को बनाने की क्षमता नहीं बढ़ती और इस तरह पोषक पदार्थों की मात्रा कहीं पीछे ही छूट जाती है । जिस आधुनिक कृषि विज्ञान ने यह सब दिया है, उसी ने इसे एक नया नाम भी दिया है : `जैनेटिक डाईल्यूशन इफैक्ट`। पोषक तत्वों से कथित तौर पर लबलबाए हुए भोजन को खाने के बाद भी हमारा शरीर स्वस्थ क्यों नहीं रह पाता, इसका भी यही कारण है ।
हम जो खाते हैं, वही हम बन जाते हैं - ऐसा गांधीजी ने कहा था । हम क्या खा रहे हैं और जो खा रहे हैं, वह हमें क्या बना रहा है, इस बारे में विचारने की जरूरत है ।
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