सोमवार, 11 फ़रवरी 2008

४ ऊर्जा जगत

परमाणु ऊर्जा के और भी विकल्प हैं
रिचर्ड महापात्र
विश्व के किसी भी देश को इस बात की जानकारी नहींहै कि रेडियोएक्टिव अपशिष्ट का सुरक्षित व स्थायी निपटान किस प्रकार किया जा सकता है । दूसरे शब्दों में कहें तो काम में आ चुके यूरेनियम की कम से कम १५००० वर्षो तक और प्लूटोनियम की ७५००० से १००००० वर्षो तक निगरानी रखनी पड़ेगी । विश्व में ४४२ परमाणु संयंत्र प्रतिवर्ष १२ हजार टन रेडियोएक्टिव अपशिष्ट उत्पन्न करते हैं। अगर परमाणु हथियारों को नष्ट किया गया तो इससे ५० हजार टन प्लूटोनियम की वृद्धि होगी । सन् २००४ में ओबनिन्स में दुनिया के पहले परमाणु ऊर्जा केन्द्र की पचासवीं वर्षगांठ के अवसर पर विश्व में ३२ देशों के ५०० वैज्ञानिक व नीति निर्माताआे ने एक स्वर में यह तय किया कि परमाणु ऊर्जा को २१वीं शताब्दी में एकमात्र विश्वसनीय ऊर्जा स्त्रोत के रूप में प्रोत्साहित किया जाए । परमाणु ऊर्जा क्षेत्र के पुनरूद्धार की बात उस समय उठी है जबकि विश्व के ४४२ परमाणु रिएक्टरों में से ७० प्रतिशत की आयु सीमा समािप्त् पर है । परमाणु ऊर्जा विश्व के ऊर्जा उत्पादन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने में भी असफल रही है और २००२ में इन सभी रिएक्टरों का सम्मिलित ऊर्जा उत्पादन ३६० गीगावाट इलेक्ट्रिकल (जीडब्ल्यूई) था जो कि विश्व विद्युत उत्पादन का मात्र १६ प्रतिशत है । इतना ही नहीं यह अनुपात १९८७ से स्थिर है । अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेन्सी का कहना है कि वर्ष २०१५ तक उपरोक्त में मात्र १० जीडब्ल्यूई की वृद्धि संभव है। इतना ही नहीं वर्ष २०३० तक अपनी आयु सीमा पूर्ण कर चुके ४०० पुराने रिएक्टरों को नए रिएक्टरों से बदलना होगा अन्यथा विद्युत आपूर्ति में जबरदस्त कमी आ सकती है । चूंकि विकसित देशों की घरेलू आबादी अपने यहां नए संयंत्र खोलने की अनुमति नहीं दे रही है अतएव विकसित देश अपने पुराने रिएक्टरों की आयु सीमा को बढ़ा रहे हैं । अमेरिका के परमाणु नियामक आयोग ने १९७७ से अब तक ९६ रिएक्टरों की क्षमता २० प्रतिशत तक बढ़ाने की अनुमति दी है । स्विजरलैंड ने अपने पांच रिएक्टरों की क्षमता में १२.३ प्रतिशत की वृद्धि की है। वहीं जापान ने अपने संयंत्रों की आयु सीमा ७० वर्ष तक और बढ़ाने का निश्चय किया है । वहीं आईएईए के परमाणु ऊर्जा तकनीक विकास विभाग के रोनाल्ड स्टेडर का कहना है कि `हमें अपनी क्षमता बढ़ाने के लिए प्रतिवर्ष चार नए रिएक्टरों की स्थापना करनी होगी । परंतु क्या यह व्यवहारिक है ?' इस संबंध में यूरोप में अजीब-सी स्थिति उत्पन्न हो गई है । एक ओर जर्मनी है जो कि सुरक्षा और इससे उत्पन्न अपशिष्ट के मद्देनजर २०५० तक परमाणु ऊर्जा से छुटकारा पा लेना चाहता है । वहीं दूसरी ओर फ्रांस के कुल विद्युत उत्पादन का ८० प्रतिशत परमाणु ऊर्जा से आता है वह इस क्षमता में और वृद्धि करना चाहता है । इन दो चरम स्थितियों की बीच अन्य देश अवस्थित है । पिछले वर्षो में यूरोपियन यूनियन की सदस्यता लेने वाले देशों में से चेक गणराज्य, स्लोवाक गणराज्य, स्लोवेनिया, हंगरी और लिथुएनिया मुख्यता रूस में निर्मित रिएक्टरों का प्रयोग कर रहे हैं । चंूकि अगले २० से ३० वर्षो में यूरोप की आयातित ऊर्जा पर निर्भरता ७० प्रतिशत तक बढ़ जाएगी अतएव उसने अनुशंसा की है कि वह परमाणु ऊर्जा को व्यापक स्वीकृति प्रदान करते हुए ऊर्जा सुरक्षा पर एक पर्यावरणीय लेखाजोखा (ग्रीन पेपर) जारी करें । इसी बीच अमेरिका ने इस दिशा में कदम बढ़ाते हुए अमेरिकन परमाणु ऊर्जा २०१० कार्यक्रम के अंतर्गत वहां की सरकार एवं निजी कंपनियों ने एक साथ कार्य करते हुए नए परमाणु संयंत्रों हेतु स्थानों का चयन किया है । इस कार्यक्रम के अंतर्गत घोषित प्रथम संयंत्र इस दशक के अंत तक बनकर तैयार हो जाएगा । हालांकि एशिया को परमाणु ऊर्जा का भविष्य माना जा रहा है । अमेरिका स्थित ऊर्जा सूचना प्रशासन ने २००४ में जारी रिपोर्ट में कहा है कि २०२५ तक एशिया की क्षमता में ४४ जीडब्ल्यूई की वृद्धि संभावित है । जो कि पूरे विकासशील विश्व की दर्शाई गई क्षमता का ९६ प्रतिशत है । इसमें से चीन १९ जीडब्ल्यूई, दक्षिण कोरिया १५ जीडब्ल्यूई,जापान ११ जीडब्ल्यूई और भारत और रूस ६ जीडब्ल्यूई की वृद्धि करेंगे । परमाणु ऊर्जा को पर्यावरणीय व राजनीतिक, दोहरी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है । पर्यावरण के प्रति चिंता इसे सार्वजनिक स्वीकृति प्रदान नहीं कर पा रही है । वहीं ९/११ सितंबर के पश्चात यह एक राजनीतिक विषय वस्तु के रूप में तब्दील हो गई है । पुरानी पड़ती अधिसंरचना और इसके अबाध प्रवाह को रोकने हेतु विकसित तकनीक इसकी अन्य चुनौतियां हैं । इतना ही नहीं विभिन्न राष्ट्रों के बीच तकनीक के संबंध में बन रहा गतिरोध व नए संयंत्रों की स्थापना के स्थानों को लेकर भी अंतर्विरोध बना हुआ है । रूस और चीन चाहते हैं कि यह रिएक्टर काडाराची,फ्रांस में लगे तो अमेरिका, दक्षिण कोरिया व जापान चाहते हैं कि यह रोक्काशोमुरा, जापान में स्थापित हो । परंतु रेडियोएक्टिव अपशिष्ट निपटान की पर्यावरणीय समस्या दिन-ब-दिन व्यापक रुप लेती जा रही है । आईएईए के उपनिदेशक जनरल का कोई सर्वमान्य ही ढूंढ ही लेना होगा अन्यथा परमाणु ऊर्जा की नकारात्मक छवि से छुटकारा पाना नामुमकिन है । परमाणु ऊर्जा की राह में सबसे बड़ा रोड़ा इसके उत्पादन तकनीक में लगने वाली लागत है । विद्युत बाजार पर नियंत्रण समाप्त् होेने से इसे कोयले, गैस व जल विद्युत परियोजनाआें से प्रतिस्पर्था करना पड़ा रही है । वर्तमान में कार्यरत संयंत्रों की लागत का या तो भुगतान हो गया है अथवा उन्हे सब्सिडी के माध्यम से चुका दिया गया है । अतएव वर्तमान में कार्यरत अधिकांश संयंत्र जा विकसित देशों में है और अच्छा लाभ भी दे रहें हैं । परंतु नये संयंत्रो की स्थापना अब दुष्कर होती जा रही हैं । जीवाश्म इंर्धन आधारित संयंत्रों की तुलना में परमाणु संयंत्रो की लागत तीन गुना अधिक है । इसके निर्माण में कम से कम १२ से १५ वर्ष लगते हैं । इससे पूंजी के प्रवाह में अवरोध आ जाता है । अपने आकल्पन से कार्य में आने तक के लिए एक संयंत्र को २५ से ३० वर्ष चाहिए । इस तरह से निवेश पर किसी भी तरह की वापसी हेतु तीन दशकों तक इंतजार करना पड़ता है । अतएव कोई आश्चर्य नहीं कि पश्चिमी यूरोप और अमेरिका में हाल ही में ऊर्जा के क्षेत्र में हुए निवेश प्राकृतिक गैस आधारित संयंत्रो की ओर मुड़े हैं । भारत का परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम वर्तमान में उसकी ३ प्रतिशत की भागीदारी को २०५० तक २५ प्रतिशत की सीमा पर ले जाना चाहता है । इस हिसाब से ऊर्जा बाजार पर प्रतिवर्ष आधा प्रतिशत के हिसाब से कब्जा करना है । भारत अपने परमाणु कार्यक्रम पर बड़ी मात्रा में धन लगा चुका है । वह अब तक इस क्षेत्र में १० लाख करोड़ रुपए का निवेश कर चुका है । इस निवेश के मुकाबले मात्र तीन प्रतिशत का विद्युत उत्पादन संसाधनों का बड़ी मात्रा में अपव्यय नहीं तो और क्या है ? आज सबसे बड़ी चुनौती परमाणु ऊर्जा को प्रतिस्पर्धात्मक बनाने की है । वैसे भारतीय परमाणु ऊर्जा निगम लिमिटेड के विश्लेषण में कहा गया है कि परमाणु संयंत्र अपने प्रारंभ होने के ४ से ५ वर्ष पश्चात कोयले आधारित संयंत्र के मुकाबले सस्ता पड़ने लगता है । परंतु इस हेतु बड़ी मात्रा में सरकारी निवेश की आवश्यकता पड़ती है और बिजली उत्पादन में बड़ी मात्रा में छूट की दरकार भी होती है । अपनी बाध्यता को सनक में परिवर्तित न होने देने हेतु भारत का ऊर्जा के क्षेत्र में अपने विकल्पो को खुला रखना चाहिए । परमाणु ऊर्जा कोई अनिवार्यता नहीं है, अतएव भारत को परमाणु ऊर्जा से सम्मोहित भी नहीं हो जाना चाहिए ।***

कोई टिप्पणी नहीं: