सोमवार, 11 फ़रवरी 2008

११ विशेष लेख

जलवायु परिवर्तन और हम
सुश्री रेशमा भारती
अंतर्राष्ट्रीय मंचो पर प्राय: विकसित और विकासशील देशों के बीच मूलत: वाद-विवाद का विषय बनकर रह गई जलवायु परिवर्तन की चुनौती भले ही रोजमर्रा के आजीविका के संघर्ष व व्यस्त दिनचर्या में लीन लोगों के लिए महज खबर या अकादमिक विषय सामग्री मात्र ही हो; पर सच्चई तो यह है कि हवा, पानी, खेती, भोजन, स्वास्थ्य, आजीविका, आवास आदि सभी पर प्रतिकूल असर डालने वाली इस समस्या से देर-सवेर, कम-ज्यादा हम सभी का जीवन प्रभावित होना है । चाहे वे समुद्री जलस्तर बढ़ने से प्रभावित होते तटीय या द्वीपीय क्षेत्रों के लोग हों या असमान्य मानसून अथवा जल संकट से त्रस्त किसान । विनाशकारी समुद्री तूफान का कहर झेलते तटवासी हों अथवा सूखे की विकट स्थितियों से त्रस्त लोग असमान्य मौसम से जनित अजीबो गरीब बीमारियां झेलते लोग हों या विनाशकारी बाढ़ में अपना आवास व सब कुछ गवां बैठे तथा दूसरे क्षेत्रों को पलायन करते लोग ये तमाम लोग जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहे हैं । बढ़ते समुद्री जलस्तर से डूबते क्षेत्र, असमान्य मानसून अथवा बाढ़ सा सूखे की विकट स्थिति से नष्ट होती खेती, विनाशकारी समुद्री तूफान, मलेरिया-डेंगू जैसे कई रोगों का फूटना, अन्य जीव प्रजातियों का लुप्त् होना इन तमाम स्थिति का जिक्र जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों की चर्चा करते वैज्ञानिकों ने समय-समय पर किया है । प्रसिद्ध अर्थशास्त्री निकोलस स्टर्न इस संकट का एक आयाम मानव इतिहास में सर्वाधिक पलायन के दौर के रूप में भी देखते हैं । हाल ही में जलवायु परिवर्तन संबंधी बाली सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम व जर्मन एडवाइजरी कांऊसिल ऑन ग्लोबल चेंज द्वारा पेश की गई एक नई रिपोर्ट भी यही कहती है कि जलवायु परिवर्तन खाद्य उपलब्धि, जल आपूर्ति और भूमि स्त्रोतों में कमी लाकर और पर्यावरण विस्थापितों की संख्या में बढ़ोतरी करके दुनिया में तनाव बढ़ा सकता है और लड़ाइयोंं को भड़का सकता है । अर्थशास्त्री निकोलस स्टर्न ने यह भी चेताया था कि जलवायु परिवर्तन विश्व अर्थव्यवस्था के लिए भी गंभीर खतरे व अनिश्चितताएं पैदा करता है । स्पष्ट है कि सभी लोगों की बुनियादी जरूरतें जलवायु परिवर्तन से प्रभावित होगी । सबसे बढ़कर यह धरती पर जीवन के अस्तित्व के लिए गंभीर चुनौती है । आधुनिक औद्योगीकृत, मशीनीकृत आर्थिक व्यवस्था और बढ़ते हुए उपभोक्तावाद की स्वाभाविक परिणति है प्रकृति का दोहन और जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिए बहुत प्रभावपूर्ण कदम तो नहीं उठा सकते पर व्यक्तिगत स्तर पर लालच, उपभोग, ऐश्वर्य प्रदर्शन, असीमित महत्वकांक्षाआे और संसाधनों को हड़पने की प्रवृत्ति पर नियंत्रण करके तथा सादगीपूर्ण, यथासंभव प्रकृतिसम्मत जीवन शैली अपनाकर हम इस दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास कर सकते हैं । अमीरों की उपभोक्तावादी जीवन शैली और इंर्धन-ऊर्जा की बेइंतहा खपत पर्यावरण पर ज्यादा बोझ डालतरी है । इसके वितरीत गरीबों की सीमित क्रय क्षमता उन्हें अपेक्षाकृत कम उपभोगी बनाती है पर सुरक्षा व संसाधनों के अभाव या प्रकृति पर सीधा निर्भर आजीविका के चलते गरीब लोग जलवायु परिवर्तन की मार भी प्राय: सर्वाधिक झेलते हैं और तो और प्रदूषण नियंत्रण या वैकल्पिक संसाधनों के प्रसार के नाम पर भी कई बार गरीबों को आजीविका या जरूरी संसाधनों से वंचित होना पड़ता है । भारत के संदर्भ में ही हाल के समय में ग्रीनपीस की एक सर्वेक्षण रिपोर्ट इस बात को रेखांकित करती है कि भारत में सर्वाधिक आमदनी वाले वर्ग के एक फीसदी लोग सबसे कम आमदनी वाले ३८ फीसदी लोगों के मुकाबले कार्बन डाइऑक्साइड सा साढ़े चार गुना उत्सर्जन करते हैं । रिपोर्ट के मुताबिक तीस हजार रूपए मासिक आमदनी वाले सबसे ज्यादा आय वाले वर्ग के व्यक्तियों का औसत कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन, तीन हजार रूपए मासिक आमदनी वाले सबसे कम आय वर्ग के व्यक्तियों की तुलना में साढ़े चार गुना ज्यादा है । ग्रीन पीस इण्डिया के कार्यकारी निदेशक जी अनंत पद्मनाभन ने कहा कि भारत की प्रति व्यक्ति औसत उत्सर्जन की मात्रा कम होने के मुख्य वजह इसकी ८० करोड़ गरीब आबादी हैं जो न के बराबर उत्सर्जन करती है जबकि देश की चौदह फीसदी जनसंख्या की आमदनी आठ हजार रूपए मासिक से ज्यादा है और देश के कुल कार्बन उत्सर्जन में इसका हिस्सा चौबीस फीसदी है । ज्यादा आय वर्ग के लोगों के लिए अनिवार्य न्यूनतम क्षमता मानदंड नहीं बनाए गए हैं । ऊर्जा की फिजूलखर्ची करने वाले अनेक घरेलू उपकरणों व कारों का इस्तेमाल यह वर्ग भरपूर करता है । देश की गरीब आबादी जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न खतरों को सहती काफी है । पर्यावरण विनाश व जलवायु परिवर्तन उसी तथाकथित विकास का नतीजा है जो विषमता और गरीबी को भी जन्म देता है । इनकी आधारभूत जड़ें लालच, उपभोक्तावाद, आधिपत्य व हड़पने की प्रवृत्ति में निहित हैं । अंधाधुंध औद्योगीकरण, मशीनीकरण और उपभोक्तावाद प्रेरित यह विकास प्रक्रिया यदि यूं ही जारी रही तो जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याएं सचमुच इतनी विकट हो जाएंगी कि धरती पर जीवन का अस्तित्व ही मिट सकता है । जलवायु परिवर्तन की गंभीर समस्या से निपटने के लिए राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर ठोस कदम उठाए जाने जरूरी हैं पर अपने आर्थिक हितों के चलते बड़े उद्योग व कॉर्पोरेट सेक्टर इस संदर्भ में होने वाले अंतर्राष्ट्रीय संधि-समझौतों तथा राष्ट्रीय नीति-निर्णयों में दखलअंदाजी करते रहते हैं । अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भी इस समस्या के निदान की जिम्मेदारी विकसित और विकासशील देश एक-दूसरे पर लादते अधिक नजर आते हैं । जीवाश्म इंर्धनों की खपत और ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में कौन कितनी कमी करेगा इसको लेकर इन खेमों में बहस ही अधिक होती रहती है । इस प्रकार सभी के जीवन को प्रभावित करने वाली यह गंभीर चुनौती एक अंतहीन वाद-विवाद और कहीं ले जाती बहस का विषय भर बन कर अधिक रह जाती है । जबकि समस्या चिंताजनक रूप से बढ़ चुकी है । वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि अगर तापमान मौजूदा दर से बढ़ता रहा तो यह सदी बीतते-बीतते करोड़ों लोगों को भुखमरी, बेघर और बीमारियों की स्थिति में ला सकता है । ग्रीन हाऊस गैसों में कटौती के दायित्व को जिस आर्थिक विकास की दुहाई देकर टाला जाता है वह समूचा आर्थिक विकास भी धरा का धरा रह सकता है । अर्थशास्त्री निकोलस स्टर्न की रिपोर्ट यह बताती है कि जलवायु परिवर्तन आर्थिक विकास को उल्लेखनीय रूप से कम करेगा। अगर समय रहते कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया तो जलवायु परिवर्तन का खतरा इतना होगा जितना हर वर्ष कम से कम लगभग ५% सकल घरेलू उत्पाद का खोना । जबकि समय रहते जलवायु परिवर्तन को कम करना इतना खर्चीला नहीं है । जितने ठोस व जल्द से जल्द कदम उठाए जाएंगे उससे जलवायु परिवर्तन से जूझना उतना ही कम खर्चीला रहेगा । जापान के शहर क्योटो में जन्मी प्रसिद्ध पर्यावरण संधि क्योटो संधि में लक्ष्य रखा गया था कि ३६ औद्योगिक देशों द्वारा ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में १९९० के स्तर से ५ प्रतिशत की कमी लायी जाएगी । हाल के बाली (इंडोनेशिया) सम्मेलन तक इस संधि पर १७२ सदस्य देशों के हस्ताक्षर हो गए थे। बाली सम्मेलन की शुरूआत में ही आस्ट्रेलिया भी इस संधि में शामिल हो गया, हालांकि उसने यह स्पष्ट कर दिया कि वह अगले साल तक ग्रीन हाऊस गैस उत्सर्जन में कटौती को लेकर किसी प्रकार का वादा नहीं कर सकता । खैर इसके बाद संयुक्त राज्य अमेरिका ही एकमात्र ऐसा समृद्ध देश बचा जिसने क्योटो प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं । हाल के बाली सम्मेलन में भी अमरीका ने ही विकसित देशों द्वारा ग्रीन हाऊस गैसों में कटौती का कोई निर्धारित लक्ष्य तय करने में अड़चने डालींं । सन् २०१२ तक जलवायु परिवर्तन से जूझने का जो बाली रोड मैप इस सम्मेलन में तैयार हो रहा था अमरीका की अड़चनों से वह पूर्ण रूप नहीं ले सका । हालांकि २००९ तक इसमें ग्रीन हाऊस गैसों में कटौती के लिए कदम उठाने, जलवायु परिवर्तन के असरों के अनुरूप विकासशील देशों को स्वयं को ढालने में मदद करने, इको फ्रैंडली तकनीक अपनाने और स्थिति से अनुकूलन के व तकनीकी उपायों को आर्थिक आधार उपलब्ध कराने संबंधी लक्ष्य तो निर्धारित हो गए हैं । पर ग्रीन हाऊस गैसों में विकसित देशेां द्वारा कटौती की दिशा में किसी ठोस कदम की बात इस सम्मेलन में नहीं हो पायी । अमरीका (जो इस संदर्भ में सर्वाधिक अड़ियल रूख अपनाए था) कि मुख्य चिंता थी कि भारत और चीन जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाआें को ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में बड़ी कटौती करने को बाध्य किया जाए । सच तो यह है कि ग्लोबल वॉर्मिंग व जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में अब विकसित और विकासशील देशों के बीच झगड़े का समय नहीं बचा है । समस्या इतना विकराल रूप ले चुकी है कि यदि जलवायु परिवर्तन के खतरों से धरती को बचाना है तो पूरी दुनिया को एक होना होगा । ***

1 टिप्पणी:

Shastri JC Philip ने कहा…

आपने इस लेख को "फुल जस्टिफाई" किया है. यह इंटरनेट एस्क्प्लोरर में तो सही दिखता है, लेकिन फायरफाक्स में इसका एक शब्द भी नहीं पढा जाता है. सारे के सारे अक्षर खंडित हैं.

चूंकि आज जाल पर 50% अधिक फायरफाक्स या उसके इंजन पर अधारिक ब्राउसरों का प्रयोग करते हैं, अत: हिन्दीजगत के आधे से अधिक लोग आप का चिट्ठा नहीं पढ पाते.

जब कोई चिट्ठा पढने की स्थिति में नहीं है तो लोग उसे छोड कर आगे बढ जाते हैं. उनको कोई नुक्सान नहीं लेकिन चिट्ठाकार को नुक्सान है क्योंकि जिन लोगों के लिये उसने मेहनत से यह चिट्ठा तय्यार किया है उसमें से आधे लोग इसे पढ नहीं पाते हैं.

कृपया भविष्य में सिर्फ "लेफ्ट जस्टिफाई" का प्रयोग करें जिस से आपके चिट्ठे पर आने वाले 100% लोग इसे पढ सकें.