सोमवार, 11 फ़रवरी 2008

५ जन जीवनवन

अधिकार कानून : अभी तो अंगड़ाई है
राजु कुमार
एक लंबे अंतराल के बाद आखिरकार केन्द्र सरकार को इस बात की चिंता हुई कि आदिवासियों एवं अन्य जंगलवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय से उन्हें मुक्ति दिलाने और जंगल पर उनके अधिकरों को मान्यता देने के लिए संसद ने दिसम्बर, २००६ में जिस कानून अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, २००६ का पारित कर दिया था, उसे अंतत: लागू कर दिया जाए। १ जनवरी २००८ से यह कानून लागू हो गया है । निश्चय ही यह कहा जा सकता है कि पीढ़ियों से अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत जंगल में निवासरत समुदाय को कानूनी रुप मे पहली बार कुछ हासिल हुआ है । इस तरह देखा जाए तो आदिवासियों एवं अन्य जंगलवासियों को यह आस जगी है कि अब उन्हें न सिर्फ वन विभाग और वन माफिया के अत्याचारोंसे मुक्ति मिलेगी बल्कि वे जंगल का उपयोग भी अपने जीविकोपार्जन के लिए कर सकेंगे । कानून के लागु हो जाने के बाद भी कई ऐसी बातें हैं, जिस पर बहस चलाए जाने की जरुरत है । सबसे बड़ी बात तो यह है कि क्या वास्तव में सरकार की यह मंशा रही है कि आदिवासियों एवं अन्य जंगलवासियों को जंगल पर अधिकार मिल जाएं ? या फिर विभिन्न दबावों के कारण सरकार ने इस कानून के मार्फत बीच का रास्ता निकालने का प्रयास किया है ? जंगल में रहने वालों और उस पर आश्रितों को लगभग पिछली दो सदियों से बड़े पैमाने पर अत्याचारों का सामना करना पड़ा है । जंगल के संसाधनों का दोहन कानूनी और गैर कानूनी रुप से सैकड़ो सालों से होता रहा है । यह दोहन तथाकथित मुख्यधारा के लोग करते रहे हैं और खमियाजा आदिवासियों एवं अन्य जंगलवासियों को भुगतान पड़ता रहा है । हालात कुछ ऐसे हुए कि विकास के नाम पर कुछ लोगों की कुर्बानी की जायज ठहराये जाने की स्वीकार्यता बढ़ाने में शासन एवं प्रशासन दोनों ने प्रमुख भूमिका निभाई । इसके बावजूद इस तथ्य को छिपाना किसी के लिए भी आसान नहीं रहा कि विकास के नाम पर जिनसे कुर्बानी की अपेक्षा की जाती रही है या फिर जिन्हें कुर्बान होना पड़ा है, उनमें से ९० फीसदी आदिवासी एवं अन्य जंगलवासी हैं । यह आश्चर्य की बात है कि एक ओर विकास एवं औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया तेज की जा रही है और इसके लिए जंगल और जमीनों के अधिग्रहण किए जा रहे हैं और दूसरी ओर इस कानून के माध्यम से आदिवासियों एवं अन्य जंगलवासियों को अधिकार संपन्न बनाया जा रहा है । इन पहलुआें को देखते हुए इस कानून के लागू हो जाने के बाद भी यह शंका बरकरार रह जाती है कि क्या आदिवासियों एवं अन्य जंगलवासियों को वांस्तविक रुप में जंगल पर अधिकार मिला पाएगा ? कानून के संसद से पारित होने के बाद से इसे लागू करने के बीच के अंतराल को यदि देखा जाए, ता भी बात को बल मिलता है । संसद ने इस कानून को दिसंबर, २००६ में ही पारित कर दिया था । लम्बे समय तक सरकार ने न तो इस कानून को अधिसूचित किया और न ही इसके क्रियान्वन हेतु नियमों को बनाया । ऐसी परिस्थिति में जंगलों में निवासरत लाखों-लाख लोगों को कानून बन जाने के बाद भी अपने अधिकारों से वंचित रहना पड़ा, साथ ही वे पहले की तुलना में इन दिनों वन अधिकारियों से ज्यादा प्रताड़ित हुए । जन संगठनों ने साफ तौर से इस बात को रेखांकित किया है कि इस कानून को लागू करने में सरकार जान बूझकर लेटलतीफी कर रही थी पर विभिन्न जन संगठनों के दबाव के बाद उसके लिए और देर करना संभव नहीं रह गया था । इसके पहले भी सरकार ने घोषणा की थी कि कानून को २ अक्टूबर को अधिसूचित कर दिया जाएगा पर ऐसा नही हो पाया था । कानून बन जाने के बाद इतने दिनों तक उसे अधिसूचित नहीं कर करने और नियम नहीं बनाने के पीछे की कहानी की ओर इशारा करते हुए विभिन्न आदिवासी संगठनों का कहना है कि कानून में संरक्षित क्षेत्र के निवासियों को जो अधिकार हैं उन्हें कमजोर करने के लिए प्रस्तावित नियमों में प्रावधान करने के प्रयास किए जाने के कारण ही इस कानून को लागू करने में सरकार देर करती रही । साथ ही नियमो में ग्राम सभा के अधिकारों को सीमित कर अफसरशाही को बढ़ावा देने का प्रयास भी किया गया है । पिछले दिनों मध्यप्रदेश में कई ऐसी घटनाएं हुई हैं जो यह साबित करती हैं कि कानून बन जाने के बाद भी उसके अधिसूचित नहीं होने और नियम नहीं बन पाने के कारण बीच की अवधि में आदिवासियों पर व्यापक अत्याचार हुए हैं। ऐसा इसलिए किया गया ताकि कानून के अधिसूचित होने से पहले ही जंगल के दावेदारोंको जंगल से खदेड़ दिया जाए और जब उन्हें अधिकार मिले, तब वे दावा करने के लिए जंगल में ही न हों । यानी कानून लागू होने के बाद उन्हें अधिकार तो मिल जाए पर दावेदारी नहीं रहे, क्योंकि तब वे जंगलो में निवासरत ही नहीं माने जाएंगे । यह आशंका इसलिए जाहिर की जाती रही है कि वन विभाग ने नियमों के बनने तक इंतजार करने के बजाय आदिवासियों को जंगल से खदेड़ने में ही रुचि दिखाई है । हाल ही में म.प्र. के बुरहानपुर जिले की नेपानगर तहसील के विभिन्न गांवोंमें निवासरत आदिवासियों एवं अन्य जंगलवासियों पर वन विभाग के हमले ने क्रूर अत्याचार कर आदिवासियों को जंगल से बेदखल कर दिया था, जिसकी व्यापक भर्त्सना हुई । इस तरह की घटनाएं अन्य जगहों पर भी हुई हैं । आदिवासियों एवं अन्य जंगलवासियों को जंगल पर वास्तविक अधिकार मिल जाने से सबसे ज्यादा नुकसान वन माफिया, खदान माफिया और भू-माफिया का होगा, साथ ही वन आधिकारियो की मानमानियों पर भी अंकुश लग जाएगा । इन्हीं कारणों से कानून को कमजोर करने का प्रयास किया जाता रहा है , साथ ही अदिवासियों एवं अन्य जंगलवासियों को जंगल से खदेड़ने के लिए उनके ऊपर वन विभाग द्वारा कई झूठे मुकदमे लगाए जाते रहे हैं। १ जनवरी २००८ को जारी हुए नियमों में यह कहा गया है कि ग्रामसभा गांव के लोगों के अधिकारों की पहचान करेगी । कई आदिवासी समुदाय खासतौर से सहरिया, सामान्य गांव में एक बस्ती के सीमित दायरे में रहते हैं । परंतु अपनी जीविका के लिए पूर्णत: वनों पर आश्रित हैं । साथ ही यह ध्यान देने योग्य है कि इन्हें पूर्व में वनों से विस्थपित किया जा चुका है । ऐसे में इन्हें इस कानून का लाभ कैसे मिल पाएगा? यह सवाल बरकरार है। क्योंकि इस कानून में वनवासियों की पृथक बस्ती, फलिया, टोला या मजरा को इकाई के रुप में मान्यता नहीं दी गई है । संयुक्त संसदीय समिति ने भी कहा था कि आदिवासियों की बस्ती को इस कानून में मान्यता दी जाये,पर ऐसा नही हुआ । कानून के नियमों में ग्राम सभा को जमीनों पर अधिकारों की सूची बनाने का दायित्व तो मिला है किन्तु गांव में कितनी जमीन पर अधिकार बांटे जायेंगे, इसकी जानकारी और नक्शे उपलब्ध करवाने का जिम्मा विभाग के पास है । उल्लेखनीय है कि वर्तमान में अनेकों राज्यों में राज्य स्तर पर जंगल के क्षेत्र की सीमाआे (क्षेत्रफल) के बारे में पुख्ता और विश्वसनीय आंकड़े उपलब्ध नहीं है। अन्य सवाल जो आदिवासियों की भावी पीढ़ियों के अधिकार से जुड़ा हुआ है वह यह है कि इस कानून के अनुसार जंगल में निवास कर रहे निवासियों को चार हैक्टेयर तक की जमीन पर अधिकार मिल जायेगा । पर अधिकांश आदिवासियों के पास इतनी जमीनें नहीं है और यदि अधिकतम सीमा के आधार पर जिन आदिवासियों को इतनी जमीनें मिल भी जाएं, तो क्या उनकी भावी पीढ़ियों के लिए उतनी जमीन पर्याप्त् होगी? इस तरह से जंगल पर सीमित संख्या में आदिवासियों को अधिकार मिल पाएगा और उनका बड़े पैमाने पर पलायन तो जारी रहेगा साथ में उन पर शोषण करना भी आसान होगा । उपरोक्त परिस्थितियों को देखते हुए कहना मुश्किल है कि आदिवासियों एवं अन्य जंगलवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय से यह कानून मुक्ति दिला सकता है । अब देखना तो यह है कि राज्य सरकारें जंगल के दावेदारों की वाजिब हक दिलाने कि दिशा में किस तरह से अपने प्रदेशो में इस कानून का लागू करती हैं, क्योंकि कानून को लागू करने का जिम्मा राज्य सरकारों के ऊपर ही है । यह भी देखना जरुरी है कि राज्य सरकारें अपने राज्य के हितग्राहियों के हितों की रक्षा किस तरह करती हैं और अपने-अपने राज्यों में वन माफिया एवं खदान माफिया पर अंकुश लगाने के लिए क्या ठोस प्रयास करती हैं? राज्य सरकारों को एक महत्वपूर्ण काम यह भी करना होगा कि कानून बननेे के बाद से अब तक जिन आदिवासियों को जंगल से बेदखल किया गया है, उन्हें भी उनके परंपरागत निवास स्थान पर बसाने के लिए गंभीर प्रयास करें। फिलहाल यह आशा ही की जा सकती है कि इस कानून का समुचित लाभ अधिकतम लागों को मिलेगा । वैसे इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इस अधिनियम के लागू हो जाने के बाद वन विभाग द्वारा किए जाने वाले रोज-रोज के अत्याचारों से आदिवासियों एवं अन्य जंगलवासियों को कुछ मुक्ति मिल पाएगी । ***

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