सोमवार, 11 फ़रवरी 2008

८ सामाजिक पर्यावरण

दूध-दही की नदियों वाले देश में बिकता पानी
जगदीश प्रसाद शर्मा
कम आबादी के कारण प्राचीन भारत वन बाहुल्य था । भारतीय संस्कृति में वनस्पति को सजीव माना है, जिस कारण हमारी संस्कृति में वृक्षों और वनों को संरक्षण दिया गया है । इसीलिए प्राचीन भारत देश का ५० प्रतिशत से अधिक भू-भाग हमेशा वनाच्छादित रहा है । हरे-भरे वनों के कारण ही इस देश में भरपूर वर्षा होती थी, बारहमासी नदी-नाले और झरने पूरे देश में मौजूद थे, भू-जल का कोई अभाव नहीं था, जिस कारण भरपूर कृषि उत्पादन होता था। कृषि एवं वन क्षेत्रों में पशुआें के लिए पर्याप्त् चारा उपलब्ध होने के कारण दूध-दही का भी भरपूर उत्पादन होता था । शायद यही कारण था कि प्राचीन भारत में दूध-दही की नदियां बहने की कहावत चरितार्थ हुई । आज से ५० साल पूर्व तक भी खेती को ही उत्तम कर्म माना जाता था। हरियाणा और पंजाब जैसे कृषि प्रधान प्रांतों में वन भूमि नहीं के बराबर है, क्योंकि यहां बहुत पहले वनों का सफाया करके वन भूमि को कृषि भूमि में बदल लिया गया है । आज जिन प्रांतों में वन बचे हैं, वहां बढ़ती आबादी एवं निजी तथा राजस्व भूमि की अनुपलब्धता के कारण वन भूमि पर लोगों की गिद्धदृष्टि हमेशा बनी रहती है । परिवार बढ़ने के कारण अब प्राय: प्रति परिवार (पति, पत्नि और उसके बच्च्े) आधा हेक्टेयर भूमि भी नहीं रही है। ऐसे में गरीब परिवारों की गुजर-बसर के लिये वन भूमि पर किये गये अतिक्रमण का समय-समय पर व्यवस्थापन करना एक मानवीय आवश्यकता महसूस की जाती रही है । अधिकतर लोगों की धारणा है कि शायद इसीलिए ``अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, २००६'' दिनांक ३१ दिसम्बर २००७ से प्रभावशील हुआ है । वर्तमान में देश का लगभग २३ प्रतिशत भू-भाग ही संरक्षित एवं आरक्षित वन घोषित है, जिसका लगभग दो तिहाई भाग ही वन आच्छादित है, जबकि पर्यावरण सुरक्षा हेतु राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार देश का ३३ प्रतिशत भू-भाग वन आच्छादित होना चाहिए । उपरोक्त परिस्थितियों में यह लक्ष्य शायद ही कभी प्राप्त् हो सके । यह सभी जानते हैं कि वनों के नष्ट होने के कारण हमारे वातावरण में परिवर्तन आ रहा है । वर्षा कम हो गई है और अनियमित भी हो गई है । हमारे बारहमासी जल स्त्रोत सूख रहे हैं । सर्दी के दिनों में आने वाली बरसात नहीं के बराबर हो गई है, जिस कारण जहां पहले रबी की फसल थोड़ी सी सिंचाई से हो जाती थी, अब उनमें ज्यादा सिंचाई करनी पड़ती है । इस तरह बरसात की कमी तथा भू- जल का अनियंत्रित एवं अंधाधुंध दोहन होने से भू-जल स्तर गिरता जा रहा है । देश के हर शहर में प्रति लीटर के माप से प्लास्टिक की बोतलों में पीने का पानी बिक रहा है । हरियाणा के जिन गांवो में बच्च्े कभी कुआे मंे छलांग लगाकर नहाते थे, आज वहां पीने के पानी का गंभीर संकट पैदा होने के कारण गांव खाली करने का भय लोगों को सता रहा है, क्योंकि वहां का भू-जल स्तर ४०० से ५०० फुट नीचे खिसक गया है और पानी की उपलब्ध मात्रा भी कम हो गयी है, जिस कारण रहट, ढेकली और चरस जैसे सिंचाई के पुराने साधनों का स्थान अब सबमर्सिबल पम्पस ने ले लिया है । अगर कुछ दिनों के लिए इन गांवों में बिजली नहीं आये तो फसलों की सिंचाई करना तो दूर रहा, पीने का पानी भी उपलब्ध नहीं हो सकेगा, क्योंकि बिजली के बिना सबमर्सिबल पम्पस नहीं चल पायेंगे । यह हैरानी की बात है कि जहां गांवों में दूध बेचना पुत्र बेचने के समान मानते थे, बिना पैसे लिए एक-दूसरे को दूध दे देते थे और राहगीरों हेतु पीने के पानी की धमार्थ प्याऊ लगाते थे, अब वहां भी ऊंटगाड़ियों और बैलगाड़ियों से पीने का पानी बिक रहा है । इसके आगे क्या होगा, भगवान ही जाने । वन वास्तव में धरती माता के केश हैं, ठीक किसी महिला के केश की तरह । वनों के नष्ट होने से बरसात का पानी जमीन में पहले की तरह पर्याप्त् मात्रा में नहीं समा पाता और ऊपरी सतह को ही गीला करते हुए बहकर चला जाता है, ठीक उसी तरह जैसे किसी गंजे व्यक्ति के सिर पर डाला हुआ सारा पानी सिर को गीला करते हुए फिसल जाता है, जबकि केश वाले सिर में कुछ पानी रूक जाता है और केश जितने घने होते हैं, सिर में उतना ही ज्यादा पानी रूकता है । यही कारण है कि घने वनों से बाहरमासी झरनो, नालों और नदियों का उद्गम होता है और इसीलिये विख्यात पर्यावरणविद् सुन्दरलाल बहुगुणा ने वनों को जिन्दा जलाशय की उपमा दी है । खेती करने हेतु जब से ट्रेक्टरों ने बैलों का स्थान लिया है, तब से निजी कृषि भूमि में भी वृक्षों की संख्या काफी घट गई है । इस तरह धरती पर वृक्षों के अभाव में एक तो वर्षा कम हो रही है, दूसरा भूमि में पानी कम मात्रा में समा रहा है तथा तीसरा फसलों की सिंचाई के लिए मशीनों से अधिक मात्रा में भू-जल निकाला जा रहा है, जिस कारण भू-जल स्तर गिरता जा रहा है और झरने तथा नदी-नाले सूखते जा रहे हैं । मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र के संबंध में कहावत रही है, ``मालवा की धरती, गहन गंभीर । पग-पग रोटी, डग-डग नीर ।।'' वनों के घटते क्षेत्रफल एवं घनत्व के कारण पैदा हुए पानी के अभाव में अब यह कहावत झूठी पड़ चुकी है और भगवान महाकाल एवं राजा विक्रमादित्य की पवित्र नगरी उज्जैन से गुजरने वाली कभी बारहमासी रही क्षिप्रा नदी भी सूख गई है । इस कारण अब उज्जैन में कुंभ मेले के आयोजन के समय क्षिप्रा नदी में श्रद्धालुआे के स्नान हेतु मानव निर्मित जलाशयों से पानी छोड़ने की व्यवस्था करनी पड़ती है । मध्यप्रदेश का उज्जैन जिला कृषि प्रधान होने के कारण हरियाणा और पंजाब की तरह यहां के वन भी बढ़ती आबादी के कारण कई वर्ष पहले ही कट चुके हैं और इस जिले में आज केवल ०.५१ प्रतिशत वन भूमि है और वह भी वृक्षाच्छादित नहीं है । आज से ६०-७० वर्ष पूर्व मध्यप्रदेश में वन बाहुल्य रहे बड़वानी जिले में जो नाले बारहमासी थे, वे अब वनों के घटने से सूख चुके हैं तथा वर्षा ऋतु में कभी-कभी ही बहते हैं । इस कारण पानी के अभाव में कृषि उत्पादन घट गया है तथा वन आवरण हटने से भूक्षरण के कारण मिट्टी के बह जाने से वन विहीन पहाड़ियां अब वृक्षारोपण के लायक भी नहीं रह गई है अर्थात सारे सोने के अंडे एक साथ पाने के लिये मुर्गी का पेट काट डाला, जिस कारण अब न तो मुर्गी रही और न ही सोने का अंडा । मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ प्रांतों के खरगोन, बड़वानी, मंडला शहडोल, बालाघाट, सरगुजा, बस्तर आदि वन बाहुल्य जिलों में वनों के घटने के कारण अनेक झरनों और नदी-नालों के सूखने की वहां के वनवासियों के मुख से आंखों देखी बातें सुनने से उक्त तथ्यों की पुष्टि भी होती है । यही हाल देश के अन्य क्षेत्रों में भी है । अगर वनों के घटने एवं नष्ट होने का सिलसिला ऐसे ही जारी रहा तो देश के वनों से निकलने वाली सभी नदियों सूख जाएंगी । पवित्र मानी जाने वाली नदियों में से मध्यप्रदेश की जीवनदायिनी नर्मदा नदी, जिसका उद्गम धार्मिक स्थल अमरकंटक की साल वनों से आच्छादित पहाड़ियों से होता है भी एक दिन सूख जाएगी, जिसके फलस्वरूप इस नदी का पानी पीने वाले कई शहर और गांव प्यास से तड़पने लगेंगे, सिंचाई के अभाव में अन्न उत्पादन में गिरावट आयेगी, पन-बिजली उत्पादन बंद हो जायेगा, जिससे मध्यप्रदेश में आर्थिक विकास की गति अवरूद्ध होगी । भारत वर्ष के मेघालय प्रांत में स्थित दुनिया के सबसे अधिक वर्षा वाले क्षेत्र चेरापंूजी के निवासी वनों की अंधाधुंध कटाई के कारण पीने के पानी के लिए तरस रहे हैं । इस क्षेत्र के लोगों की प्यास बुझाने के लिए अब बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण कर पुन: वन लगाने और इजराइली तकनीक से वर्षा के पानी को भंडारित करने के प्रयास प्रारंभ कर दिए गए है । वर्ष २००७ में नोबल शांति पुरस्कार प्राप्त् करने वाली संस्था यू.एन.आई. पी.सी.सी. (यूनाइटेड नेशन्स इंटर गवर्नमेन्टल पैनल ऑफ क्लाइमेट चेंज) के अध्यक्ष एवं भारतीय वैज्ञानिक डॉ. राजेन्द्र पचौरी का मानना है कि ``ग्लोबल वार्मिंग'' के कारण दुनिया का तापमान बढ़ जाने से वातावरण में बड़ा परिवर्तन आयेगा । बर्फ के पहाड़ों पर स्थित ग्लेशियर्स से निकलने वाली बाहरमासी सतलुज, गंगा और यमुना जैसी नदियां सूख जाएंगी और इन नदियों पर बने बांध सूखने से उत्तर भारत में नहरों द्वारा सिंचाई व्यवस्था और शहरों की पेयजल व्यवस्था ठप्प हो जायेगी तथा पन-बिजली उत्पादन बंद होने से देश में आर्थिक विकास की गति अवरूद्ध होगी । बर्फ पिघलने से समुद्रों का जल स्तर बढ़ेगा, जिससे समुद्रों के किनारे बसे मुम्बई, चेन्नई, कोलकाता और विशाखापट्टनम जैसे कई शहर जलमग्न हो जाएंगे । उल्लेखनीय है कि वातावरण में अन्य गैसों के साथ-साथ मुख्य रूप से कार्बन डाय आक्साइड गैस बढ़ने से ग्रीन हाउस प्रभाव के कारण ``ग्लोबल वार्मिंग'' होती है । कार्बन डाय आक्साइड गैस कम करने में वनों का सबसे बड़ा योगदान रहता है । इसीलिये बर्फीले पहाड़ों पर स्थित ग्लेशियर्स से निकलने वाली बारहमासी नदियों के अस्तित्व और समुद्रतटीय क्षेत्रों को जल मग्न होने से बचाने के लिए पृथ्वी पर वनों का बना रहना अति आवश्यक है। जिन वन बाहुल्य क्षेत्रों में गर्मियों में कभी पंखे चलाने की आवश्यकता नहीं होती थी, आज वहां वनों के कटने से तापमान इतना बढ़ गया है कि उन क्षेत्रों में एयर कूलर्स और एयर कंडिशनर्स चल रहे हैं । धरती से अनाज पैदा करने के लिए पानी भी आवश्यक है । इसीलिये गुरू ग्रन्थ साहिब में धरती को बड़ी माता और पानी को पिता की उपाधि दी गई है। अगर थोड़ी देर के लिये यह मान लिया जाए कि देश को भुखमरी से बचाने के लिये पूरे जंगल की जमीन गरीबों में खेती करने के लिए बांट दी जाए तो क्या देश में भुखमरी और गरीबी दूर हो सकेगी । वनों के कटने से बारहमासी झरनें तथा नदी-नाले, चाहे उनका उद्गम वनों से हो या फिर ग्लेशियर से हो, सूख जाएंगे, भू-जल स्तर धीरे-धीरे नीचे खिसक जायेगा तथा वर्षा और जलवायु भी अनियमित हो जायेंगी, सिंचाई के लिए बिजली उपलब्ध नहीं होगी, जिस कारण देश में जितना अनाज आज पैदा होता है, उतना भी पैदा नहीं हो पायेगा । इससे स्पष्ट है कि वन भूमि को कृषि भूमि में बदलने से भुखमरी मिटेगी नहीं, बल्कि बढ़ेगी । न केवल भुखमरी बढ़ेगी नदी-नालों के सूख जाने और भू-जल स्तर में भारी गिरावट आने और बिजली उपलब्ध न होने से पीने के पानी का भी उपलब्ध नहीं हो सकेगा, जिस कारण भविष्य में शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में भूख से होने वाली मौतों के साथ-साथ प्यास से भी मौतें होने लगेंगी । समुद्रों का जल स्तर बढ़ने से तटीय शहरों की आबादी जलमग्न होकर खत्म हो जायेगी । जब ऐसी स्थिति है तो क्या वनों को अच्छी तरह समझ लिया है, जिस कारण वहां आबादी पर सफल एवं प्रभावी नियंत्रण के साथ-साथ वृक्षों और वनों को इतनी सुरक्षा प्रदान की गई है कि पशु अवरोधक खन्ती तथा चेनलिंग या कांटेदार तार की बागड़ के बिना ही सफलतापूर्वक वृक्षारोपण किए जा रहे हैं, जबकि भारत में आबादी और पशु संख्या के दबाव के कारण अनेक तरीके अपनाने के बाद भी वृक्षारोपणों को सफल बनाना एक टेढ़ी खीर बनी हुई है । जब चीन ऐसा कर सकता है तो सारे जहां से अच्छा हमारा हिन्दुस्तान क्यों नहीं कर सकता ? कमी कहां है ? ऐसी स्थिति में देश की इस समस्या का समाधान क्या है ? अगर इस ओर गहराई से सोच-विचार किया जाए तो हमें कहीं दूर झाकने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि अपने पड़ौस में ही इसका समाधान साफ नजर आ रहा है । जिस तरह चीन ने इस समस्या पर काबू पाया है, दुनिया के दूसरे सबसे अधिक आबादी वाले देश भारत वर्ष को भी इसी रास्ते पर चलना होगा तथा धर्म, जाति सम्प्रदाय आदि को भुलाकर केवल राष्ट्र धर्म को सर्वोपरि रखते हुए आबादी नियंत्रण और वन क्षेत्र बढ़ाने हेतु कानून बनाना होगा । अन्यथा जिस तरह आज की पीढ़ी के लिए यह आश्चर्य है कि प्राचीन भारत में दूध-दही की नदियां कैसे बहती थी, उसी तरह आने वाली पीढ़ियां भी यह विश्वास नहीं कर पाएंगी कि इस देश की धरती पर कभी पानी की नदियां भी बहती थी । आज तो पानी बिक रहा है, लेकिन भविष्य में खरीदने के लिए रूपए लेकर घूमते रहेंगे तो पीने के लिए भी पानी नहीं मिलेगा । आजकल नगर पालका और नगर निगम के नलों पर पीने के पानी के लिए झगड़ों में मौतें होना आम बात हो गई है । नवम्बर २००७ में मध्यप्रदेश के बुन्देलखण्ड के किसानों ने हथियारों से लैस होकर उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती महोबा जिले में स्थित उर्मिल बाँध से पानी लूट लिया । इन सब परिस्थितियों को देखा जाए तो शायद यह सच ही है कि अगर इस धरती पर तीसरा विश्वयुद्ध हुआ तो वह पानी के लिए ही लड़ा जायेगा । कुछ अमीर और प्रभावशील लोग तो जिंदा रहने के लिए शायद किसी समृद्ध देश में चले जायें, लेकिन गरीबों और आम जनता को तो उक्त परिस्थितियों में लकड़ी के अभाव में यही दफन होना पड़ेगा । इसलिए सकारात्मक परिवर्तन लाने और इस देश की धरती को प्राचीन भारत की तरह पुन: खुशहाली से जीने लायक बनाने के लिए जनता को ही जल, जंगल और जमीन को बचाने की पहल करनी होगी । अत: यह पहल आज से ही क्यों न प्रारंभ कर दें और फिर से इस भारत देश को सबसे अच्छा देश बना दें । ***

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