प्राकृतिक आपदा
भूकम्प से बचाव के नवोन्मेषी प्रयास
इरफान ह्यूमन
भूकंप आना पृथ्वी की भूगर्भीय गतिविधियों का एक प्राकृतिक भाग है, जो कभी भी और कहीं भी आ सकता है ।
भूकंप कई कारणों से आ सकता है, लेकिन अमूमन भूकंप तब आता है जब पृथ्वी के नीचे की सतह पर मौजूद प्लेटें हैं जो, खिसकती रहती है । हमारी धरती मुख्य तौर पर चार परतों से बनी हुई है, इनर कोर, आउटर कोर, मैनटल और क्रस्ट । क्रस्ट और ऊपरी मैन्टल को लिथोस्फेयर कहते हैं । ये लगभग ५० किलोमीटर की मोटी परत, जिन्हें टैकटोनिक प्लेट्स (प्लेट विवतनिक) कहा जाता है । मुख्य रूप से ७ प्लेटे देती है भूकंप को अंजाम सामान्यतया इन प्लेटों में बड़ी प्लेटों की संख्या सात मानी जाती है । इसके अलावा कुछ सामान्य और कुछ छोटे आकार की प्लेट्स भी होती है । ये प्लेट्स मुख्य रूप से अफ्रीकी प्लेट, यूरेशियाई प्लेट, उत्तर अमेरिकी प्लेट, दक्षिण अमेरिकी प्लेट, प्रशांत प्लेट, हिन्द-ऑस्ट्रेलियाई प्लेट, अंटार्कटिक प्लेट्स हैं ।
टैकटोनिक प्लेट्स अपनी जगह से हिलती रहती है लेकिन जब ये बहुत हिल जाती हैं तो भूकंप आ जाता है । ये प्लेट्स क्षैतिज और ऊर्धवाधार, दोनों ही तरह से अपनी जगह से हिल सकती है । इसके बाद वे अपनी जगह तलाशती हैं और ऐसे में एक प्लेट दूसरी के नीचे आ जाती है ।
भूकंप की तीव्रता का अंदाजा उसके केन्द्र (एपीसेंटर) से निकलने वाली ऊर्जा की तरंगों से लगाया जाता है । सैकड़ों किलोमीटर तक फैली इस लहर से कंपन होता है और धरती मेंदरारें तक पड़ जाती हैं । अगर भूकंप की गहराई उथली हो तो इससे बाहर निकलने वाली ऊर्जा सतह के काफी करीब होती है जिससे भयानक तबाही होती है । लेकिन जो भूकंप धरती की गहराई में आते हैं उनसे सतह पर ज्यादा नुकसान नहीं होता । समुद्र में भूकंप आने पर सुनामी का जन्म होता है, जिसकी त्रासदी हम झेल चुके हैं ।
दुनिया के साथ-साथ भारतीय उपमहाद्वीप में भूकंप का खतरा हर जगह अलग-अलग है, भारत को भूकंप के क्षेत्र के आधार पर चार हिस्सों में बांटा गया है जो जोन-२, जोन-३, जोन-४ और जोन-५ हैं जोन -२ सबसे कम खतरे वाला जोन है तथा जोन-५ को सर्वाधिक खतरनाक जोन माना जाता है ।
उत्तर-पूर्व के सभी राज्य, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड तथा हिमाचल प्रदेश के कुछ हिस्से जोन-५ में ही आते है । उत्तराखंड के कम ऊंचाई वाले हिस्सोंसे लेकर उत्तरप्रदेश के ज्यादातर हिस्से तथा दिल्ली जोन-४ में आते हैं । मध्य भारत अपेक्षाकृत कम खतरे वाले हिस्से जोन-३ में आता है, जबकि दक्षिण के ज्यादातर हिस्से सीमित खतरे वाले जोन-२ में आते हैं ।
भूकंप की तीव्रता मापने के लिए रिक्टर स्केल का पैमाना इस्तेमाल किया जाता है । इसे रिक्टर मैग्नीट्यूड टेस्ट स्कूल कहां जाता है । भूकंप को मापने के लिए रिक्टर के अलावा मरकेली स्केल का भी इस्तेमाल किया जाता है । पर इसमें भूकंप को तीव्रता की बजाए ताकत के आधार पर मापते हैं । इसका प्रचलन कम है क्योंकि इसे रिक्टर के मुकाबले कम वैज्ञानिक माना जाता है । भूकंप की तरंगोंको रिक्टर स्केल १ से ९ तक के आधार पर मापता है । रिक्टर स्केल पैमाने को सन् १९३५ में कैलिफॉर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलाजी में कार्यरत वैज्ञानिक चार्लस रिक्टर ने बेनो गुटेनबर्ग के सहयोग से खोजा था ।
इस स्केल के अन्तर्गत प्रति स्केल भूकंप की तीव्रता ४० गुणा बढ़ जाती है और भूकंप के दौरान जो ऊर्जा निकलती है वह प्रति स्केल ३२ गुणा बढ़ जाती है । इसका सीधा मतलब यह हुआ कि ३ रिक्टर स्केल पर भूकंप की जो तीव्रता थी वह ४ स्केल पर ३ रिक्टर स्केल का १० गुणा बढ़ जाएगी । रिक्टर स्केल पर भूकंप की भयावहता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ८ रिक्टर पैमाने पर आया भूकंप ६० लाख टन विस्फोटक से निकलने वाली ऊर्जा उत्पन्न कर सकता है ।
भूकम्प का पूर्वानुमान संभव नहीं हो सका है लेकिन आज दुनियाभर के वैज्ञानिक अपनी-अपनी तरह के भूकम्प के पूर्वानुमान के लिए प्रयासरत है ताकि भूकंप के दौरान जनहानि को कम किया जा सके । भूवैज्ञानिकों अनुसार पूर्व में आए भूकंपों से प्राप्त् हुए प्रमाणों का प्रयोग करके भविष्य की भूकंपीय क्षति का अनुमान लगाने में सहायता ली जा सकती है । ऐसा विकासशील देशों से किया जा सकता है क्योंकि उनके पास भूगर्भीय निगरानी की उतनी बेहतर व्यवस्था नहीं है, शोधार्थियों ने इन नवोन्मेषी प्रक्रियाआें का प्रयोग तंजनियां में म्बेया के पास जमीन का परीक्षण करने के लिए किया जहां पर लगभग २५,००० साल पहले एक बड़ा भूकंप आया था । विशेषज्ञों ने इन क्षेत्रों में मिट्टी को बालू के दलदल की तरह फ्लूइडिसेशन के लक्षण दिखाते हुए और पदार्थो का ऊपर की ओर विस्थापन होते हुए पाया जो कि महाद्वीपीय संरचना से असामान्य दिखाई पड़ता है ।
उधर फ्रांस की शोध संस्था सीईए के लॉरेंट बोलिंगर और उनके साथियों ने नेपाल में किए गए अपने फील्डवर्क के दौरान इस इलाके में आने वाले भूकंपों में एक ऐतिहासिक पैटर्न का पता लगा कर जियोलॉजिकल सोसायटी में अपने शोध के नतीजे प्रस्तुत किए । उन्होनें जब नेपाल में आने वाले भूकंपोंमें इस ऐतिहासिक पैटर्न की पहचान की तो उनके चेहरोंपर चिंता की गहरी लकीरें खिंच गई । बोलिंगर की टीम में शामिल सिंगापुर अर्थ ऑब्जरवेटरी के वैज्ञानिक पॉल टैपोनियर कहते हैं, हम देख सकते थे कि काठमांडू और पोखरा में भूकंप आने की प्रबल आशंका है, जहाँ दोनों शहरों की बीच आखिरी बार शायद वर्ष १३४४ में भूकंप आया था । जब भी बड़े भूकंप आते हैं तो एक भूकंप फॉल्टलाइन से दूसरे भूकंप फॉल्टलाइन की तरफ स्ट्रेन ट्रांसफर होना सामान्य बात है । ऐसा लगता है कि वर्ष १२५५ में यही हुआ था ।
उसके बाद अगले ८९ सालों में पडोसी पश्चिमी फॉल्टलाइंस क्षेत्र में स्ट्रेन बढ़ता गया और जिसकी वजह से वहॉं वर्ष १३४४ में भूकंप आया । इसी तरह इतिहास ने एक बार खुद को दोहराया है । वर्ष १९३४ में आए भूकंप की वजह से स्ट्रेन पश्चिम की तरफ खिसक गया जिसकी वजह से ८१ साल बाद ये भूकंप आया है । इस टीम को डर है कि भविष्य में भी ऐसे बड़े भूकंप आ सकते हैं । बोलिगंर के अनुसार, शुरूआती गणनाआें के अनुसार नेपाल में ७.८ तीव्रता वाला भूकंप शायद इतना ताकतवर नहीं था कि फॉल्टलाइन में पूरे स्ट्रेन को निकाल सके । अभी उसके अंदर और स्ट्रेन बचे होने की संभावना है । हो सकता है कि अगले कुछ दशकों में इस इलाके में पश्चिम या दक्षिण में एक और बड़ा भूकंप आए ।
हाल ही मे शोधकर्ताआें ने एक ऐसी मजेदार योजना के बारे में खुलासा किया है, जो पहली बार सुनने में किसी विज्ञान कथा से कम नहीं लगता । इस योजना के तहत भविष्य में घर के नीचे एक ऐसा प्लेटफार्म बनाया जाएगा जिससे कई चुबंक जुड़े होंगे और भूकंप आने पर घर अपने आप ऊपर उठ जाएगा । इस तकनीक में भूकंपरोधी आधार बनाया जाएगा और जमीन के अंदर होवर इंजन लगाए जाएंगे, जिससे कि घर को ऊपर उठाया जा सके । भूकंप की चेतावनी मिलते ही कम्प्यूटरीकृत होवर इंजन चालू हो जाएगा और यह सबकुछ बहुत ही त्वरित होगा ।
इस योजना पर काम कर रही आर्ट पैक्स कंपनी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी और सहसंस्थापक ग्रेग हेंडरसन के अनुसार, कंपनी से इससे पहले पानी या गैस के इस्तेमाल से घरों को उठाने की तकनीक विकसित की और उसका करा चुकी है और अब वह ऐसी तकनीक विकसित कर रही है जिससे तरल पदार्थ के बजाय चुंबक का इस्तेमाल कर भूकंपरोधी घर बनाए जाएंगे । तीन मंजिला घर को औसत ९० सेकण्ड के भूकंप के दौरान ऊपर उठाया जाएगा, इसमेंपांच कार की बैटरी की ऊर्जा का इस्तेमाल होगा ।
आशा की जानी चाहिए कि आने वाले समय में हम भूकंप से और बेहतर बचाव कर सकेंगे ।
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