सोमवार, 17 अगस्त 2015

पर्यावरण परिक्रमा
पालतू जानवरों को भी नागरिक अधिकार 
कुत्ते, बिल्लियों और अन्य पालतू जानवरों से मनुष्य का सदियों पुराना है । इसी भावनात्मक रिश्ते की गांठ को और मजबूत करने के इरादे से स्पेन के एक शहर ने इन्हें इंसानों की तरह नागरिकता दे दी है । अब इस शहर में पालतू जानवरों को गैर मनुष्य नागरिक की श्रेणी में रखा जाएगा और उन्हें भी वह सारे अधिकार प्राप्त् होगे, जो इंसानों को   है । शहर के नागरिकों ने इस अनूठे कानून के पक्ष में वोट किया । 
स्पेन के वालाडोलिड प्रांत के कैस्टिला वाई लियोन में बसे त्रिग्युरोस के डेल वेल नाम का यह शहर ३७ वर्ग किमी में फैला है और इसकी आबादी महज ३३६ ही है । 
शहर के मेयर पेड्रो पेरेज इस्पिनोजा इस फैसले से बेहद खुश है । उनका कहना है कि उनकी जिम्मेदारी सिर्फ शहर के नागरिकोंके प्रति ही नही है बल्कि पालतू पशुआें के प्रति भी है । उनका कहना है, कुत्ते बिल्लियां पिछले एक हजार साल से भी ज्यादा समय से हमारे साथ है । मेयर को सिर्फ इंसानोंका ही नहीं बल्कि अन्य पालतू पशुआें का भी प्रतिनिधित्व करना चाहिए । 
दरअसल इस कानून के पीछे की मंशा स्पेन के सदियों पुरानी बुलफाइटिंग पर रोक लगाना है । बुलफाइटिंग के लिए स्पेन को पूरी दुनिया में जाना जाता है और अंत में एक बेजुबान बैल को इस लड़ाई में अपनी जान गंवाना पड़ती है । इस कानून के बाद शहर में बुलफाइटिंग पर रोक लगा दी गई है क्योंकि शहर में गैर मनुष्य नागरिक को नुकसान पहुंचाना या मारना गैर कानूनी है । 
हालांकि ऐसा नही है कि ऐसी अनूठी पहल करने वाला यह पहला स्पेनिश शहर है । भारत में २०१३ में कानून बना कर डॉल्फिन को गैर-मनुष्य नागरिक घोषित किया जा चुका है यानी डॉल्फिन को भी सभी नागरिक अधिकार प्राप्त् है और उन्हें मनोरंजन आदि के लिए कैद करके नहीं रखा जा सकता है । 
नलिनी के नाम पर होगा हिमालय की चोटी का नाम
हिमालय की एक चोटी का नाम प्रसिद्ध पर्वतारोही नलिनी सेनगुप्त के नाम पर रखा जाएगा । साठ साल से अधिक उम्र की नलिनी अब तक कई शिखरोंपर चढ़ाई कर चुकी है । 
पर्वतारोहण संस्थान गिरीप्रेमी के पर्वतारोहियोंने हिमालय के हमता दर्रा क्षेत्र में स्थित ५२६० चोटी पर चढ़ाई की, जिसके बाद संस्थान ने इसका नाम नलिनी के नाम पर माउंट नलिनी रखने का फैसला किया है । 
संस्थान ने नलिनी की १९७० के बाद से युवाआें को पर्वतारोहण के लिए प्रेरित करने की कोशिशों के सम्मान में यह कदम उठाया है । गिरीप्रेमी माउंटेनियरिंग इंस्टीट्यूट के समन्वयक और इसके माउंट एवरेसट अभियान के नेता उमेश जिरपे ने कहा कि आमतौर पर पहली टीम जो किसी अनछुई चोटी पर पहुंचती है, उसे उसका नामकरण करने का सम्मान मिलता है । अब तक कई टीमोंने नई खोजें की है और नए पर्वतों पर चढ़ाई की है । उन्होंने अपन प्रिय ईश्वर, स्थानीय देवी देवताआें और गांवों के नाम उपर उनके नाम रखे है । 
जिरपे ने कहा कि हमता दर्रा क्षेत्र में स्थित पीक ५२६० खुद में एक चुनौती थी । हमने इसका नाम नलिनी सेनगुप्त के नाम पर रखा    है । पर्वतारोहण के प्रति उनका समर्पण एवरेस्ट की ऊंचाई से कम नहीं है । वह धन, उपकरणों और प्रोत्साहन की कमी जैसी बाधाआें को भी पार कर चुकी है । 
नलिनी यह खबर सुनकर बहुत खुश है । उन्होने कहा पर्वतारोहण उनके खून में है । नलिनी ने कहा कि वह एक सैन्य परिवार से है, जिसने पीढ़ी पर पीढ़ी देश की सेवा की है । मूल रूप से वह दार्जिलिंग के रहने वाले हैं । उनके मन में किसी साहसिक काम से जुड़ने की इच्छा  थी । इसलिए वह १९७० में उत्तरकाशी के नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ माउंटेनियरिंग में पर्वतारोहण आधार शिविर पाठ्यक्रम से जुड़ गई । 
राजिम मेंमिला ढाई हजार साल पुराना कुंआ
छत्तीसगढ़ के प्रयागराज राजिम मेंढाई हजार साल पहले निर्मित एक विशाल कुंआ मिला । पुरातत्वविदों ने इसका निर्माण मौर्यकाल के समय होना बताया है । इससे पहले भी राजिम के सीताबाड़ी में चल रहे खुदाई में ढाई हजार साल पहले की सभ्यता के प्रमाण मिले  हैं । वहीं महाभारतकालीन कृष्ण-केशी की युद्धरत मुद्रा वाली मूर्ति भी मिली है । 
पुरातत्वविद् अरूण शर्मा के अनुसार, कुंए की दीवार बड़े-बड़े पत्थरों से बनी हैं । निर्माण कला से झलकता है कि वह मौर्यकाल में बना होगा । यह कुंआराजिम संगम के सीध में है । उनका कहना है कि अभी तक १० फीट तक ही खुदाई हुई है । कुंए की गहराई ८० फीट के आसपास होगी । 
पुरातत्वविद् अरूण शर्मा का कहना है कि इस कुंए का निर्माण भगवान के भोग व स्नान के लिए किया गया होगा, क्योंकि बरसात के समय नदी का पानी गंदा हो जाता   है । साथ ही पुरातत्वविद् शर्मा ने बताया कि पत्थरों की जुड़ाई आयुर्वेदिक मसालों से की गई है । गौरतलब है कि इन दिनों छत्तीसगढ़ के प्रयागराज राजिम के सीताबाड़ी में पुरातत्व विभाग द्वारा खुदाई की जा रही है । इससे पहले भी यहां खुदाई में ढाई हजार साल पहले की सभ्यता मिल चुकी है । 
सिंधुकालीन सभ्यता की तर्ज पर ही निर्मित ईटे भी मिल चुकी    है । यहां एक कुंड भी मिला है । कहा जाता है कि इस कुंड में स्नान करने से कोढ़ और हर किस्म का चर्मरोग दूर हो जाता है । वही खुदाई में कृष्ण की केशीवध मुद्रा वाली दो फीट ऊंची, डेढ़ फीट चौड़ी प्रतिमा भी मिली है । प्रतिमा के एक हाथ मेंशंख है, वही अलंकरण और केश विन्यास से पता चलता है कि यह विष्णु अवतार की प्रतिमा है । प्रतिमा में सिर नहीं है, लेकिन कृष्ण की हथेली घोड़े के मुंह में है, जिससे पता चलता है कि यह केशीवध प्रसंग पर आधारित है । यह प्रतिमा २५०० वर्ष पहले की है । मूर्तिकार की कल्पना देखकर सहज की अंदाजा लगाया जा सकता है कि मूर्तिकार को केशीवध की कहानी ज्ञात थी और साथ ढाई हजार साल पहले भी उत्कृष्ट कलाकार हुआ करते थे । 
घरेलू नौकर को भी देना होगा नियुक्ति पत्र
अब आपको डोमेस्टिक कंपनी वर्कर्स और ड्रायवर्स रखने पर काम के नियम और शर्तोकी जानकारी के साथ नियुक्ति पत्र भी देना पड़ सकता है । घरेलू वर्कर के अधिकारों की सुरक्षा और उन्हें बेसिक सोशल सिक्योरिटी देने के लिए श्रम मंत्रालय ऐसा प्रस्ताव तैयार कर रहा है । एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी से मिली जानकारी के मुताबिक सरकार अनऑर्गनाइज्ड सेक्टर को मजबूत करने की इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन (आईएलओ) से प्रतिबद्धता के अनुसार ऐसा कदम उठाने जा रही है । देश की कुल वर्कफोर्स मेंअन-ऑर्गनाइज्ड सेक्टर की हिस्सेदारी ९३ फीसदी तक है । 
घरेलू कामगार को लेकर कोई भरोसेमंद आंकड़ा उपलब्ध नहीं है । विशेषज्ञों का अनुमान है कि देश में लगभग ५० लाख घरेलू कामगार है । इनके योगदान को अक्सर आर्थिक आंकड़ों में जगह नहीं मिलती है । देश में ३५ करोड़ असंगठित कार्यक्षमता में घरेलू कामगार की हिस्सेदारी लगभग १.५ फीसदी है । 
ये कामगार विशेषतौर पर शहरी इलाकों में बच्चें और बुजुर्गो की देखभाल, कुकिंग, ड्रायविंग, क्लीनिंग, ग्रॉसरी शॉपिंग जैसे काम करते है । नियुक्ति पत्र मिलने से इन कामगारों के सामने आने वाली कुछ मुश्किलों को हल किया जा    सकेगा । इन कामगारों के पास कम वेतन मिलने की शिकायत का कोई जरिया नहीं होता ।
इनके पास मूलभूत स्वास्थ्य सेवा, साप्तहिक छुट्टी, प्रसूता अवकाश जैसी सुविधाएं भी नहीं होती । इन्हें कई बार खराब व्यवहार का भी शिकार बनना पड़ता है । इसका विरोध करने पर काम से निकाले जाने का खतरा भी रहता है । 
म.प्र. में बाघ जहर व करंट से मरे
म.प्र. के वन मण्डलों में ६ साल से ६९ बाघों की अकाल मौत हुई । इनमें से १७ बाघ बीमारी से मरे वहीं ३ बाघों को जहर देकर मार दिया गया । सबसे ज्यादा १९ बाघों की मौत क्षेत्रीय लड़ाई में हुई है, जबकि बिजली के कारण ७ और दुर्घटना के कारण ४ बाघ मारे गए । 
भारत के महालेखा नियंत्रक द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ है इसके अनुसार एक बाघ को शिकारियों ने अपना शिकार बनाया। स्वप्रजाति भक्षण के कारण ८ तथा प्राकृतिक रूप से तीन बाघों की मौत हुई है । सात बाघ अन्य कारणों से मारे गए । रिपोर्ट में कहा गया कि बीमारी, शिकार, विष प्रयोग, बिजली से मृत्यु ऐसे कारण थे, जिन्हें रोका जा सकता था । वन विभाग रोकथाम के लिए खास प्रयास नहीं किए जाने से वर्ष २००९ से २०१४ के बीच इन बाघों की मौत हुई । रिपोर्ट के अनुसार ६९ बाघों की मौत पर किए गए अध्ययन से बाद यह पाया गया कि बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व का क्षेत्रफल अपर्याप्त् था । वर्ष २०१० में बाघों की संख्या की गणना के अनुसार म.प्र. में २६२ बाघ थे । 

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