शुक्रवार, 18 नवंबर 2016

खास खबर
क्या प्रदूषण सिर्फ दिल्ली में है ?
(विशेष संवाददाता द्वारा)

    इन दिनों दिल्ली में प्रदूषण खतरनाक स्तर तक जा पहुंचा है । भले ही इसका तात्कालिक कारण पटाखे या पंजाब-हरियाणा में जलाये जा रहे फसलों के अवशेष हों, पर मूल कारण यह है कि हमारा नगर नियोजन प्रकृति के अनुकूल नहीं है। इसीलिए प्रदूषण भी सिर्फ दिल्ली की समस्या नहीं है, बल्कि देश के अनेक शहरों मेंस्थिति कुछ फंसी ही है ।
    विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने अभी हाल ही में वायु प्रदूषण को लेकर एक रिपोर्ट जारी की थी । इसमें २००८ से २०१५ के बीच ९१ देशों के सोलह सौ शहरों में वायु प्रदूषण का ब्यौरा दिया गया था । इस रिपोर्ट में दुनिया के २० सबसे अधिक प्रदूषित शहरों में से १३ शहर भारत के थे । इनमें ग्वालियर को दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर बताते हुए इलाहाबाद, पटना, लुधियाना, कानपुर और रायपुर जैसे शहरों के बाद दिल्ली को भी इसी श्रेणी मेंे शामिल किया गया था । 
     इस रिपोर्ट का वैज्ञानिक पक्ष यह है कि डब्ल्यूएचओ ने वायु प्रदूषण मापने का जो मानक तैयार किया है, उसके अनुसार पीएम २.५ (सांस के साथ जाने वाले पार्टिकल्स) का कान्सट्रक्शन प्रति घनमीटर १० माइकोग्राम से अधिक नहीं होना चाहिए । लेकिन वायु प्रदूषण से जुड़ी यह रिपोर्ट बताती है कि ग्वालियर में पीएम २.५ का जमाव सर्वाधिक १७६ माइकोग्राम प्रति घनमीटर यानी करीब १७ गुना से भी अधिक पाया जाता है । इलाहाबाद में यह १७०, पटना में १४९, रायपुर में १४४ तथा दिल्ली में इसका स्तर १२२ यानी १२ गुना के आसपास पाया जाता है । लेकिन दिल्ली में अभी भी जो धुंए की धुंध छाई हुई है, वह इससे कई गुना अधिक हो सकती है ।
    ध्यान रहे कि वायु प्रदूषण को मापने में पीएम यानी पर्टीकुलेट  मैटर इन साइज (२.५-१० माइक्रो मीटर कान्सट्रक्शन) को बहुत अहमियत ही नही दी जाती है, बल्कि इस प्रदूषण को मापने के लिए यह एक गंभीर पैमाना भी है । इसी पैमाने के आधार पर दिल्ली से पहले ग्वालियर को सबसे अधिक प्रदूषित शहर घोषित किया गया था । अभी कुछ समय पहले भी वायु प्रदूषण से जुड़ी अमेरिका की येल यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट एनवायरमेंटल परफॉरमेंस इंडेक्स (ईपीआई) आई थी । इस रिपोर्ट में वायु प्रदूषण के मामले में भारत की गंभीर स्थिति को बयान करती है ।
    दिल्ली के पर्यावरण को सबसे बड़ा खतरा सार्वजनिक परिवहन की अपर्याप्त्ता से है । इसी लिए वहां निजी वाहनों की संख्या बढ़ती जा रही है और धुंए के कारण वायु प्रदूषण फैलता जा रहा है । बढ़ते वायु प्रदूषण की एक वजह यह भी है कि सड़कों व मेट्रो रेल लाइन के विस्तार के कारण पेड़-पौधे लगातार नष्ट किए गए है । वायु प्रदूषण संबंधी पिछले दो-तीन साल के आंकड़े गवाह है कि दिल्ली में सांस और दमे के दर्जनों मरीज दम तोड़ रहे हैं । उन बच्चें की स्थिति तो और भी खराब है, जिनके नाजुक फेफड़े इस प्रदूषण को झेलने में अक्षम हैं । यह एक कड़वा सच है कि दिल्ली का पर्यावरण कुछ तो नगर के अनियोजित विकास की भेंट चढ़ रहा है तथा बचे-खुचे पर्यावरण को वहां वाहनों की बढ़ती संख्या, फसलों के अवशेष जलाने से उठने वाला धुंआ और आतिशबाजी लील रही है ।
    एक सच्चई यह भी है कि बढ़ते वाहनों के कारण ट्रेफिक जाम की समस्या भी उत्पन्न हो रही है । ट्रेफिक जाम के कारण दिल्ली जैसे शहरों में न केवल लोगों का समय बर्बादा हो रहा है, बल्कि उन्हें आर्थिक नुकसान भी उठाना पड़ रहा है । सेंटर फॉर ट्रांसफार्मिग इंडिया की हालिया रिपोर्ट बताती है कि ट्रेफिक जाम में अकेले दिल्ली जैसे शहर में १० करोड़ रूपए की वार्षिक हानि लोगों को झेलनी पड़ती है । हालांकि, पिछले दिनों दिल्ली सरकार के ऑड-इंविन प्रयोग और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने वाहनों पर शिकंजा कसकर वायु प्रदूषण और ट्रेफिक जाम पर लगाम लगाने की कोशिश की थी, पर ये प्रयोग भी कोई खास कामयाबी नहीं दिला सके ।
    विश्व स्वास्थ्य संगठन की इस रिपोर्ट को केन्द्र में रखकर जब हम नगरों की वास्तविक स्थिति से जुड़े आंकड़ों पर नजर डालते हैं तो पता चलता है कि भारत की कुल आबादी का ३५ फीसदी हिस्सा शहरों में रहता है । यह शहरी वर्ग सकल घरेलू उत्पाद का मात्र छह फीसदी पैदा करता है । वही राजस्व में इसका योगदान ९० फीसदी है । दुनिया के बीस में से सबसे अधिक आबादी वाले पांच शहर भारत में है । अर्थात् आज के महानगरों, की आबादी का ६५ फीसदी हिस्सा दिल्ली, मुम्बई और कोलकाता में निवास करता है । यानी, देश में शहरी आबादी जिस तेजी से बढ़ रही है, उससे २०३० तक इसके ७० फीसदी से अधिक हो जाने का अनुमान है ।
    इस संदर्भ में प्रसिद्ध मैकिंजे कंपनी ने हाल ही में जो रिपोर्ट जारी की है, वह ध्यान देने योग्य है । इस रिपोर्ट के अनुसार आबादी बढ़ने पर नगरीय ढांचे में परिवर्तन को संभालने के लिए भारत को भविष्य में पांच सौ से अधिक शहरों की आवश्यकता पड़ेगी । उस समय निजी वाहनों और उनसे निकलने वाले धुंए की क्या स्थिति होगी, इसका अंदाजा यहां खुद ही लगाया जा सकता है । शहरों की चकाचौंध से प्रभावित होकर चार्ल्स डिक्रिन्स ने अपनी पुस्तक ए टेल ऑफ टू सिटीज में लिखा है कि शहर अब थकने लगे है । वक्त के साथ कदम ताल करते -करते अब उनकी सांसें उखड़ने लगी है ।
    दरअसल, चार्ल्स ने नगरों की यह कहानी यूरोप में औघोगीकरण के बाद टूटते-बिखरते शहरों के विषय मेंदोहराई थी । उन्होनें अपनी पुस्तक में नगरों में उत्पन्न उस युग का दर्द निराशा, छटपटाहट और उम्मीदों का फलसफा बयान किया था । असल में आज दिल्ली व मुम्बई जैसे महानगर अपनी जो कहानी बयां कर रहे हैं, उनका दर्द भी चार्ल्स डिकिन्स के शहरी दर्द से कहीं ने कहीं मेल खाता ही है । यह तो कहने की आवश्यकता ही नहीं है कि आज हम जो शहर यूरोप की तर्ज पर विकसित कर रहे हैं, उनमें भौतिकवाद व उस दुनिया की चमक-दमक का बाहुल्य है । नि:संदेह हम नगरों के भौतिक और बुनियादी ढांचे के बिना अस्तित्व में नहीं रह सकते, पर यूरोप की कार्य-संस्कृति, अनुशासन, प्रतिबद्धता, समय पालन, यातायात अनुशासन, पर्यावरण संरक्षण और कानून व्यवस्था जैसे तंत्र का भी हमें अपनी नगरीय व्यवस्था में समावेश करने की अब महती आवश्यकता है ।
    शहर गगनचुंबी इमारतों, सड़कों, पार्को और चम-चमाती कारों का ही ढांचा मात्र नहीं हैं, बल्कि वे तो विकास के बहुत बड़े केन्द्र भी     है । इसलिए शहरोंके सुनिश्चित विकास के साथ ही हमें वहां एक ऐसी प्रदूषण मुक्त संस्कृति विकसित करनी पड़ेगी, जहां लोगों का निजी वाहनों पर दबाव कम हो और प्रकृति के साथ तारतम्य अधिक हो । विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट व दिल्ली की फिजा में छाए धुंए ने हमें एक मौका प्रदान दिया है कि हम सभी बढ़ते वायु प्रदूषण पर गंभीरता से विचार करें ।

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