शुक्रवार, 18 नवंबर 2016

ज्ञान-विज्ञान
इंग्लैण्ड की अदालत मेंप्रदूषण का मुकदमा
    युनाइटेड किंगडम सरकार को इस बात के लिए अदालत का सामान करना पड़ेगा कि वह वायु प्रदूषण को संभालने में असफल रही हैं । एक पर्यावरण समूह क्लाएन्ट- अर्थ ने वहां के हाईकोर्ट में याचिका दायर की है कि अदालत सरकार को आदेश दे कि वह वायु की गुणवत्ता के संदर्भ में ज्यादा कारगर व बेहतर योजना बनाए ।
       यह याचिका हवा में नाइट्रोजन डाईऑक्साइड नामक गैस की उपस्थिति से संबंधित है । यह गैस हार्ट अटैक और स्ट्रोक्स की संभावना में वृद्धि करती है और सांस संबंधी समस्याआें को जन्म देती है । नाइट्रोजन डाईऑक्साइड मुलत: सड़क यातायात के कारण हवा में घुलती रहती है । 
 

    याचिका में कहा गया है कि यूरोपिय संघ ने १९९९ में हवा में नाइट्रोजन डाईऑक्साइड की सीमा तय की थी और यह कानून २०१० में प्रभावी हो गया था । मगर आज भी यूरोप के अधिकांश हिस्सों में इस सीमा का उल्लघंन जारी है । यूरोप के कईशहरों में नाइट्रोजन डाईऑक्साइड का स्तर विश्व के अन्य शहरों के मुकाबले अधिक है क्योंकि यूरोप में अधिकांश कारे डीजल पर चलती है।  यूके में ४३ से ३७ क्षेत्र इस सीमा का उल्लघंन कर रहे   हैं ।
      पूर्व में यह मामला यूरोपीय अदालत के समक्ष आया था कि जिसने यह फैसला सुनाया था कि राष्ट्रीय अदालतें वायु प्रदूषण को कानूनी सीमा में रखने के लिए सरकारों को कार्यवाही का आदेश दे सकती है । तब यह मुकदमा वापिस यूके के सर्वोच्च् न्यायालय में पहूंचा । सर्वोच्च् न्यायालय में २०१५ में पर्यावरण मंत्रालय को आदेश दिया कि वह लोगों के साथ विचार-विमर्श के बाद जल्दी से जल्दी तत्काल कार्रवाई की ठोस योजना बनाये, लेकिन ठीक से शुरू नहीं हो पाई ।
    क्लाएन्ट अर्थ और अन्य अभियानकर्ताआें का कहना है कि सरकार जानबूझकर ढील दे रही है क्योंकि उसका मानना है कि जैसे-जैसे पुराने डीजल वाहनों का स्थान नए डीजल वाहन लेंगे, समस्या स्वत: हल हो जाएगी । मगर इसमें एक दिक्कत है - विभिन्न अध्ययन बताते है कि नई डीजल कारें पुरानी कारों की अपेक्षा कहीं ज्यादा नाइट्रोजन डाईऑक्साइड छोड़ती है । याचिकाकर्ताआें के मुताबिक एकमात्र हल यह है कि डीजल कारोंको पूरी तरह सड़कों से हटा दिया जाए । इसके अलावा ट्रक और कार में भी जरूरी परिवर्तन करना होंगे ताकि वे कम प्रदूषण फैलाएं ।
    बरहाल, इस मुकदमे से इतना स्पष्ट है कि प्रदूषण नियंत्रण की सीमाएं सिर्फ कागज की शोभा बढ़ाने के लिए नहीं है, उन पर अमल करना भी जरूरी है ।

मोटापे से लड़ाई में शकर टैक्स की सिफारिश
    विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपनी ताजा रिपोर्ट में सिफारिश की है कि शकरयुक्त पेय पदार्थो पर टेक्स लगाया जाना चाहिए ताकि मोटापे और मधुमेह पर काबू पाया जा    सके ।
        विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पिछले सप्तह एक रिपोर्ट जारी की है फिस्कल पॉलीसीज फॉर डाएट एंड प्रीवेंशन ऑफ नॉन-कम्प्यूनिकेशन डीसीसेज (भोजन व असंक्रामक रोगों की रोकथाम हेतु वित्तीय नीतियां) रिपोर्ट में बताया गया है कि वर्ष १९८० से २०१४ की अवधि में विश्व स्तर पर मोटापा दुगना हुआ   है । आज कम से कम ११ प्रतिशत पुरूष और १५ प्रतिशत महिलाएं मोटापे की श्रेणी में आते    हैं । संख्या के मान से देखे तो करीब ५० करोड़ लोग मोटापे के शिकार   है । यहां तक कि वर्ष २०१५ में ५ वर्ष से कम आयु के ४.२ करोड़ बच्च्े भी मोटे की श्रेणी में शुमार थे । इससे जु़़डा हुआ तथ्य यह है कि विश्व स्तर पर ४२.२ करोड़ लोग मधुमेह के मरीज है । 
     मोटापे के मामले में प्रतिशत के हिसाब से अमेरिका सबसे ऊपर है मगर यदि संख्यआें के हिसाब से देखेगे तो चीन में भी मोटे लोगों की संख्या अमेरिका के बराबर ही है ।
    विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुमान के मुताबिक मोटापे में वृद्धि का एक बड़ा कारण शकरयुक्त पेय पदार्थ है जो कई देशों में बहुत लोकप्रिय है । फिलहाल संगठन की सिफारिश तो यह है कि व्यक्ति को अपनी कुल ऊर्जा की जरूरत में से अधिक से अधिक १० प्रतिशत सीधे शकर से प्राप्त् करना चाहिए ।
    इसका मतलब है कि एक अच्छे खाते-पीते व्यक्ति को दिन भर में अधिक से अधिक ५० ग्राम शकर का सेवन करना    चाहिए । यदि इसे ५ प्रतिशत किया जा सके तो और भी बेहतर है । शकर के अन्तर्गत ग्लूकोज, फ्रुक्टोज और सामान्य शकर शामिल है ।
    देखा गया है कि शकरयुक्त पेय पदार्थो का सेवन करने वाले लोग इस सीमा से कहीं ज्यादा शकर गटक जाते हैं । संगठन के मुताबिक यदि इन पेय पदार्थो को महंगा कर दिया जाए तो इनकी खपत कम   होगी । संगठन के असंक्रामक रोग व स्वास्थ्य प्रोत्साहन विभाग के टेमो वकानिवालु का कहना है कि इस बात के प्रमाण है कि ऐसे पदार्थ महंगे हो तो लोग इनका सेवन कम करते हैं । लिहाजा संगठन चाहता है कि सरकारें अपने-अपने देश में इन शकरयुक्त पेय पदार्थो पर अतिरिक्त टेक्स लगाएं और लोगों को मोटापे की महामारी से बचाएं ।

पक्षियों के समान मछलियां भी गाती हैं
    वैसे तो समंदर बहुत ही शांत प्रतीत होते हैं मगर अब शोधकर्ताआें ने मछलियों के वृंद गीत सुने हैं और उनका विश्लेषण करने की कोशिश कर रहे हैं ।
    ऑस्ट्रेलिया के पर्थ विश्वविघालय के रॉबर्ट मेककॉले पिछले तीस वर्षो से इन मछलियों के  गीतों को सुनने की कोशिश करते रहे हैं । हाल ही में उनके दल ने समुद्र में दो जगह ध्वनि रिकॉडिग की व्यवस्था की और परिणामों ने उन्हें आश्चर्यचकित कर दिया । 
     यह व्यवस्था उन्होंने पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया में पार्ट हेडलैण्ड के तट पर और तट से २१.५ किलोमीटर की दूरी पर की और पूरे १८ महीनों तक समंदर के शोर को रिकॉर्ड किया ।
    मैककॉले का कहना है कि अधिकांश ध्वनियां तो इकलौती मछलियां की होती है मगर कभी-कभी जब ये ध्वनियां एक साथ आती है तो वृंद गान का रूप ले लेती हैं । इन रिकॉर्डिग के विश्लेषण के आधार पर उन्होंने सात अलग-अलग किस्म के वृंग गान पहचाने  हैं जो पौ फटने के समय और गोधुली की बेला में सुनाई पड़ते हैं ।
    मैककॉले का कहना है कि ध्वनियां मछलियों के जीवन में कई भूमिकाएं अदा करती हैं । प्रजनन, भोजन और अपने इलाके की रक्षा जैसे कई संदर्भो मेंे इन ध्वनियों की भूमिका देखी गई है ।
    जैसे रात्रिचर मछलियां शिकार के दौरान झुंड में साथ-साथ बने रहने के लिए कुछ ध्वनियों का इस्तेमाल करती है जबकि दिन में सक्रिय मछलियां अपनी आवाज का उपयोग अपने इलाके की रक्षा हेतु करती है ।
    शोधकर्ताआें का कहना है कि ध्वनियों को रिकॉर्ड करके आप मछलियों की हलचल और उनकी इकोसिस्टम की निगरानी कर सकते है ।
    खास तौर से इस तरीक से आपको लंबे समय के आंकड़े   मिलते हैं । इस अध्ययन से एक   बात तो साफ हो जाती है कि   समंदरो में शोरगुल मछलियों के रहन-सहन को प्रभावित कर सकता है ।

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