मंगलवार, 16 मई 2017

स्वास्थ्य
मसालेदार भोजन से उम्र बढ़ती है
डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

    पिछले पांच सालों से हमने इस बारे में काफी कुछ सीख है कि हम कैसे और क्या खाते हैं । इस दौरान कई शोध पत्रों में हमारे भोजन पैटर्न, पसंद और अनुकूलन पर जानकारी दी गई है । यहां हम ऐसे तीन शोध पत्रों को देखेंगे ।
    याद कीजिए हम मनुष्य वानर और चिपैंजी के वंशज हैं । ये प्राइमेट्स शाकाहारी हैं, अत: आदिमानव भी शाकाहारी रहे होंगे । लेकिन अफ्रीका में रहने वाले प्राइमेट के विपरीत, हम आगे बढ़े और पूरी दुनिया में फैल गए । उस दौरान भोजन के रूप में जो उपलब्ध था वही खाते रहे, जैसे वनस्पति, मछली या मांस । समय बीतने के साथ हममें से कुछ लोगों ने सिर्फ वनस्पति को ही भोजन के रूप में चुना जबकि अन्य इतने नखरैल नहीं थे । बहरहाल, दोनों ही स्थितियों में हमने परिस्थितियों के साथ अनुकूलन किया । यह चयन के दबाव का एक उदाहरण है । 
     यह अनुकूलन शरीर के उन जीन्स में भिन्नता में दिखाई देता है जो प्रोटीन्स और एंजाइम्स के कोड़ होते हैं । ये एंजाइम्स हमारे खाए हुए भोजन को कोशिकाआें के काम करने के लिए आवश्यक अणुआें में परिवर्तित करते हैं । कॉर्नेल युनिवर्सिटी के शोधकर्ताआें के एक समूह ने इसी तरह के एक जीन, जिसे ऋअऊड कहते हैं, पर ध्यान केन्द्रित किया है । यह हमारी कोशिका में जरूरी ओमेगा ३ और ६ वसा अम्लों का कोड है । ऋअऊड शाकाहारियों द्वारा खाए जाने वाले वनस्पति तेल और वसा को ओमेगा ६ वसा अम्लों में परिवर्तित करता है । वसा अमल हमारी कोशिका भित्ती के जरूरी घटक हैं और कोशिका के अन्दर बाहर अणुआें के आवागमन के नियमन मेंमदद करते हैं । इसके विपरीत मांसाहारी लोग ये ओमेगा वसा अम्ल पशुआें के मांस से सीधे प्राप्त् कर लेते हैं ।
    थॉमस ब्रेना और कुमार कोठापल्ली के नेतृत्व में वैज्ञानिकों के एक दल ने कुछ शाकाहारियों (महाराष्ट्र, पुणे के शाकाहारी परिवार जो सख्ती से शाकाहार का पालन करते हैं) तथा दूसरी ओर कुछ मांसाहारियों के ऋअऊड जीन्स में भिन्नता का अध्ययन करने का फैसला किया । शाकाहारियों में ऋअऊड जीन्समें एक इंसर्शन (ख) की दो प्रतियां थी । यह इंसर्शन यानी प्रविष्टि जीन अनुक्रम के अंदर २२ अक्षरों से बनी थी ।
    मांसाहारियों में ऋअऊड के इस तत्व की बजाय डीलोट (ऊ यानी विलोप) मिला यानी यह तत्व गायब हो गया था । अर्थात शाकाहारियों के गुणसूत्रों में ख/ख जबकि मांसाहारियों में ऊ/ऊ । वैज्ञानिकों ने यह भी पाया कि दक्षिण एशियाई आबादी में यह ख/ख संस्करण सबसे ज्यादा होता है लेकिन यूरोपियन और पूर्वी एशिया में यह सबसे कम होता है । (संयोग से निएंडरथल के ऋअऊड जीन्स में यह ख/ख संस्करण पाया गया है ।)
    दूसरी रोमांचक खोज वाशिंगटन स्टेट युनिवर्सिटी की अरूणिमा कश्यप और स्टीव वेबर द्वारा की गई है । उन्होंने हरियाणा के प्राचीन शहर फरमाना (प्रसिद्ध हड़प्पा स्थल) में पाए गए मानव दांतों के अवशेषों का विश्लेषण कर दांतों पर उपस्थित अदरक और हल्दी की पहचान की । ऐसा लगता है कि जो चीजें आज हम बनाते और इस्तेमाल करते हैं वैसी हमारे पूर्वज ४००० साल पहले भी करते थे । अदरक और हल्दी के अलावा हड़प्पा भोजन में मसूर व मूंग दाल, चावल, बाजरा और केले भी शामिल थे ।
    यह बहुत ही रोचक है कि कैसे ४००० साल पहले सिंधु घाटी सभ्यता में इस तरह के मसाले इस्तेमाल किए जाते थे । अब हम जानते हैं कि अदरक में उपस्थित अणु सृजन में मददगार होते हैं । साथ ही ऑस्टियो - आर्थराइटिस और प्रतिरक्षा तंत्र को नियमित करते हैं । और हैदराबाद के राष्ट्रीय पोषण संस्थान के शोध कार्य से हम यह भी जानते हैं कि हल्दी कितनी महत्वपूर्ण औषधि है ।
    लेकिन क्या हड़प्पावासी लाल मिर्च या काली मिर्च के बारे में जानते या इस्तेमाल करते थे ? हालांकि इस बारे में विवाद है कि काली मिर्च भारत की ही है या बाहर से लाई गई थी किन्तु लाल मिर्च के बारे में साफ है कि इसे पश्चिम से समुद्री व्यापारियों द्वारा लाया गया   था । डॉ. के.टी. अचया और अन्य ने बताया है कि लाल मिर्च की उत्पत्ति मेक्सिको और मध्य अमेरिका में हुई है और वहां से इसे पुर्तगालियों द्वारा भारत और दक्षिणी एशिया में १६वीं सदी में लाया गया था । इससे पहले भारत में तीखा भोजन अदरक, हल्दी वगैरह चीजों का इस्तेमाल कर बनाया जाता था ।
    एशिया, अफ्रीका और लेटिन अमेरिका में भोजन को तीखा करने के लिए अधिकांशत: लाल मिर्च का इस्तेमाल किया जाता है । और १६वीं सदी में भारतीय भोजन में इसने अपना जोरदार कदम रखा था । इसे इतने सम्मान से देखा जाता था कि मशहूर संत कवि पुरंदरदास (१४८०-१५६४) ने भगवान कृष्ण की प्रशंसा एक लाल मिर्च मणि कहकर की   है । हाल ही में हुए दो अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि यह लाल मिर्च स्वाद ही नहीं बढ़ाती बल्कि स्वस्थ रहने में भी योगदान देती है । पहला अध्ययन चीन का है, जहां पाया गया कि जो लोग अपने भेाजन में लाल मिर्च का इस्तेमाल करते हैं वे सामान्य से ज्यादा उम्र तक जिन्दा रहे बजाय लाल मिर्च का इस्तेमाल नहीं करने वालों के । इसके एक साल बाद ऐसा ही ध्ययन यूएस के चोपान और लिटेनबर्ग द्वारा किया गया था । इसका निष्कर्ष भी यही निकला कि लाल मिर्च खोन का सम्बंध मृत्यु दर में कमी से है ।
    लाल मिर्च में कैप्सेसिन और अन्य जादुई अणु बहुतायत में होते है जो बैक्टीरिया संक्रमण से लड़ने, ऑक्सीडेटिव क्षति रोकने आदि में मददगार होते है । इनके चलते यह अधिक उम्र तक जीने में मदद करती है ।

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