मंगलवार, 16 मई 2017

पत्रिका-५
पर्यावरण डाइजेस्ट : एक सृजनात्मक अभिव्यक्ति
नन्दलाल उपाध्याय

    प्रख्यात कवि श्री रघुवीर सहाय ने यह कितनासही कहा था कि  लूट ने जमीन के/भीतर तक की/मिट्टी को तोड़ दिया है ।  आज प्रकृति के साथ समाज की अंतर्क्रिया इतनी व्यापक और जटिल हो गई   है कि सम्पूर्ण मनुष्य जाति का गहराई से प्रभावित करने का एक नया खतरा उत्पन्न हो गया है ।
    इस खतरे को हम पर्यावरण की संज्ञा दे सकते है । इस समय हम वर्तमान शताब्दी के अन्तिम दशक की ओर यात्रा कर रहे हैं । अब वह समय आ गया है कि हमें एकजुट होकर इस खतरे को सामना करना चाहिए ।
    इस खतरे को उत्तर देने के लिए एक कृषक पुत्र ने असीम साहस दिखाया उसका नाम है -डॉ. खुशालसिंह पुरोहित । आज से दस वर्ष पूर्व एक एक पत्रिका निकाली, जिसे नाम दिया पर्यावरण डाइजेस्ट आज पर्यावरण पर्यावरण डाइजेस्ट अपनी वय के दस वर्ष पूर्ण कर ११ वें वर्ष में प्रवेश कर रही है । 
     यदि गंभीरता पूर्वक विचार किया जाए तो यह तथ्य भी हमारे सामने आ जाएगा कि समाचार पत्र वाचन करते समय कतिपय व्यक्ति अखबार में पर्यावरण शब्द पढ़ते ही उससे दूर भागने की कोशिश करते   हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि हमसे ही अधिकांश व्यक्ति मात्र दिखवा करने को पर्यावरण की नकली चिन्ता अवश्य करते हैं वैसे बहुगुणाजी ने इस नकली चिन्ता पर भी अपनी सहमति की मोहर लगाते हुए कहा था कि भाई चाहे लोग भले ही नकली ढंग से जाने लेकिन उन्हें पर्यावरण को अवश्य जानना चाहिए । इस अर्थ में यदि हम डॉ. खुशालसिंह के इस संवेदनशील कार्य के विषय में चिन्तन करें तो इस प्रकार का काम करने का साहस बहुत कम लोग दिखाते हैं । प्रथम तथ्य तो यह है कि पर्यावरण एक बहुत ही संवेदनशील विषय है, इसके प्रति वही व्यक्ति आकर्षित होगा जिसमें मानवीय संवेदना कुट-कुटकर भरी हुई हो ।
    पर्यावरण पत्रिका के युवा सम्पादक डॉ. खुशालसिंह नगर के उन बिरले नवयुवक में से एक है जिसकी कथनी और करनी में भेद नहीं हैं वे पर्यावरण ही जीते हैं और यदि आप कोई से भी चर्चा करेंगे तो वे फोरन अपनी पर यानि पर्यावरण पर आ जाएगे । ऐसा लगता है कि वे एक प्रकार से पर्यावरण के साथ ही आत्मसात हो गए हैं । उनकी एक और बहुत बड़ी विशेषता है कि वे पर्यावरण और सार्वजनिक जीवन अर्थात दोनों का एक साथ नेतृत्व कर सकते हैं दुध और पानी की     तरह ।
    मैं उनके सम्पर्क में आज से लगभग पन्द्रह वर्ष पूर्व आया था । तब मैंने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की कि इस दुबले-पतले शरीर में एक मेघावी पर्यावरण विद् की आत्मा छुपी हुई है । सन् १९८७ में जब उन्होंने पर्यावरण डाइजेस्ट का प्रकाशन किया तो उनके निकट के मित्रों ने भी यह नहीं सोचा था कि इस घोर प्रतियोगितापूर्ण आर्थिक युग में यह पत्रिका अपने प्रकाशन का एक वर्ष पूर्ण कर लेगी ।
    बढ़ते हुए पर्यावरण अनुभव के प्रकाश में सन् १९९२ में उन्होंने मालवा का पर्यावरण नामक पुस्तक लिखकर की थी । तब उनके द्वारा गठित पर्यावरण परिषद् के एक दल ने समूचे मालवा क्षेत्र का भ्रमण कर यह रिपोर्ट तैयार की थी । इसमें वैज्ञानिकता की बजाय सत्य सापेक्ष तथ्यात्मकता पर विशेष रूप से जोर दिया गया । इस रिपोर्ट में कहा गया था कि आजकल मालवा में पेयजल का संकट है । सभी नदियों की जल धारण क्षमता में भी कमी आती जा रही है । भूजल स्तर वर्ष दर वर्ष नीचे जा रहा है और कस्बों तथा नगरों में प्रदूषण बढ़ता जा रहा है । हरित क्रांति के द्वार पर पहुँचा मालवा एक विचित्र, अनावश्यक और अज्ञानपूर्ण प्रदूषण से संक्रमित हो रहा है । जीवनाशी रसायन अथवा पेस्टीसाइड्स के उपयोग में भारी वृद्धि हुई है ।
    पर्यावरण डाइजेस्ट के माध्यम से सम्पादक द्वारा पर्यावरण संबंधी अनेक प्रश्न उठाए गए है । यहां मैं दसवें वर्ष के अंक ७, १० और १२ की और जनमानस का ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा । अंक १० गाँधी विशेषांक के रूप में निकाला गया था । इसमें यह दर्शाया गया कि आज गाँधी भी वैसे का वैसा नहीं चलेगा, क्योंकि गाँधीजी हमारे लिए एक व्यक्ति नहीं वरन् विचार है। अंक ७ वन महोत्सव विशेषांक के रूप में आया था, इसमें पर्यावरण के प्रति अपनी अंतर्व्यथा बताते हुए पर्यावरण ऋषि सुन्दरलाल बहुगुणा ने कहा था कि हम अवश्य ही तकनीकी क्रांति के युग में रहते हैं और तकनीकी का प्रभाव इतना प्रचंड है कि इसके नीचे मानवी समस्याएँ दफनाई जाती है ।
    अंक १२ एड्स के बढ़ते खतरे और युवा पीढ़ी को समर्पित था इसमें इस बात पर विशेष बल दिया था कि एड्स पीड़ित लोगों को समाज में अपनाने तथा उसके मानवीय अधिकारों के संरक्षण के लिए अनुकूल वातावरण बनाया जाना चाहिए । युवाआें की यौन समस्याआें के निवारण हेतु ऐसे सेवा केन्द्रों का प्रावधान किया जाना चाहिए जहाँ वे सूचना, परामर्श तथा सहायता प्राप्त् कर सकें । सार रूप में अब यह निर्विवाद माना जा रहा है कि लड़के और लड़कियों को यौन शिक्षा देना बहुत जरूरी है ।
    २३ जनवरी १९८९ का वह दिन मुझे आज भी याद है जब मैंने बसंत के उपासक सुन्दरलाल बहुगुणा से पर्यावरण डाइजेस्ट के लिए एक आत्मीय साक्षात्कार लिया था तब उन्होंने कहा था व्यवस्था स्थापित गुब्बारे की तरह है इसे समाप्त् करने के लिए एक नुकीली सुई बनाना है जिससे एक ऐसे समाज की स्थापना हो सके जिससे सुख, शान्ति और संतोष हो । यह एक कठिन कार्य है, लेकिन इसके लिए पूर्ण निष्ठा और सम्पूर्ण चाहिए ।
    पर्यावरण डाइजेस्ट ने अपनी सृजनात्मक यात्रा के दस वर्ष पूरे कर लिए है, उसकी यात्रा निरन्तर चलती रहेगी ।

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