साहित्य जगत
लोक साहित्य में पर्यावरण चेतना
गोवर्धन यादव
लोक साहित्य पढ़ने-लिखने में एक शब्द है, पर वह वस्तुत: यह दो गहरे भावों का गठबंधन है, लोक और साहित्य एक दूसरे के संपूरक, एक दूसरे में संश्लिष्ट, जहां लोक होगा, वहां उसकी संस्कृति और साहित्य होगा, विश्व में कोई भी ऐसा स्थान नहीं है, जहां लोक हो और वहां उसकी संस्कृति न हो ।
मानव मन के उद्गगारों व उसकी सूक्ष्मतम अनुभूतियों का सजीव चित्रण यदि कहीं मिलता है तो वह लोक साहित्य में ही मिलता है । यदि हम लोक साहित्य को जीवन का दर्पण कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी । लोक साहित्य के इस महत्व को समझा जा सकता है कि लोक कथा को लोक साहित्य का जनक माना जाता है और लोकगीत को काव्य की जननी, लोक साहित्यमें कल्पना प्रधान साहित्य की अपेक्षा लोकजीवन का यथार्थ सहज ही देखने में मिलता है ।
लोक साहित्य में पर्यावरण चेतना
गोवर्धन यादव
लोक साहित्य पढ़ने-लिखने में एक शब्द है, पर वह वस्तुत: यह दो गहरे भावों का गठबंधन है, लोक और साहित्य एक दूसरे के संपूरक, एक दूसरे में संश्लिष्ट, जहां लोक होगा, वहां उसकी संस्कृति और साहित्य होगा, विश्व में कोई भी ऐसा स्थान नहीं है, जहां लोक हो और वहां उसकी संस्कृति न हो ।
मानव मन के उद्गगारों व उसकी सूक्ष्मतम अनुभूतियों का सजीव चित्रण यदि कहीं मिलता है तो वह लोक साहित्य में ही मिलता है । यदि हम लोक साहित्य को जीवन का दर्पण कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी । लोक साहित्य के इस महत्व को समझा जा सकता है कि लोक कथा को लोक साहित्य का जनक माना जाता है और लोकगीत को काव्य की जननी, लोक साहित्यमें कल्पना प्रधान साहित्य की अपेक्षा लोकजीवन का यथार्थ सहज ही देखने में मिलता है ।
लोक साहित्य हम धरतीवासियों का साहित्य है क्योंकि हम सदैव ही अपनी मिट्टी, जलवायु तथा सांस्कृतिक संवेदना से जुड़े रहते हैं । अत: हमें जो भी उपलब्ध होता है वह गहन अनुभूतियों तथा अभावों के कटु सत्यों पर आधारित होता है, जिसकी छाया में वह पलता और विकसित होता है इसीलिए लोक साहित्य हमारी सभ्यता का संरक्षक भी है ।
साहित्य का केन्द्र लोकमंगल है, इसका पूरा ताना-बाना लोकहित के आधार पर खड़ा है । किसी भी देश अथवा युग का साहित्यकार इस तथ्य की उपेक्षा नहीं कर सकता, जहाँ अनिष्ठ की कामना है, वहॉ साहित्य नहीं हो सकता, वह तो प्रकृृति की तरह ही सर्वजनहिताय की भावना से आगे बढ़ता है ।
संत शिरोमणि तुलसीदास की ये पंक्तियां कीरति भनिति भूरिमल सोई सुरसरि के सम सब कह हित होई अमरत्व लिए हुए है, गंगा की तरह ही साहित्य भी सभी का हित सोचता है । वह गंगा की तरह पवित्र और प्रवाहमय है, वह धरती को जीवन देता है.... श्रृंगार देता है और सार्थकता भी, प्रकृति साहित्य की आत्मा है । वह अपनी मिट्टी से, अपनी जमीन से जुड़ा रहना भी साहित्य की अनिवार्यता समझता है । मिट्टी में सारे रचनाकर्म का अमृतवास रहता है । रचनाकर उसे नए-नए रूप देकर रूपायित करता है । गुरू-शिष्य परम्परा हमें प्रकृति के उपादानों के नजदीक ले आती है ।
जहॉ कबीर का कथन प्रासंगिक है - गुरू कुम्हार सिख कुंभ गढ़ी-गढ़ी काठै खोट-अन्तर हाथ सहार दे बाहर वाहे खोट संस्कारों से दीक्षित व्यक्ति सभी प्रकार के दोषों-खोटों से मुक्त रहता है, इसमें लोकहित की भावना समाहित है । मलूकदास भी इन्सानियत की परिभाषा अपने शब्दों में यूं देते हैं - मलुका सोई पीर है, जो जाने पर पीर जो पर पीर न जानई, सो काफिर बेपीर । दूसरों की पीड़ा समझने वाला इन्सान पशु-पक्षी का भी अहित नहीं सोच सकता, उसके वनस्पति के प्रति मैत्री का वह विस्तार साहित्य ही तो है ।
जिज्ञासु व्यक्ति कुछ न कुछ सोचने की चेष्टा करता है । इस प्रकृति के सहचर्य से उसने बहुत कुछ सीखा है । उस काल के वेदज ब्राहम्ण चौदह विद्याआें का अध्ययन करना अपना अभीष्ठ मानते थे । सोलह कलाआें और चौदह विद्याआें के अलावा वे संगीत, सामुद्रिक, ज्योतिष, वेदाध्ययन काव्य, भाषा शास्त्र, पशु भाषा, ज्ञान, तैरना, धातु विज्ञान, रसायन, रत्न परख, चातुर्य एवं अंग विज्ञान आदि अनेक विषयों में गहरी रूचियाँ रखते थे । इस बात के साक्षी है पुरातन भारतीय - ग्रंथ जो समय की सीमा को पार कर चुके है ।
मनुष्य के संचित ज्ञान और अनुभव के पहले पुस्तकाकार स्वरूप की याद आते ही दृष्टि स्वमेव ही वेदों की ओर चली जाती है । वेद वे वाड मय जो ज्ञान कोष के रूप में सदियों से हमारा साथ देते आए है । ऋगवेद को सृष्टि विज्ञान की प्रथम पुस्तक होने का गौरव प्राप्त् है । जल, अग्नि, वायु, मृदा, चारों वेदों की रचना के पीछे ये ही तत्व प्रमुख रूप से काम करते है । ऋगवेद में अग्नि के रूपान्तरण कार्य और गुणों की व्याख्या है..., तो यजुर्वेद में विधि रूपों और गुण धर्मो की, सामवेद का प्रधान तत्व जल है, तो अथर्वेवेद पृथ्वी (मृदा) पर केन्द्रित है । पांचत तत्व आकाश तत्व है । सृष्टि की रचना करने वाले उस महान कुंभकार ने इन्हीं पांचों तत्वों के कच्च्े माल को मिलाकर एक ऐसी ही रचना की जो बेजोड़ है ।
हमारी धरती के अस्तित्व का जो आधार है जिसे भारतीय मेधा ने भूमि माँ कहकर अभिनंदन के स्वर अर्पित किए माताभुमि: पुत्रोव्है पृथिव्या, अर्चन अभिनंदन के इन स्वरों में बहुत ही सार्थक भावभीना स्वर है । यह वैदिक पृथ्वी समूह मां पृथ्वी की स्तुति का पावन सूत्र, प्रकृति प्रेम की अद्भूत मिसाल, पर्यावरण विमर्श का महत्वपूर्ण घोषणा-पत्र, पर्यावरण प्रतिष्ठा का सारस्वत अनुष्ठान और उसके संरक्षण के लिए समर्पित शिव संकल्प, आसुरी वृत्तियों के अस्वीकार तथा दैवी वृत्तियों के स्वीकार का घोषणा पत्र है । यह पृथ्वी की समस्त निधियों के विवेक सम्मत प्रयोग का आग्रही है । यह प्रेम के लिए नहीं, श्रेय के लिए समर्पित शोध का पक्षधर है । यह सामाजिकता, मंगलमयता में लीन हो जाने का आव्हान है ।
आज के पर्यावरण संकट की समस्त युक्तियों का एक सूत्रिय समाधान है । बीस कांडों, इकतीस सूत्रों और पंाच हजार नौ सौ इकहत्तर मंत्रों का महाकोष है । व्यक्ति सुखी रहे, दीर्घायु प्रािप्त् करे । सदनीति पर चले, पशु-पक्षियों, वनस्पतियों एवं जीव जगत के साथ साहचर्य रहे, इन्हीं कामनाआें से ओत-प्रोत यह अद्भूत ग्रंथ है ।
लोक चेतना तो संस्कृति और साहित्य की परिचालक शक्ति मानी जाती है किन्तु वर्तमान मशीनी और कम्प्युटरी समाज से लोक चेतना शून्य होती जा रही है । आज जरूरी है कि साहित्य का मूल्यांकन लोकजीवन, लोक संस्कृति की दृष्टि से किया जाना चाहिए । जो लोक साहित्य का मूल्यांकन लोकजीवन, लोक संस्कृति की दृष्टि से किया जाना चाहिए । जो लोक साहित्य लोकजीवन से जुडा होगा वही जीवन्त होगा । माना भूमि: प्रयोग है पृथीव्या: अर्थवेवेद कि ऋचा का महाप्राण है । लोकजीवन इस ऋचा के आशय का प्रतिनिधित्व युगों से करता आ रहा है । यही लोक साहित्य की आधार शीला है ।
लोक साहित्य परम्परा पर आधारित होता है । अत: अपन प्रकृति में विकासशील है । इसमें नित्यप्रति परिवर्तन की संभावना बनी रहती है, इसका सृजन युगपीड़ा एवं सामाजिक दबाव को भी निरन्तर महसूस करता रहता है । सांस्कृतिक परिस्थितियों का निर्वहन ही सभ्यता कहलाती है । कुछ विद्वान सभ्यता और संस्कृति को एक ही मानते है और उसके विचार में सभ्यता और संस्कृति का विकास समान रूप से होता है । काफी गहराई से चिंतन करे तो सभ्यता का ज्यों-ज्यों विकास होता है, त्यों-त्यों संस्कृति का ह्ास होता है । खान-पान, पहनावा सब बदलता जाता है और उसका प्रत्येक पर प्रभाव पड़ता है ।
लोक साहित्य में लोककथा लोकनाटक तथा लोकगीतों के रखा जा सकता है जिसमें जनपदीय भाषाआें का रसपूर्ण कोमल भावनाआें से युक्त साहित्य होता है । भारतीय लोक साहित्य के मर्मज आर.सी. टेम्पुल के मतानुसार लोक साहित्य कि साहित्यिक दृष्टिकोण से विवेचना करना उसी सीमा तक करना उचित होगा, जिस सीमा तक उसमें निहित सुन्दरता और आकर्षण को किसी प्रकार की हानि न पहुॅचे । यदि लोक साहित्य की वैज्ञानिक विवेचना की जाती है तो मूल विषय निरस और बेजान हो जाएगा । लोक के हर पहलू मे संस्कृति के दिव्य दर्शन होते है । जरूरत है तीक्ष्ण दृष्टि और सरचल सोच की । लोक साहित्य के उद्रट विद्वान देवेन्द्र सत्यार्थी ने साहित्य के अटूट भण्डार को स्पष्ट तौर पर स्वीकार करते हुए कहा था - मैं तो जिस जनपद में गया, झोलियां भरकर मोती लाया ।
परलोक की धारणाएँ भी इन्हीं से जुड़ी है । सभी कर्मकाण्ड, पूजा-अनुष्ठान तथा उन्नत सांस्कृतिक समाज में मनुष्य के आचरण का निर्धारण इसी लोक में होता है । लोक हमारी सामाजिकता प्रभावित किया उतना शायद किसी अन्य पुस्तक ने नहीं किया । वैष्णवी तंत्र ने गीता की जो व्याख्या की है, उसमें प्रतीक के रूप में पशु जीवन का महत्व प्रतिपादित होता है ।
सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपाल नन्दन: ।
पार्थो वत्स सुधीभॉक्ता दुग्धं गीतामृतं महत ।
अर्थात् उपनिषद गाय है, कृष्ण उनको दुहने वाले है, अर्जुन बछड़ा है और गीता दुध है, गीता में प्रकृति को ईश्वर की माया के रूप मेंदर्शाया है । गीता के कुछ श्लोको को (अर्थ) रेखांकित किया जा सकता है । जो तेज सूर्य और चन्द्रमा में है, उसे मेरा ही तेज मानों, मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके सभी भूत-प्राणियों के धारण करता हॅू । चन्द्रमा बनकर औषधियों का पोषण करता हॅू । जठ-राग्नि बनकर प्राणियों की देह में प्रविष्ठ हॅू । प्राणवायु अपानवायु से संयुक्त होकर चारों प्रकार से भोजन किए हुए प्राणियों के अन्न को पचाता हॅू । सम्पूर्ण भूतों (प्राणियों) के ह्दय क्षमता में निवास करता हॅू ।
श्रीकृष्ण ने अपनी प्रकृति को अष्टकोणी बताया है । इसमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश के साथ-साथ मन-बुद्धि एवं अहंकार की गणणा की गई है । अपनी बाल लीलाआें के माध्यम से उन्होंने जो दिव्य संदेश दिया उसका व्यापक प्रभाव लोकजीवन तथा लोक परम्पराआें पर पड़ा, उस दिव्य संदेश के पीछे तात्पर्य यह था कि वनस्पति, नदियां, पहाड़, पशु पक्षी गौवे, जलचर और मनुष्य सभी इस प्रकृति के अंगीभूत स्वरूप है और सबका रक्षण, पोषण और विकास जरूरी है ।
पर्व ओर त्योहारों के इतिहास में हमारे देश की संस्कृति और सभ्यता का इतिहास सृष्टि वस्तुत: सारे त्योहार ऐसे हैं जो प्रकृति की गोद में और प्रकृति के संरक्षण में मनाए जाते हैं, जैसे गोवर्धन पूजा, आवंला पूजन, गंगा सप्त्मी, माह कार्तिक में तुलसी पूजन आदि । ये सभी पर्व हमें अपनी प्राकृतिकता से सह संबंधों की परम्पराआें की याद दिलाते है । ऐसे पर्व जो प्रकृति के विभिन्न घटकों को पूजने के दिन के रूप में मनाए जाते है, उसी पर्व के अवसर पर सम्पन्न क्रिया - कलाप और समारोह प्रकृति प्रेम एवं प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता का नया वातावरण हमें प्रदान कर पर्यावरण को शुद्ध रखने के लिए उत्प्रेरित करते है ।
प्रकृति घटकों के सहसंबंध हमें नई उमंग और प्रकृति प्रेम के नए उत्साह का अनुभव कराता है । भौतिक, सांस्कृतिक एवं लोभ मानसपटल पर नहीं होगे तो स्वार्थमय भौतिक संस्कृति जैसे प्रदूषण प्रकट नहीं होंगे और पर्यावरण शुद्ध बना रहेगा ।
विभिन्न तथ्यों एवं लोक जीवन की शैली के आधार पर निष्कर्ष में कह सकते है कि वृक्ष हमारी संस्कृतिके विभिन्न अंग रहे है । भारत कृषि प्रधान देश है । अत: मृदा का संरक्षण आवश्यक है । प्राकृतिक अवस्था में मैदानी एवं पहाड़ी स्थानों पर लगे वृक्षों की जड़े जमीन को पकड़े रहती है जिससे पानी का प्रवाह एवं हवा संतुलित रहती है । वृक्षों के अभाव में हवा एवं पानी पर नियंत्रण नहीं रहने से भूमिके रेगिस्थान में परिवर्तन होने की प्रबल संभावनाएं बनती जा रही है । वनों की कटाई न करने के प्रति जन चेतना फैलाने के उद्देश्य से आंदोलनों को शुरू किया जाना चाहिए ।
मनुष्य की प्रदूषित मानसिकता प्रकृति को किसी न किसी रूप मे प्रदूषित करती है । अस्तु प्रकृति के प्रदूषण को रोकने के लिए संस्कृति की आत्मा, जिसमें प्रकृति की गूंज है, से अनुप्राणित होकर शिक्षा प्रदान करनी चाहिए, अत: शिक्षण संस्थाआें में अध्ययनरत बालक-बालिकाआें को परम्परागत भारतीय शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए ।
पूर्व की पीढ़ियों ने अपने समय में प्रकृति का पूर्ण विकास कर उनको भौतिक संपत्ति के रूप में बदलकर अगली पीढ़ियों को प्रदान किया जाना है और यह माना है कि आने वाली पीढी उन पूर्वजों का उपकार मानेगी, लेकिन वर्तमान पीढ़ी की तो भावी मानव के लिए जटिल समस्याएं और प्रकृति के विध्वंस का आधार छोड़ कर जाने की संभावनाएं बन रही है । आज रेगिस्थान बढ़ रहे है । जीव-जन्तुआें की बहुत सी प्रजातियां लुप्त् हो रही है । प्रकृति के वर्तमान दोहन के भविष्य की आवश्यकताआें को दृष्टि में रखकर ही अपनी योजनाआें का निर्माण करना चाहिए ।
साहित्य का केन्द्र लोकमंगल है, इसका पूरा ताना-बाना लोकहित के आधार पर खड़ा है । किसी भी देश अथवा युग का साहित्यकार इस तथ्य की उपेक्षा नहीं कर सकता, जहाँ अनिष्ठ की कामना है, वहॉ साहित्य नहीं हो सकता, वह तो प्रकृृति की तरह ही सर्वजनहिताय की भावना से आगे बढ़ता है ।
संत शिरोमणि तुलसीदास की ये पंक्तियां कीरति भनिति भूरिमल सोई सुरसरि के सम सब कह हित होई अमरत्व लिए हुए है, गंगा की तरह ही साहित्य भी सभी का हित सोचता है । वह गंगा की तरह पवित्र और प्रवाहमय है, वह धरती को जीवन देता है.... श्रृंगार देता है और सार्थकता भी, प्रकृति साहित्य की आत्मा है । वह अपनी मिट्टी से, अपनी जमीन से जुड़ा रहना भी साहित्य की अनिवार्यता समझता है । मिट्टी में सारे रचनाकर्म का अमृतवास रहता है । रचनाकर उसे नए-नए रूप देकर रूपायित करता है । गुरू-शिष्य परम्परा हमें प्रकृति के उपादानों के नजदीक ले आती है ।
जहॉ कबीर का कथन प्रासंगिक है - गुरू कुम्हार सिख कुंभ गढ़ी-गढ़ी काठै खोट-अन्तर हाथ सहार दे बाहर वाहे खोट संस्कारों से दीक्षित व्यक्ति सभी प्रकार के दोषों-खोटों से मुक्त रहता है, इसमें लोकहित की भावना समाहित है । मलूकदास भी इन्सानियत की परिभाषा अपने शब्दों में यूं देते हैं - मलुका सोई पीर है, जो जाने पर पीर जो पर पीर न जानई, सो काफिर बेपीर । दूसरों की पीड़ा समझने वाला इन्सान पशु-पक्षी का भी अहित नहीं सोच सकता, उसके वनस्पति के प्रति मैत्री का वह विस्तार साहित्य ही तो है ।
जिज्ञासु व्यक्ति कुछ न कुछ सोचने की चेष्टा करता है । इस प्रकृति के सहचर्य से उसने बहुत कुछ सीखा है । उस काल के वेदज ब्राहम्ण चौदह विद्याआें का अध्ययन करना अपना अभीष्ठ मानते थे । सोलह कलाआें और चौदह विद्याआें के अलावा वे संगीत, सामुद्रिक, ज्योतिष, वेदाध्ययन काव्य, भाषा शास्त्र, पशु भाषा, ज्ञान, तैरना, धातु विज्ञान, रसायन, रत्न परख, चातुर्य एवं अंग विज्ञान आदि अनेक विषयों में गहरी रूचियाँ रखते थे । इस बात के साक्षी है पुरातन भारतीय - ग्रंथ जो समय की सीमा को पार कर चुके है ।
मनुष्य के संचित ज्ञान और अनुभव के पहले पुस्तकाकार स्वरूप की याद आते ही दृष्टि स्वमेव ही वेदों की ओर चली जाती है । वेद वे वाड मय जो ज्ञान कोष के रूप में सदियों से हमारा साथ देते आए है । ऋगवेद को सृष्टि विज्ञान की प्रथम पुस्तक होने का गौरव प्राप्त् है । जल, अग्नि, वायु, मृदा, चारों वेदों की रचना के पीछे ये ही तत्व प्रमुख रूप से काम करते है । ऋगवेद में अग्नि के रूपान्तरण कार्य और गुणों की व्याख्या है..., तो यजुर्वेद में विधि रूपों और गुण धर्मो की, सामवेद का प्रधान तत्व जल है, तो अथर्वेवेद पृथ्वी (मृदा) पर केन्द्रित है । पांचत तत्व आकाश तत्व है । सृष्टि की रचना करने वाले उस महान कुंभकार ने इन्हीं पांचों तत्वों के कच्च्े माल को मिलाकर एक ऐसी ही रचना की जो बेजोड़ है ।
हमारी धरती के अस्तित्व का जो आधार है जिसे भारतीय मेधा ने भूमि माँ कहकर अभिनंदन के स्वर अर्पित किए माताभुमि: पुत्रोव्है पृथिव्या, अर्चन अभिनंदन के इन स्वरों में बहुत ही सार्थक भावभीना स्वर है । यह वैदिक पृथ्वी समूह मां पृथ्वी की स्तुति का पावन सूत्र, प्रकृति प्रेम की अद्भूत मिसाल, पर्यावरण विमर्श का महत्वपूर्ण घोषणा-पत्र, पर्यावरण प्रतिष्ठा का सारस्वत अनुष्ठान और उसके संरक्षण के लिए समर्पित शिव संकल्प, आसुरी वृत्तियों के अस्वीकार तथा दैवी वृत्तियों के स्वीकार का घोषणा पत्र है । यह पृथ्वी की समस्त निधियों के विवेक सम्मत प्रयोग का आग्रही है । यह प्रेम के लिए नहीं, श्रेय के लिए समर्पित शोध का पक्षधर है । यह सामाजिकता, मंगलमयता में लीन हो जाने का आव्हान है ।
आज के पर्यावरण संकट की समस्त युक्तियों का एक सूत्रिय समाधान है । बीस कांडों, इकतीस सूत्रों और पंाच हजार नौ सौ इकहत्तर मंत्रों का महाकोष है । व्यक्ति सुखी रहे, दीर्घायु प्रािप्त् करे । सदनीति पर चले, पशु-पक्षियों, वनस्पतियों एवं जीव जगत के साथ साहचर्य रहे, इन्हीं कामनाआें से ओत-प्रोत यह अद्भूत ग्रंथ है ।
लोक चेतना तो संस्कृति और साहित्य की परिचालक शक्ति मानी जाती है किन्तु वर्तमान मशीनी और कम्प्युटरी समाज से लोक चेतना शून्य होती जा रही है । आज जरूरी है कि साहित्य का मूल्यांकन लोकजीवन, लोक संस्कृति की दृष्टि से किया जाना चाहिए । जो लोक साहित्य का मूल्यांकन लोकजीवन, लोक संस्कृति की दृष्टि से किया जाना चाहिए । जो लोक साहित्य लोकजीवन से जुडा होगा वही जीवन्त होगा । माना भूमि: प्रयोग है पृथीव्या: अर्थवेवेद कि ऋचा का महाप्राण है । लोकजीवन इस ऋचा के आशय का प्रतिनिधित्व युगों से करता आ रहा है । यही लोक साहित्य की आधार शीला है ।
लोक साहित्य परम्परा पर आधारित होता है । अत: अपन प्रकृति में विकासशील है । इसमें नित्यप्रति परिवर्तन की संभावना बनी रहती है, इसका सृजन युगपीड़ा एवं सामाजिक दबाव को भी निरन्तर महसूस करता रहता है । सांस्कृतिक परिस्थितियों का निर्वहन ही सभ्यता कहलाती है । कुछ विद्वान सभ्यता और संस्कृति को एक ही मानते है और उसके विचार में सभ्यता और संस्कृति का विकास समान रूप से होता है । काफी गहराई से चिंतन करे तो सभ्यता का ज्यों-ज्यों विकास होता है, त्यों-त्यों संस्कृति का ह्ास होता है । खान-पान, पहनावा सब बदलता जाता है और उसका प्रत्येक पर प्रभाव पड़ता है ।
लोक साहित्य में लोककथा लोकनाटक तथा लोकगीतों के रखा जा सकता है जिसमें जनपदीय भाषाआें का रसपूर्ण कोमल भावनाआें से युक्त साहित्य होता है । भारतीय लोक साहित्य के मर्मज आर.सी. टेम्पुल के मतानुसार लोक साहित्य कि साहित्यिक दृष्टिकोण से विवेचना करना उसी सीमा तक करना उचित होगा, जिस सीमा तक उसमें निहित सुन्दरता और आकर्षण को किसी प्रकार की हानि न पहुॅचे । यदि लोक साहित्य की वैज्ञानिक विवेचना की जाती है तो मूल विषय निरस और बेजान हो जाएगा । लोक के हर पहलू मे संस्कृति के दिव्य दर्शन होते है । जरूरत है तीक्ष्ण दृष्टि और सरचल सोच की । लोक साहित्य के उद्रट विद्वान देवेन्द्र सत्यार्थी ने साहित्य के अटूट भण्डार को स्पष्ट तौर पर स्वीकार करते हुए कहा था - मैं तो जिस जनपद में गया, झोलियां भरकर मोती लाया ।
परलोक की धारणाएँ भी इन्हीं से जुड़ी है । सभी कर्मकाण्ड, पूजा-अनुष्ठान तथा उन्नत सांस्कृतिक समाज में मनुष्य के आचरण का निर्धारण इसी लोक में होता है । लोक हमारी सामाजिकता प्रभावित किया उतना शायद किसी अन्य पुस्तक ने नहीं किया । वैष्णवी तंत्र ने गीता की जो व्याख्या की है, उसमें प्रतीक के रूप में पशु जीवन का महत्व प्रतिपादित होता है ।
सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपाल नन्दन: ।
पार्थो वत्स सुधीभॉक्ता दुग्धं गीतामृतं महत ।
अर्थात् उपनिषद गाय है, कृष्ण उनको दुहने वाले है, अर्जुन बछड़ा है और गीता दुध है, गीता में प्रकृति को ईश्वर की माया के रूप मेंदर्शाया है । गीता के कुछ श्लोको को (अर्थ) रेखांकित किया जा सकता है । जो तेज सूर्य और चन्द्रमा में है, उसे मेरा ही तेज मानों, मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके सभी भूत-प्राणियों के धारण करता हॅू । चन्द्रमा बनकर औषधियों का पोषण करता हॅू । जठ-राग्नि बनकर प्राणियों की देह में प्रविष्ठ हॅू । प्राणवायु अपानवायु से संयुक्त होकर चारों प्रकार से भोजन किए हुए प्राणियों के अन्न को पचाता हॅू । सम्पूर्ण भूतों (प्राणियों) के ह्दय क्षमता में निवास करता हॅू ।
श्रीकृष्ण ने अपनी प्रकृति को अष्टकोणी बताया है । इसमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश के साथ-साथ मन-बुद्धि एवं अहंकार की गणणा की गई है । अपनी बाल लीलाआें के माध्यम से उन्होंने जो दिव्य संदेश दिया उसका व्यापक प्रभाव लोकजीवन तथा लोक परम्पराआें पर पड़ा, उस दिव्य संदेश के पीछे तात्पर्य यह था कि वनस्पति, नदियां, पहाड़, पशु पक्षी गौवे, जलचर और मनुष्य सभी इस प्रकृति के अंगीभूत स्वरूप है और सबका रक्षण, पोषण और विकास जरूरी है ।
पर्व ओर त्योहारों के इतिहास में हमारे देश की संस्कृति और सभ्यता का इतिहास सृष्टि वस्तुत: सारे त्योहार ऐसे हैं जो प्रकृति की गोद में और प्रकृति के संरक्षण में मनाए जाते हैं, जैसे गोवर्धन पूजा, आवंला पूजन, गंगा सप्त्मी, माह कार्तिक में तुलसी पूजन आदि । ये सभी पर्व हमें अपनी प्राकृतिकता से सह संबंधों की परम्पराआें की याद दिलाते है । ऐसे पर्व जो प्रकृति के विभिन्न घटकों को पूजने के दिन के रूप में मनाए जाते है, उसी पर्व के अवसर पर सम्पन्न क्रिया - कलाप और समारोह प्रकृति प्रेम एवं प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता का नया वातावरण हमें प्रदान कर पर्यावरण को शुद्ध रखने के लिए उत्प्रेरित करते है ।
प्रकृति घटकों के सहसंबंध हमें नई उमंग और प्रकृति प्रेम के नए उत्साह का अनुभव कराता है । भौतिक, सांस्कृतिक एवं लोभ मानसपटल पर नहीं होगे तो स्वार्थमय भौतिक संस्कृति जैसे प्रदूषण प्रकट नहीं होंगे और पर्यावरण शुद्ध बना रहेगा ।
विभिन्न तथ्यों एवं लोक जीवन की शैली के आधार पर निष्कर्ष में कह सकते है कि वृक्ष हमारी संस्कृतिके विभिन्न अंग रहे है । भारत कृषि प्रधान देश है । अत: मृदा का संरक्षण आवश्यक है । प्राकृतिक अवस्था में मैदानी एवं पहाड़ी स्थानों पर लगे वृक्षों की जड़े जमीन को पकड़े रहती है जिससे पानी का प्रवाह एवं हवा संतुलित रहती है । वृक्षों के अभाव में हवा एवं पानी पर नियंत्रण नहीं रहने से भूमिके रेगिस्थान में परिवर्तन होने की प्रबल संभावनाएं बनती जा रही है । वनों की कटाई न करने के प्रति जन चेतना फैलाने के उद्देश्य से आंदोलनों को शुरू किया जाना चाहिए ।
मनुष्य की प्रदूषित मानसिकता प्रकृति को किसी न किसी रूप मे प्रदूषित करती है । अस्तु प्रकृति के प्रदूषण को रोकने के लिए संस्कृति की आत्मा, जिसमें प्रकृति की गूंज है, से अनुप्राणित होकर शिक्षा प्रदान करनी चाहिए, अत: शिक्षण संस्थाआें में अध्ययनरत बालक-बालिकाआें को परम्परागत भारतीय शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए ।
पूर्व की पीढ़ियों ने अपने समय में प्रकृति का पूर्ण विकास कर उनको भौतिक संपत्ति के रूप में बदलकर अगली पीढ़ियों को प्रदान किया जाना है और यह माना है कि आने वाली पीढी उन पूर्वजों का उपकार मानेगी, लेकिन वर्तमान पीढ़ी की तो भावी मानव के लिए जटिल समस्याएं और प्रकृति के विध्वंस का आधार छोड़ कर जाने की संभावनाएं बन रही है । आज रेगिस्थान बढ़ रहे है । जीव-जन्तुआें की बहुत सी प्रजातियां लुप्त् हो रही है । प्रकृति के वर्तमान दोहन के भविष्य की आवश्यकताआें को दृष्टि में रखकर ही अपनी योजनाआें का निर्माण करना चाहिए ।
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