मंगलवार, 16 जून 2015


सामाजिक पर्यावरण
विकास की बली चढ़ते प्राकृतिक संसाधन
डॉ. अवध प्रसाद 
राज्य(सरकारें) समाजहित और विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों पर अपना एकाधिकार स्थापित कर चुकी है । लेकिन विडंबना यह है कि इन संसाधनों का लाभ कंपनियां और पूंजीपति उठा रहे हैंऔर आम नागरिक एवं इन संसाधनों पर अरक्षित आदिवासी समाज स्थापित हो रहा है। भूमि अधिग्रहण अधिनियम २०१३ में परिवर्तन हेतु दूसरी बात अध्यादेश जारी हो गया है ।
प्राकृतिक संसाधन (धरती, जल, हवा, खनिज आदि) मानव निर्मित नहीं हैं । लेकिन मानव सहित अन्य प्राणी अपनी जीविका एवं जीवन के लिये प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करते हैं । उपयोेेेग की यह व्यवस्था आदिकाल से चली आ रही है। मनुष्य ऐसा प्राणी है जो इन संसाधनों का उपयोग केवल जीविका के लिये ही नहीं करता बल्कि इसका असीमित शोषण, दोहन अपने स्वार्थ एवं असीमित इच्छा के लिये करता   है । इस इच्छा की पूर्ति के लिये उस पर अधिकार व स्वामित्व स्थापित करता है । 
सार रूप में कहेंतो जमींदार, राजा, राज्य आदि की व्यवस्था इसी के विभिन्न रूप हैं । समाज व्यवस्था में परिर्वतन के साथ साथ प्राकृतिक संसाधनों के  ''स्वामित्व'' के स्वरूप में भी बदलाव आता गया । इस प्रश्न को यहीं छोड़ते हुए आज की स्थिति को देखें तो हम पाते हैंकि प्राकृतिक संसाधनों पर राज्य (सरकार) अपना अधिकार मानता है । परन्तु व्यवहार में इसका उपयोग करने वालों की स्थिति भिन्न है । अपने देश में खेती की जमीन पर किसान खेती करता है और उस पर उसका अधिकार माना जाता है । वन क्षेत्र के निवासियों का जमीन एवं वन पर अधिकार रहा है और उसी का अधिकार है, ऐसी व्यवस्था रही है । 
विकास की गति ने इस प्राकृतिक एवं परम्परागत व्यवस्था को बदल दिया है । यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि राज्य (सरकार) सभी प्राकृतिक संसाधनों पर अपना अधिकार जताकर स्वंय को उसका स्वामी मानने लगा । इस बात को स्वीकार करते हुये राज्य ''समाज के हित'' एवं विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार एवं उपयोग के कानून बनाता है । पिछले कुछ वर्षोंा में राज्य (सरकार) की ओर से अनेक ऐसे कानून बने एवं वर्तमान मेें भी बनाने के प्रयास हो रहे हैंजिससे किसान, खेती की जमीन, वन वनवासी की जीविका और सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन प्रभावित होता है ।  
भूमि अधिग्रहण कानून, सबसे पहले सन् १८९४ में ब्रिटिश सरकार द्वारा उस समय की परिस्थिति एवं सरकार की सोच के अनुसार बने थे । पिछले वर्षोंा में (२०१३ में) पुराने कानून में दो वर्ष तक व्यापक विचार विमर्श एवं आंदोलन को ध्यान में रखते हुये कानून में संशोधन किया गया । इस कानून में वन क्षेत्र वन में रहने वालों को अधिकार देने के साथ साथ जिसकी जमीन है उसकी स्वीकृति, अदालत में जाने की छूट, खाद्य सुरक्षा (खेती), अधिग्रहण का प्रभाव आदि मुद्दे शामिल किये गये । इस प्रकार राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा होने के बाद वह कानून बना था ।
पिछले आमचुनाव के बाद एनडीए की नयी सरकार बनी और उसने वर्ष २०१३ में स्वीकृत भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन करने का निर्णय लिया । सरकार ने संशोधन को इतना आवश्यक समझा कि अध्यादेश के माध्यम से संशोधन को लागू कर दिया । यह कार्य इस विश्वास से किया कि इसे उसी रूप में दोनों सदनों में स्वीकृत करा लिया जायगा । मंत्री एवं प्रधानमंत्री ने इसे किसान एवं समाज हित में बताया तथा लाभकारी कहा, इस संशोधनोे के  कुछ लाभ भी गिनाये । परंतु पूरे देश में नये कानून का विरोध चल रहा   है । सामाजिक संस्थायें, किसान संगठन, जागरूक नागरिक एवं राजनैतिक दल अपने अपने स्तर पर इसका विरोध कर रहे हैं । परिणामस्वरूप अभी तक नया कानून लोकसभा में पारित हो जाने के  बावजूद राज्यसभा में प्रस्तुत नहीं किया जा सका है । सत्ता पक्ष इसके लाभों के बारे में योजनाबद्ध तरीके  से जानकारी दे रहा है । 
इस सम्बन्ध में ''जनसत्ता'' के सम्पादक की टिप्पणी को याद करना (जनसत्ता ६ मई २०१५) उचित होगा । सम्पादक का कहना है कि सन् २०१३ के भूमि अधिग्रहण कानून को बदलने की मांग किसानों की तरफ से नहीं आयी थी । यह मांग कंपनियोंकी तरफ से आई थी । प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि किसानों की राय ली जायगी । पर ऐसा कुछ नहीं हुआ । इस प्रकार सामाजिक प्रभाव आकंलन पर भी विचार नहीं किया गया । अन्ना हजारे इस बिल को किसानों को भ्रमित करने वाला मानते हैं । सामाजिक संस्थायें एवं व्यक्ति भी नये कानून में व्यापक संशोधन आवश्यक मानते हैं । उपरोक्त संदर्भ का ध्यान में रखते हुये कुछ विचारणीय मुद्दे सामने आते हैं जिनका उल्लेख समाचार पत्रों में भी पढ़ने में आये हैं । उनमें से कुछ मुद्दे इस प्रकार हैं । 
* जिसकी जमीन का अधिग्रहण किया जाता है उससे स्वीकृति लेने का प्रावधान नहीं है । 
* अधिग्रहण की गयी जमीन के विरुद्ध न्यायालय में नहीं जाया जा सकता है । 
* सरकार समाजहित में जमीन का अधिग्रहण कर सकती   है । परंतु कौन सा काम ''समाजहित'' मंे है इसका विवरण नहीं दिया गया है । 
* कृषि भूमि का भी अधिग्रहण किया जायगा । इससे उत्पादन प्रभावित होगा । 
* कोरिडोर परियोजना में सड़क के दोनों ओर १-१कि.मी. जमीन औद्योगिक उपयोग के लिये अधिग्रहित की जा सकेगी । इससे खेती की जमीन एवं गांव का बसावट प्रभावित होगी । पैदावार घटेगी और विस्थापन बढ़ेगा । 
* अधिग्रहण के सामाजिक प्रभाव का आकलन महत्वपूर्ण है, कानून में इस प्रावधान को नहीं रखा गया है ।
*''सामाजिक प्रभाव आकलन'' नहीं होने, कृषि भूमि का अधिग्रहण करने आदि कारणों से युवा बेरोजगारी बढेगी । औद्योगिक क्षेत्र में ग्रामीण युवक कम पढ़े युवकों की अपेक्षा पूरी नहीं होने की स्थिति बनने की संभावना है। विस्थापन की समस्या बढ़ने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है । 
* इसका व्यावहारिक परिणाम बड़ी कंपनियों का हित (लाभ) एवं ग्रामीणों, छोटे एवं गृह उद्योगों का अहित होगा जिससे आज भी ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार एवं आय प्राप्त होती है । 

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