मंगलवार, 16 जून 2015


विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष 
पर्यावरण संरक्षण, हम सबका दायित्व
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित 
पर्यावरण का संरक्षण वर्तमान युग की बड़ी समस्याआें में से एक है । पर्यावरण और जीवन एक दूसरे के पूरक और पर्याय है । पर्यावरण में समूची मानव जाति और इस ग्रह पर मौजूद सभी जीवों तथा पेड़ पौधों का भविष्य निहित है । 
विश्व पर्यावरण दिवस संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वाधान में सारी दुनिया में मनाया जाने वाला सबसे बड़ा उत्सव है । आजकल विश्व भर में पर्यावरण की बहुत चर्चा है क्योंकि वर्तमान में पर्यावरण विघटन की समस्याआें ने ऐसा विकराल रूप धारण कर लिया है कि पृथ्वी पर प्राणी मात्र के अस्तित्व को लेकर भय मिश्रित आशंकाएं पैदा होने लगी हैं । 
पर्यावरण को लेकर मानव समाज की दुर्गति मानव के इस निरर्थक विश्वास के कारण हुई कि प्रकृति में हर वस्तु उसी के उपयोग के लिए हैं । प्रकृति की उदारता, उसकी प्रचुरता तथा उसकी दानशीलता को मनुष्य ने अपना अधिकार समझा और उसकी इसी संकीर्णता से प्रकृति के शोषण से उत्पन्न असंतुलन की स्थिति भयावह हो चुकी है । 
प्रकृति के साथ अनेक वर्षोंा से की जा रही छेड़छाड़ से पर्यावरण को हो रहे नुकसान को देखने के लिए अब दूर जाने की जरूरत नहीं है । विश्व में बढ़ते बंजर इलाके, फैलते रेगिस्तान, कटते जंगल, लुप्त् होते पेड़-पौधे और जीव जन्तु, प्रदूषणों से दूषित पानी, कस्बों एवं शहरों पर गहराती गंदी हवा और हर वर्ष बढ़ते बाढ़ एवं सूखे के प्रकोप इस बात के साक्षी हैं कि हमने अपनी धरती और अपने पर्यावरण की ठीक-देखभाल नहीं की हैं । 
आज से पर्यावरण संतुलन के दो बिन्दु सहज रूप से प्रकट होते    हैं । पहला प्राकृतिक औदार्य का उचित लाभ उठाया जाए एवं दूसरा प्रकृति में मनुष्य जनित प्रदूषण को यथासंभव कम किया जाए । इसके लिए भौतिकवादी विकास के दृष्टिकोण में परिवर्तन करना होगा । करीब तीन सौ साल पहले यूरोप में औघोगिक क्रांति हुई इसकी ठीक १०० वर्ष के अंदर ही पूरे विश्व की जनसंख्या दुगनी हो गई । जनसंख्या वृद्धि के साथ ही नई कृषि तकनीक एवं औद्योगिकरण के कारण लोगों के जीवन स्तर में बदलाव आया । मनुष्य के दैनिक जीवन की आवश्यकताएँ बढ़ गई, इनकी पूर्ति के लिए नये-नये साधन जुटाएँ जाने लगे । विकास की गति तीव्र हो गई और इसका पैमाना हो गया अधिकाधिक प्राकृतिक संसाधनों का दोहन, इसने एक नई औघोगिक संस्कृति को जन्म दिया । 
आज पूरे विश्व में लोग अधिक सुखमय जीवन की परिकल्पना करते हैं । सुख की इसी असीम चाह का भार प्रकृति पर पड़ता है । विश्व में बढ़ती जनसंख्या, विकसित होने वाली नई तकनीकों तथा आर्थिक विकास ने प्रकृति के शोषण को निरन्तर बढ़ावा दिया हैं । पर्यावरण विघटन की समस्या आज समूचे विश्व के सामने प्रमुख चुनौती है, जिसका सामना सरकारों तथा जागरूक जनमत द्वारा किया जाना  है । 
हम देखते हैं कि हमारे जीवन के तीनों बुनियादी आधार हवा, पानी और मिट्टी आज खतरे में हैं । सभ्यता के विकास के शिखर पर बैठे मानव के जीवन में इन तीनों प्रकृति प्रदत्त उपहारों पर संकट बढ़ता जा रहा है । बढ़ते वायु प्रदूषण के कारण न केवल महानगरों में ही बल्कि छोटे-छोटे कस्बों और गाँवों में भी शुद्ध प्राणवायु मिलना दुभर हो गया है, क्योंकि धरती के फैफड़े वन समाप्त् होते जा रहे हैं । वृक्षों के अभाव में प्राणवायु की शुद्धता और गुणवत्ता दोनों ही घटती जा रही है । बड़े शहरों में तो वायु प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि लोगों को सांस संबंधी बीमारियां आम बात हो गई है । 
हमारे लिए हवा के बाद जरूरी है जल । इन दिनों जलसंकट बहुआयामी है, इसके साथ ही इसकी शुद्धता और उपलब्धता दोनों ही बुरी तरह प्रभावित हो रही हैं । एक सर्वेक्षण में कहा गया है कि हमारे देश में सतह का जल बुरी तरह से प्रदूषित है और भू-जल का स्तर निरन्तर नीचे जा रहा है । शहरीकरण और औघोगिकीकरण ने हमारी बारहमासी नदियों के जीवन में जहर घोल दिया है, हालत यह हो गई है कि मुक्तिदायिनी गंगा की मुक्ति के लिए पिछले कई वर्षोंा से अभियान चल रहा है । 
हमारी पहली वन नीति में लक्ष्य रखा गया था कि देश का कुल एक तिहाई क्षैत्र वनाच्छादित रहेगा, कहा जाता है कि इन दिनों हमारे यहाँ ९ से १२ प्रतिशत वन आवरण शेष रह गया है । इसके साथ ही अतिशय चराई और निरन्तर वन कटाई के कारण भूमि की ऊपरी परत की मिट्टी वर्षा के साथ बहकर समुद्र मेंजा रही है । इसके कारण बांधों की उम्र कम हो रही है, नदियों में गाद जमने के कारण बाढ़ और सूखे का संकट बढ़ता जा रहा हैं । आज समूचे विश्व में हो रहे विकास ने प्रकृतिके सम्मुख मानव अस्तित्व के लिए नई चुनौती खड़ी कर दी है । 
आज दुनियाभर में अनेक स्तरों पर यह कोशिश हो रही है कि आम आदमी को इस चुनौती के विभिन्न पहलुआें से परिचित कराया जाए, ताकि उसके अस्तित्व को संकट में डालने वाले तथ्यों की उसे समय रहते जानकारी हो जाए और स्थिति को सुधारने के उपाय भी गंभीरता से किए जा सके । भारत के संदर्भ में यह सुखद बात है कि पर्यावरण संरक्षण के लिये सामाजिक चेतना का संदेश हमारे धर्मग्रंथों और नीतिशतकों में प्राचीनकाल से रहा   है । हमारे यहाँ जड़ में, चेतन में सभी के प्रति समानता और प्रकृति के प्रति सम्मान का भाव सामाजिक संस्कारों का आधार बिन्दु रहा है । प्राकृतिक तथा मानवीय संसाधनों के युक्तियुक्त उपयोग द्वारा ही हमारे पर्यावरण की रक्षा की जा सकती है । इसमें लोक चेतना में मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण है । 
पर्यावरण संरक्षण के उपायों की जानकारी हर स्तर तथा हर उम्र के व्यक्ति के लिए आवश्यक है । पर्यावरण संरक्षण की चेतना की सार्थकता तभी हो सकती है, जब हम अपनी नदियां, पर्वत, पेड़, पशु पक्षी, प्राणवायु और हमारी धरती को बचा सके । इसके लिए सामान्यजन को अपने आसपास हवा-पानी, वनस्पति जगत और प्रकृति उन्मुख जीवन के क्रिया-कलापों जैसे पर्यावरणीय मुद्दों से परिचित कराया जाए । युवा पीढ़ी में पर्यावरण की बेहतर समझ के लिए स्कूली शिक्षा में जरूरी परिवर्तन करना होंगे पर्यावरण मित्र माध्यम से विषय पढ़ाने होगे जिससे प्रत्येक विघार्थी अपने परिवेश को बेहतर ढंग से समझ सके । विकास की नीतियों को लागू करते समय पर्यावरण पर होने वाले प्रभावों पर भी समुचित ध्यान देना होगा । 
समाज में प्रकृति के प्रति प्रेम व आदर की भावना सादगीपूर्ण जीवन पद्धति और वानिकी के प्रति नई चेतना जागृत करना होगी । आज आवश्यकता इस बात की भी है कि मनुष्य के मूलभूत अधिकारों में जीवन के लिए एक स्वच्छ एवं सुरक्षित पर्यावरण को भी शामिल किया जाये । इसके लिए समुचित पहल करना होगी । इतना ही नहीं विश्व के सारे देशोंमें पर्यावरण एवं सरकारी विकास नीतियों में संतुलन आए, इसके लिए सघन एवं प्रेरणादायक लोक-जागरण अभियान भी शुरू करना होगा । 
आज हमें यह स्वीकारना होगा कि हरा-भरा पर्यावरण मानव जीवन की प्रतीकात्मक शक्ति है और समय के साथ-साथ हो रही इसकी कमी से हमारी वास्तविक जीवन ऊर्जा में भी कमी आ रही है । वैज्ञानिकों का मत है कि पूरे विश्व में पर्यावरण संरक्षण की सार्थक पहल ही पर्यावरण को संतुलित बनाए रखने की दिशा में रंग ला सकती है । वैज्ञानिकों का कहना है कि वैश्विक गर्मी (ग्लोबल वार्मिग), बढ़ता प्रदूषण और घटती वृक्षों की संख्या हमें चेता रही है । अब हमें चेतना होगा, ऊर्जा के लिए प्रदूषण रहित नए उपाय विकसित किए जाएँ और पेड-पौधों को अधिक से अधिक लगाने के सार्थक प्रयत्न किए जाएँ । पौधारोपण की सहायता से पर्यावरण को समृद्ध बनाया जाए । खेती में कीटनाशकों एवं रसायनिक खाद के उपयोग को सीमित करना होगा । 
इस दिशा में भागीरथी प्रयास जरूरी है । भागीरथ प्रतीक है उच्च्तम श्रम का । मनुष्य के श्रम का पसीना गंगाजल से भी ज्यादा पवित्र है । गंगा और भागीरथ के मिथक से ही इसे समझा जा सकता है । भागीरथ जब अपने श्रम से गंगा को धरती पर लाये तो गंगा का नाम हो गया भागीरथी, भागीरथ का नाम गंगाप्रसाद नहीं हुआ । इसी प्रकार अधिक परिश्रमी और असाध्य कार्य के लिए प्रतीक हो गया भागीरथी प्रयास । पर्यावरण के क्षेत्र में भी संरक्षण के भागीरथी प्रयासों की आवश्यकता है । सर्वप्रथम यह हमारा सामाजिक दायित्व है कि हम स्वयं पर्यावरण हितैषी बनें और दूसरों को प्रेरित करें जिससे पर्यावरण समृद्ध भारत बनाया जा सके । 
प्रकृति और मनुष्य के गहरे अनुराग के कारण दोनों के साहचर्य से प्रकृति का संतुलन बना रहता है । मनुष्य के प्रकृति के साथ प्रेममूलक संबंधों में आ रही गिरावट और बढ़ती संवेदनहीनता के दायरों से बाहर निकलकर पुन: प्रकृति की ओर लौटने के लिये हमें हमारी परम्पराआें, शिक्षाआें और संस्कृति की समृद्ध विरासत की ओर लौटना होगा तभी हम अपने पर्यावरण को सुरक्षित रख सकेगें । पर्यावरण दिवस का यही हमारा संकल्प होना चाहिए इसी से इस दिवस की सार्थकता सिद्ध होगी । 

कोई टिप्पणी नहीं: