शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

विशेष लेख
भारतीय दर्शन में पारिस्थितिक सन्तुलन
तारादत्त जोशी
    सतत पोषणीय विकास और पारिस्थितिक सन्तुलन को बनाये रखने हेतु जो व्यवस्था भारतीय दर्शन में देखने को मिलती है वह विश्व के किसी अन्य दर्शन और संस्कृति में नही है ।
    सम्पूर्ण भारतीय दर्शन प्रकृति प्रेम में रचा बसा है । भारतीय दर्शन मेंप्रकृति के प्रत्येक घटक की परितन्त्र के लिये आवश्यकता और महत्व को देखते हुये इन्हेंधर्म और ईश्वर से सम्बद्ध किया गया है । प्रकृति को प्रभावित करने वाली शक्तियों को उपासना द्वारा शान्त करके प्रकृति संरक्षण इस दर्शन की विशेषता है ।
    भारतीय दर्शन मेंप्रकृति व जीवन के मूल कारकों (क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर) को ब्रह्म माना गया है । अभी तक सम्पूर्ण ब्रह्मांड में धरती के अतिरिक्त किसी अन्य ग्रह में जीवन की उपस्थिति का प्रमाण नहीं मिला है । धरती का तापमान और इसमें जल और वायु की उपस्थिति आदि परिस्थितियाँ इसमें जीवन को संभव बनाती है । 
     इसीलिये प्राचीन भारतीय दर्शन धरती को माता और स्वयं को पुत्र कहकर धरती को नमन करता है । सन्तति की उत्पत्ति के कारक स्वरूप बीज का अपना महत्व है किन्तु धरती के अभाव मेंबीज और बीज के अभाव में धरती अधूरी है । बीज और धरती एक दूसरे के पूरक हैं । धरती बीज को धारण कर सन्तति को जन्म देती है और उसका पोषण करती है । सन्तति का अस्तित्व कायम रहे इसके लिये धरती का होना आवश्यक है ।
    भारतीय दर्शन में धरती को माँ सम्बोधित कर इसके प्रति जनमानस में श्रद्धा उत्पन्न कर इसके अनुचित दोहन को रोकते हुए इसे भावी पीड़ी हेतु सुरक्षित रखने को प्रेरित करती  है । जीवन के कारक स्वरूप धरती को ब्रहम मानते हुए कहा गया है   कि -
    यद्बह्म पृथ्वी भूत्वा लोकान धारयसि प्रभो
    तस्मै ते शतसो देव नमोस्तु परमेश्वर ।
    वेद और विज्ञान दोनों ही जीवन की उत्पत्ति जल से मानते हैं  । जल के बिना जीवन संभव नहीं है । भारतीय दर्शन की विशेषता यह है कि यह जल को उत्पत्ति के कारक रूप में ही श्री हरि नाम से सम्बोधित कर इसकी महत्ता स्थापित करते हुये मानव में इसके प्रति श्रद्धा एवं आस्था उत्पन्न कर जल की सुरक्षा और स्वच्छता का उपाय भी सुझा देते है ।
    भारतीय दर्शन में जल को जीवन और नदियों को जीवनदायिनी कहा गया है तथा प्रत्येक नदी को किसी न किसी रूप में धर्म और ईश्वर से सम्बद्ध किया गया है । जिससे कि मानव इसकी स्वच्छता को बनाये  रखे । जल ही जीवधारियों में रक्त रूप में प्रवाहित होकर प्रत्येक कोशिका तक प्राणवायु का संचार करता है । जल को ब्रहम मानते हुये कहा गया है कि -
    यद्बह्मं गदिदं लोके जलरूपं त्वमेवहि
    प्रीणासि तेन रूपेण जगत्सर्व चराचरम् ।
    जीवन को बनाये रखने के लिए भोजन की आवश्यकता होती है और वनस्पतियॉ जल, वायु और सूर्य के सहयोग से भोजन का निर्माण करती हैं । शेष जीवधारी भोजन के लिये प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से वनस्पतियोंपर निर्भर रहते हैं । जीवन के लिये भोजन (अन्न) और अन्न के लिये जल की महत्ता गीता मेंभाषित है -
    अन्नाद्भवन्ति भूतानि, पर्यन्याद्न्नसमभव: 
    जीवन की निरन्तरता को बनाये रखने में सूर्य का महत्वपूर्ण योगदान है । धरती स्वयं सूर्य को भाग है । सूर्य ही जलवृष्टि को संभव बनाते हैं । सूर्य के बिना जीवन की कल्पना भी संभव नहीं है । इसीलिये वैदिक ऋषियों द्वारा सूर्य से कभी विलग न होने की कल्पना की गयी है ।
    ऑक्सीजन, यौगिक स्वरूप जल का मूल तत्व और जीवधारियों के जीवन का आधार है । वैदिक दर्शन में वायु को यन्त्र के धूम्र से जीवाणु रहित बनाकर प्रदूषण रहित वायुमण्डल की कामना करते हुये वायु को ब्रहम मानकर उपासना की गयी है -
    यद्ब्रह्मं वायुरूपेण सर्वेषा प्राणसज्ञक: त्वयं चेष्टयसि भूतानि स्थावराणि चराणि च ।
    पारिस्थितिक तन्त्र में वृक्षों की उपयोगिता और महत्व को देखते हुये देवता मानकर उपासना की गई है । आयुर्वेद में धरती की प्रत्येक वनस्पति को किसी ने किसी औषधीय गुण से युक्त बताया गया है । पेड़ को दशपुत्रों के बराबर बताकर वृक्ष की महत्ता स्थापित की गयी है । वृक्ष के प्रत्येक भाग में ईश्वर का वास बताया गया है । मूले ब्रह्मा त्वये विष्णु शाखामध्ये महेश्वर: पात्रे-पात्रे देवानां वृक्षराज: नमोस्तुते । यह प्राचीन भारतीय दर्शन की देन है कि आज भी तुलसी से लेकर विशाल वट और पीपल वृक्षों की पूजा होती है और इसी कारण आज तक इन वृक्षों का अस्तित्व बना हुआ है ।
    परितन्त्र में पाये जाने वाले विशालकाय जन्तु हाथी से लेकर चूहे तक पक्षियों में गरूड़ से लेकर उलूक तक, जलचरों में मत्स्य, कच्छप और सरीसृप में मगर से लेकर विषैले नागों तक को किसी न किसी प्रकार धर्म और ईश्वर से सम्बद्ध किया गया है । ताकि मानव में इन सबके प्रति प्रेम उत्पन्न हो सके । ऐसा करने का एक मात्र उद्देश्य पारिस्थितिक सन्तुलन बनाये रखना ही हो सकता है । प्रकृति प्रेम और संरक्षण की इतनी उदात्त भावना विश्व के अन्य दर्शन में मिलना सर्वथा दुर्लभ है ।
    यद्यपि कुछ प्रगतिवादी विचारक इस दर्शन को काल्पनिक कह सकते हैं । किन्तु प्रकृति संरक्षण की आवश्यकता आज वैश्विक स्तर पर अनुभव की जा रही है । इसीलिये पृथ्वी सम्मेलन और पृथ्वी दिवस मनाने की आवश्यकता अनुभव की जा रही है । विकास की लूट-खसोट कर संसाधनों का प्रयोग वाली, वर्तमान शैली के कारण ही आज गंभीर समस्यायें जन्म ले रही है । वायु मण्डल विषाक्त धूम्र से भर गया है प्राणवायु दूषित हो गयी है । औद्योगिक और मानवजनित कचरा ढोते-ढोते जीवनदायिनी नदियाँ थक गयी हे । अत्यधिक कीटनाशकों के प्रयोग से भूमि में दूषित एवं जहरीला अन्न उत्पादित हो रहा है । वनों के अनियान्त्रित कटान से जीवधारियों की कई प्रजातियाँ लुप्त् हो गयी है और कई लुप्त् होने की कगार पर     हैं । बची हुई प्रजातियाँ मानव बस्तियों की ओर प्रस्थान कर रही   हैं । परितंत्र में असंतुलन उत्पन्न हो गया है और हम जल व वायु संकट की ओर अग्रसर हैं ।
    यदि हमें दीर्घकाल तक धरती में जीवन के अस्तित्व को बनाये रखना है तो प्रकृति संरक्षण के भारतीय सिद्धान्तों के अनुरूप चलना होगा । जल और वायु को दूषित होने से बचाना होगा और संसाधनों की लूट खसोट बन्द करनी होगी । जैव विविधता को बचाने के लिये समुचित प्रयास करने होंगे ।
    किन्तु वर्तमान समय में हम भौतिक सुख सुविधाआें के आवेश में जकड़े हुये जिस मूल्य विहीन सांस्कृतिक शैली को अपना रहे है उसे देखकर लगता है कि कनडियन फिल्म निदेशक ए.ओ.साबिन का कथन है - जब आखीर पेड़ कट जायेगा, आखरी नदी के पानी में जहर घुल जायेगा और आखरी मछली का शिकार हो जायेगा, तभी इंसान को एहसास होगा कि वह पैसे नहीं खा सकता है । शीघ्र ही सत्य हो    जायेगा । अत: पारिस्थितिक सन्तुलन का वैदिक सिद्धान्त सर्वथा वैज्ञानिक समयानुकूल और आज की आवश्यकता है । इसे अपनाकर ही हम अपने पारितंत्र को बचा सकते   हैं ।

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