कविता
हमें न बांधों प्राचीरों में
डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन
हम पंछी उन्मुक्त गगन के
पिंजरबद्ध न गा पायेंगे,
कनक-तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जायेंगे ।
हम बहता जल पीने वाले
मर जायेंगे भूखे-प्यासे,
कहीं भली है कटूक निबौरी
कनक-कटोरी की मैदा से ।
स्वर्ण श्रृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले,
बस सपनों में देख रहे है
तरू की फुनगी पर में झूले ।
ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नीले नभ की सीमा पाने,
लाल किरण-सी चोंच खोल
चुगते तारक-अनार के दाने ।
होती सीमाहीन क्षितिज से
इन पंखों की होड़ा-होड़ी,
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती सांसो की डोरी ।
नीड़ न दो चाहे, टहनी का
आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो,
लेकिन पंख दिये है तो
आकुल उड़ान में विघ्न न डालो ।
पागल प्राण बंधेंगे कैसे
नभ की धुंधली दीवारों में ।
हमें न बांधों प्राचीरों में
डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन
हम पंछी उन्मुक्त गगन के
पिंजरबद्ध न गा पायेंगे,
कनक-तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जायेंगे ।
हम बहता जल पीने वाले
मर जायेंगे भूखे-प्यासे,
कहीं भली है कटूक निबौरी
कनक-कटोरी की मैदा से ।
स्वर्ण श्रृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले,
बस सपनों में देख रहे है
तरू की फुनगी पर में झूले ।
ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नीले नभ की सीमा पाने,
लाल किरण-सी चोंच खोल
चुगते तारक-अनार के दाने ।
होती सीमाहीन क्षितिज से
इन पंखों की होड़ा-होड़ी,
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती सांसो की डोरी ।
नीड़ न दो चाहे, टहनी का
आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो,
लेकिन पंख दिये है तो
आकुल उड़ान में विघ्न न डालो ।
पागल प्राण बंधेंगे कैसे
नभ की धुंधली दीवारों में ।
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