हमारा भूमण्डल
सतत विकास लक्ष्य : कब पूरे होगे ?
साकिको फुकुडा-पार्र
संयुक्त राष्ट्र संघ सदस्य देशों ने सतत या सुस्थिर विकास लक्ष्यों को सन् २०३० तक प्राप्त किए जाने का मन बनाया है । परंतु इसे न तो देशों पर बाध्यकारी बनाया गया है और न ही इसके लिए वित्तीय संसाधनों की उपलब्धता सुनिश्चित की गई है। इसका स्वरूप अत्यन्त व्यापक एवं जटिलताओं से भरा है ।
पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र में सतत विकास लक्ष्य २०३० (एसडीजी) को अपनाने को लेकर एक दुर्लभ सुखाभास व्याप्त था । इस अवसर पर वहां उत्सवी माहौल था । इस नए कार्यक्रम को लेकर सिर्फ सरकारी प्रतिनिधि ही नहीं बल्कि नागरिक समूह के कार्यकर्त्ता भी उत्साहित थे जिसने सुस्थिर विकास को लेकर रूपांतरित करने वाले परिवर्तन का वायदा किया है। परंतु क्रियान्वयन ही वास्तविक परिवर्तन ला सकता है । एसडीजी विकास संबंधी सोच को लेकर एक महत्वपूर्ण परिवर्तन है। यह एक अन्तरराष्ट्रीय परियोजना है ।
सतत विकास लक्ष्य : कब पूरे होगे ?
साकिको फुकुडा-पार्र
संयुक्त राष्ट्र संघ सदस्य देशों ने सतत या सुस्थिर विकास लक्ष्यों को सन् २०३० तक प्राप्त किए जाने का मन बनाया है । परंतु इसे न तो देशों पर बाध्यकारी बनाया गया है और न ही इसके लिए वित्तीय संसाधनों की उपलब्धता सुनिश्चित की गई है। इसका स्वरूप अत्यन्त व्यापक एवं जटिलताओं से भरा है ।
पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र में सतत विकास लक्ष्य २०३० (एसडीजी) को अपनाने को लेकर एक दुर्लभ सुखाभास व्याप्त था । इस अवसर पर वहां उत्सवी माहौल था । इस नए कार्यक्रम को लेकर सिर्फ सरकारी प्रतिनिधि ही नहीं बल्कि नागरिक समूह के कार्यकर्त्ता भी उत्साहित थे जिसने सुस्थिर विकास को लेकर रूपांतरित करने वाले परिवर्तन का वायदा किया है। परंतु क्रियान्वयन ही वास्तविक परिवर्तन ला सकता है । एसडीजी विकास संबंधी सोच को लेकर एक महत्वपूर्ण परिवर्तन है। यह एक अन्तरराष्ट्रीय परियोजना है ।
शीत युद्ध समाप्ति के बाद घोषित घटते बजट वाले शताब्दी विकास लक्ष्य (एमडीजी) की कार्यसूची दानदाता एजेंसियों के रहमों करम पर आश्रित थी और इसमें आधारभूत समायोजन को लेकर अनेक विवाद भी खड़े हुए थे। गौरतलब है सन् १९९० के दशक में गरीबी को खत्म करने को लेकर एक नैतिक दबाव पैदा हुआ था । जो बाद में वैश्विक मानदंड बन गया था । इसने एक साझा उद्देश्य को फली भूत किया जो कि कमोवेश उल्लेखनात्मक ही था । वहीं दूसरी ओर एस डी जी का अभ्युदय रियो + २० प्रक्रिया से हुआ है । इसमें बढ़ती पर्यावरणीय अस्थिरता और असमान सामाजिक विकास वाली स्थिति को परिवर्तन के एजेंडे पर लिया गया था । इन्हें तैयार करने की प्रक्रिया में सिर्फ विकास विशेषज्ञ ही नहीं बल्कि सरकारें, नागरिक समूह व निजी क्षेत्र भी शामिल थे । इस प्रक्रिया में अत्यन्त सशक्त रूप से विकसित राष्ट्रीय सरकारों के अलावा कोलंबिया जैसे मध्य आयवाले देश भी शामिल थे ।
एसडीजी में गरीबी, असमानता और पर्यावरणीय सुस्थिरता को वैश्विक मान्यता दी गई है और स्वीकार किया है कि इसे लेकर जितनी चुनौती अफ्रीकी देश लाइबेरिया के सामने है उतनी ही ब्रिटेन के सामने भी है । इस बात में कोई शक नहीं है कि एसडीजी में एमडीजी की कमियों को दूर करने के काफी गंभीर प्रयास किए गए हैं ।
(१) सरलता एवं लघुकरण : एमडीजी के जिस मूल्य को सर्वाधिक सराहा गया वह था इनकी सरलता । इसके विपरीत एसडीजी की व्यापक आलोचना खासकर विकास विशेषज्ञों द्वारा इसलिए की जा रही है कि यह हास्यास्पद रूप से अत्यन्त भीड़ भरे प्रतीत होते हैं । लेकिन सरलता का अर्थ सरलीकरण भी होता है ।
एसडीजी लक्ष्यों ने ``विकास`` के अर्थ को मूलभूत आवश्यकताओं की आपूर्ति तक सीमित कर दिया था । जिसकी वजह से विकास का विचार जो कि मूलत: उत्पादक क्षमता में वृद्धि, शक्ति के केन्द्रों में एवं सामाजिक संबंधों में परिवर्तन एवं मानव स्वतंत्रता का विस्तार होता है, को दरकिनार कर दिया गया था । एसडीजी सिर्फ संख्या में ही ज्यादा नहीं है बल्कि यह विकास के एजेंडे में बदलाव के लिए महत्वाकांक्षी कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं और वे उन संस्थानों में सुधार की आवश्यकता भी बताते हैं जो कि इसके क्रियान्वयन हेतु मूलत: जिम्मेदार हैं ।
(२) गरीब देशों के लिए अन्यायपूर्ण माप : संदर्भ के महत्व को रेखांकित करते हुए घोषणापत्र में कहा गया है कि एसडीजी के लक्ष्य ``परिभाषित और वैश्विक`` हैं । वहीं राष्ट्रीय सरकारें अपने राष्ट्रीय हितों के मद्देनजर स्वयं अपने लक्ष्य तय कर सकती हैं । इसके ठीक विपरीत संयुक्त राष्ट्र नेतृत्व द्वारा एमडीजी के अन्तर्गत राष्ट्रीय अनुकूलता के विचार का उग्रता से विरोध किया गया था । वह लक्ष्य ``सभी के लिए एक से`` के आधार पर तय कर दिए गए जिन्हें संदर्भों की अनदेखी करते हुए सन् २०१५ तक पूरा करना था ।
निगरानी तंत्र भी ऐसा था जिसने लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु देशों की शुरुआती स्थिति को ध्यान में ही नहीं रखा था । जाहिर सी बात है जिन देशों ने काफी पीछे से शुरुआत की थी, विशेषकर उपसहारा अफ्रीका के अत्यन्त अल्प विकसित देश, वे लक्ष्यों की पूर्ति में पीछे रह गए । परिणामस्वरूप उन्हें असफल घोषित कर दिया गया । यद्यपि अध्ययन बताते हैं कि उन्नति की रफ्तार देखें तो स्पष्ट होता है कि कुछ अफ्रीकी देशों ने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया है ।
(३) असमानता का लक्ष्य चूका : हालांकि आज तकरीबन सभी देशों के सामने सबसे बड़ी चुनौती असमानता है। लेकिन एमडीजी में इसे शामिल ही नहीं किया गया था । इन लक्ष्यों का एजेंडे में शामिल होना यह सिद्ध करता है कि हमारा आर्थिक मॉडल अभी भी असमानता में वृद्धि कर रहा है । एसडीजी (क्र) १० जिसका उद्देश्य देश के भीतर और देशों के अन्तर्गत असमानता को कम करना है, पर हुई चर्चा सर्वाधिक विवादास्पद राजनीतिक बहस साबित हुई । इसके दस लक्ष्यों में अनिवार्यत: आर्थिक संचालन हेतु सांस्थानिक सुधारों पर ध्यान दिया गया है ।
इसके बावजूद यह मूलपा वास्तव में एक ``पथ प्रदर्शक``भर है । वास्तविक चुनौती तो राजनीतिक रूप से ऐसे विवादास्पद मुद्दों पर विजय सुनिश्चित कराना है, जो क्रियान्वयन के दौरान कहीं गुम न हो जाएं । इस बात के लेकर स्वाभाविक तौर पर जोखिम बना हुआ है कि १७ लक्ष्यों वाले इस जटिल एवं महत्वाकांक्षी एजेंडे को कहीं सरलीकरण के माध्यम से कूढ़े के ढेर में न फेंक दिया जाए । वैसे इसकी शुरुआत एस डी जी वैश्विक लक्ष्य के प्रचार में निजी पहल को शामिल करने से हो भी चुकी है, जिसने कि अपनी प्रक्रिया में इसका सरलीकरण, इसके शीर्षकों को छोटा करने एवं इनकी पुर्नव्याख्या के माध्यम से प्रारंभ भी कर दिया है । बारबरा एड्म्स ने अपने हालिया ब्लाग में लिखा है कि, ``सुस्थिर (सतत) विकास का विचार तो पूरी तरह विलुप्त हो चुका है। क्योंकि इनमें ``न्यायोचित`` ``समावेशी`` एवं ''सुस्थिर'' जैसे शब्दों को हटाकर उनकी जगह ``जिम्मेदार`` और ``मजबूत'' जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाने लगा है ।
एक अन्य जोखिम चयनात्मकता का है । इस वजह से ऐसे लक्ष्यों एवं उद्देश्यों की अवहेलना हो सकती है जो कि आधारभूत मुद्दों को संबोधित हों । ऐसा व्यापक विश्वास बना था कि एमडीजी की वजह से सक्रियता तो बढ़ी है परंतु सभी उद्देश्य एवं लक्ष्य एक से नहीं थे । उदाहरणार्थ रोजगार एवं भूख सन् २००८ में आए वित्तीय संकट एवं मंदी की मार पड़ने तक निर्धन सहकर्मा जैसे थे । नए एसडीजी में १७ लक्ष्य एवं १६९ उद्देश्य या बिंदु हैं,इनमें से कौन से मुट्ठी भर अपनी ओर ध्यान आकर्षित कर पाएंगे, प्रयत्न की ओर कदम बढ़ा पाएंगेे या संसाधन इकट्ठा कर पाएंगे ? क्या लक्ष्य क्रमांक १० जिसके अंतर्गत राष्ट्रांे के भीतर एवं राष्ट्रों के बीच असमानता कम करना या उद्देश्य या बिंदु क्रमांक ५ अ जिसमें कि भूस्वामित्व में महिलाओं के कानूनी अधिकारों को सुनिश्चित करने की बात ही गई है, को आवश्यक राजनीतिक ध्यानाकर्षण उपलब्ध हो पाएगा ? एक और जोखिम या खतरा है राष्ट्रीय अनुकूलता की अनुमति प्रदान करना । यह एसडीजी की महत्वाकांक्षाओं पर पानी फेरने का स्पष्ट निमंत्रण है । इस मोर्चे पर खास चुनौती असमानता के लक्ष्य के क्रियान्वयन को लेकर है । यह उन थोड़े से लक्ष्यों में से एक है जिसकी पूर्ति करने हेतु पिछले दशक में सामने आई विभिन्न धारणाओं में परिवर्तन करना होगा । इसमें उस आर्थिक मॉडल में भी बदलाव करना होगा जिसे पिछले दशक में प्रोत्साहित किया गया था ।
निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि सतत् विकास लक्ष्य एक तयशुदा राजनीतिक सहमति भर है जिसमें इसे लागू कर पाने हेतु किसी प्रक्रिया या प्रणाली का निर्माण ही नहीं किया गया है। अब सारी जिम्मेदारी नागरिक समूहों पर आन पड़ी है कि वे एसडीजी को लागू करवाने का भार अपने कंधांे पर उठाएं ।
एसडीजी में गरीबी, असमानता और पर्यावरणीय सुस्थिरता को वैश्विक मान्यता दी गई है और स्वीकार किया है कि इसे लेकर जितनी चुनौती अफ्रीकी देश लाइबेरिया के सामने है उतनी ही ब्रिटेन के सामने भी है । इस बात में कोई शक नहीं है कि एसडीजी में एमडीजी की कमियों को दूर करने के काफी गंभीर प्रयास किए गए हैं ।
(१) सरलता एवं लघुकरण : एमडीजी के जिस मूल्य को सर्वाधिक सराहा गया वह था इनकी सरलता । इसके विपरीत एसडीजी की व्यापक आलोचना खासकर विकास विशेषज्ञों द्वारा इसलिए की जा रही है कि यह हास्यास्पद रूप से अत्यन्त भीड़ भरे प्रतीत होते हैं । लेकिन सरलता का अर्थ सरलीकरण भी होता है ।
एसडीजी लक्ष्यों ने ``विकास`` के अर्थ को मूलभूत आवश्यकताओं की आपूर्ति तक सीमित कर दिया था । जिसकी वजह से विकास का विचार जो कि मूलत: उत्पादक क्षमता में वृद्धि, शक्ति के केन्द्रों में एवं सामाजिक संबंधों में परिवर्तन एवं मानव स्वतंत्रता का विस्तार होता है, को दरकिनार कर दिया गया था । एसडीजी सिर्फ संख्या में ही ज्यादा नहीं है बल्कि यह विकास के एजेंडे में बदलाव के लिए महत्वाकांक्षी कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं और वे उन संस्थानों में सुधार की आवश्यकता भी बताते हैं जो कि इसके क्रियान्वयन हेतु मूलत: जिम्मेदार हैं ।
(२) गरीब देशों के लिए अन्यायपूर्ण माप : संदर्भ के महत्व को रेखांकित करते हुए घोषणापत्र में कहा गया है कि एसडीजी के लक्ष्य ``परिभाषित और वैश्विक`` हैं । वहीं राष्ट्रीय सरकारें अपने राष्ट्रीय हितों के मद्देनजर स्वयं अपने लक्ष्य तय कर सकती हैं । इसके ठीक विपरीत संयुक्त राष्ट्र नेतृत्व द्वारा एमडीजी के अन्तर्गत राष्ट्रीय अनुकूलता के विचार का उग्रता से विरोध किया गया था । वह लक्ष्य ``सभी के लिए एक से`` के आधार पर तय कर दिए गए जिन्हें संदर्भों की अनदेखी करते हुए सन् २०१५ तक पूरा करना था ।
निगरानी तंत्र भी ऐसा था जिसने लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु देशों की शुरुआती स्थिति को ध्यान में ही नहीं रखा था । जाहिर सी बात है जिन देशों ने काफी पीछे से शुरुआत की थी, विशेषकर उपसहारा अफ्रीका के अत्यन्त अल्प विकसित देश, वे लक्ष्यों की पूर्ति में पीछे रह गए । परिणामस्वरूप उन्हें असफल घोषित कर दिया गया । यद्यपि अध्ययन बताते हैं कि उन्नति की रफ्तार देखें तो स्पष्ट होता है कि कुछ अफ्रीकी देशों ने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया है ।
(३) असमानता का लक्ष्य चूका : हालांकि आज तकरीबन सभी देशों के सामने सबसे बड़ी चुनौती असमानता है। लेकिन एमडीजी में इसे शामिल ही नहीं किया गया था । इन लक्ष्यों का एजेंडे में शामिल होना यह सिद्ध करता है कि हमारा आर्थिक मॉडल अभी भी असमानता में वृद्धि कर रहा है । एसडीजी (क्र) १० जिसका उद्देश्य देश के भीतर और देशों के अन्तर्गत असमानता को कम करना है, पर हुई चर्चा सर्वाधिक विवादास्पद राजनीतिक बहस साबित हुई । इसके दस लक्ष्यों में अनिवार्यत: आर्थिक संचालन हेतु सांस्थानिक सुधारों पर ध्यान दिया गया है ।
इसके बावजूद यह मूलपा वास्तव में एक ``पथ प्रदर्शक``भर है । वास्तविक चुनौती तो राजनीतिक रूप से ऐसे विवादास्पद मुद्दों पर विजय सुनिश्चित कराना है, जो क्रियान्वयन के दौरान कहीं गुम न हो जाएं । इस बात के लेकर स्वाभाविक तौर पर जोखिम बना हुआ है कि १७ लक्ष्यों वाले इस जटिल एवं महत्वाकांक्षी एजेंडे को कहीं सरलीकरण के माध्यम से कूढ़े के ढेर में न फेंक दिया जाए । वैसे इसकी शुरुआत एस डी जी वैश्विक लक्ष्य के प्रचार में निजी पहल को शामिल करने से हो भी चुकी है, जिसने कि अपनी प्रक्रिया में इसका सरलीकरण, इसके शीर्षकों को छोटा करने एवं इनकी पुर्नव्याख्या के माध्यम से प्रारंभ भी कर दिया है । बारबरा एड्म्स ने अपने हालिया ब्लाग में लिखा है कि, ``सुस्थिर (सतत) विकास का विचार तो पूरी तरह विलुप्त हो चुका है। क्योंकि इनमें ``न्यायोचित`` ``समावेशी`` एवं ''सुस्थिर'' जैसे शब्दों को हटाकर उनकी जगह ``जिम्मेदार`` और ``मजबूत'' जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाने लगा है ।
एक अन्य जोखिम चयनात्मकता का है । इस वजह से ऐसे लक्ष्यों एवं उद्देश्यों की अवहेलना हो सकती है जो कि आधारभूत मुद्दों को संबोधित हों । ऐसा व्यापक विश्वास बना था कि एमडीजी की वजह से सक्रियता तो बढ़ी है परंतु सभी उद्देश्य एवं लक्ष्य एक से नहीं थे । उदाहरणार्थ रोजगार एवं भूख सन् २००८ में आए वित्तीय संकट एवं मंदी की मार पड़ने तक निर्धन सहकर्मा जैसे थे । नए एसडीजी में १७ लक्ष्य एवं १६९ उद्देश्य या बिंदु हैं,इनमें से कौन से मुट्ठी भर अपनी ओर ध्यान आकर्षित कर पाएंगे, प्रयत्न की ओर कदम बढ़ा पाएंगेे या संसाधन इकट्ठा कर पाएंगे ? क्या लक्ष्य क्रमांक १० जिसके अंतर्गत राष्ट्रांे के भीतर एवं राष्ट्रों के बीच असमानता कम करना या उद्देश्य या बिंदु क्रमांक ५ अ जिसमें कि भूस्वामित्व में महिलाओं के कानूनी अधिकारों को सुनिश्चित करने की बात ही गई है, को आवश्यक राजनीतिक ध्यानाकर्षण उपलब्ध हो पाएगा ? एक और जोखिम या खतरा है राष्ट्रीय अनुकूलता की अनुमति प्रदान करना । यह एसडीजी की महत्वाकांक्षाओं पर पानी फेरने का स्पष्ट निमंत्रण है । इस मोर्चे पर खास चुनौती असमानता के लक्ष्य के क्रियान्वयन को लेकर है । यह उन थोड़े से लक्ष्यों में से एक है जिसकी पूर्ति करने हेतु पिछले दशक में सामने आई विभिन्न धारणाओं में परिवर्तन करना होगा । इसमें उस आर्थिक मॉडल में भी बदलाव करना होगा जिसे पिछले दशक में प्रोत्साहित किया गया था ।
निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि सतत् विकास लक्ष्य एक तयशुदा राजनीतिक सहमति भर है जिसमें इसे लागू कर पाने हेतु किसी प्रक्रिया या प्रणाली का निर्माण ही नहीं किया गया है। अब सारी जिम्मेदारी नागरिक समूहों पर आन पड़ी है कि वे एसडीजी को लागू करवाने का भार अपने कंधांे पर उठाएं ।
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