वानिकी जगत
हर इंसान के लिए ४२२ पेड़
डॉ.डी. बालसुब्रमण्यन
पृथ्वी पर कितने पेड़ हैं ? विश्व भर के ३८ शोधकर्ताआें के दल द्वारा किया गया अध्ययन नेचर जर्नल में प्रकाशित हुआ है । इसमें बताया गया है कि दुनिया भर में ३० खरब पेड़ मौजूद है । अर्थात प्रति व्यक्ति ४२२ पेड़ इस ग्रह के हर व्यक्ति के लिए एक छोटा सा जंगल । वास्तव में यह धरती मां का उपहार है ।
शोधकर्ताआें ने इन आंकड़ों का अनुमान कैसे लगाया ? उन्होनें तीन प्रमुख तरीकों का इस्तेमाल किया । पहला उपग्रहों से प्राप्त् चित्रों की मदद से, दूसरा जंगलों की ४,३०,००० सूचियों के आधार पर पेड़ों का घनत्व निकालकर, और तीसरा कम्प्यूटेशनल तरीके से प्रति हेक्टर में पेड़ों की संख्या की सैद्धांतिक गणना करके । पेड़ को कैसे परिभाषित किया गया ? पेड़ वह वनस्पति है जिसके काष्ठीय तने का व्यास छाती की ऊंचाई (यानी साढ़े चार फीट) पर १० से.मी. से अधिक हो ।
हर इंसान के लिए ४२२ पेड़
डॉ.डी. बालसुब्रमण्यन
पृथ्वी पर कितने पेड़ हैं ? विश्व भर के ३८ शोधकर्ताआें के दल द्वारा किया गया अध्ययन नेचर जर्नल में प्रकाशित हुआ है । इसमें बताया गया है कि दुनिया भर में ३० खरब पेड़ मौजूद है । अर्थात प्रति व्यक्ति ४२२ पेड़ इस ग्रह के हर व्यक्ति के लिए एक छोटा सा जंगल । वास्तव में यह धरती मां का उपहार है ।
शोधकर्ताआें ने इन आंकड़ों का अनुमान कैसे लगाया ? उन्होनें तीन प्रमुख तरीकों का इस्तेमाल किया । पहला उपग्रहों से प्राप्त् चित्रों की मदद से, दूसरा जंगलों की ४,३०,००० सूचियों के आधार पर पेड़ों का घनत्व निकालकर, और तीसरा कम्प्यूटेशनल तरीके से प्रति हेक्टर में पेड़ों की संख्या की सैद्धांतिक गणना करके । पेड़ को कैसे परिभाषित किया गया ? पेड़ वह वनस्पति है जिसके काष्ठीय तने का व्यास छाती की ऊंचाई (यानी साढ़े चार फीट) पर १० से.मी. से अधिक हो ।
लगभग १३.९ खरब पेड़ (विश्व के करीब ४३ प्रतिशत) उष्णकटिबंधीय और भारत जैसे अर्धउष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में है । ७.४ खरब पेड़ (२५ प्रतिशत) रूस, स्कैंडिनेविया और उत्तरी अमेरिका के उप-आर्कटिक क्षेत्र के बोरीयल जंगलों में, और ६.१ खरब (या २२ प्रतिशत पेड़ शीतोष्ण क्षेत्र में है ।
कुछ क्षेत्रों में जंगल बहुत घने हैं । जैसे ऊपरी बोरीयल या अमेजन के जंगल उष्णकंटिबंधीय जंगलों से कहीं अधिक घने है (प्रति इकाई क्षेत्र में ज्यादा पेड़) । रोचक (और अपेक्षित) बात यह है कि मनुष्यों की जनसंख्या का घनत्व उष्णकंटिबधीय क्षेत्रों में ज्यादा है, जो यह दर्शाता है कि हम पेंड़ों पर कितना ज्यादा निर्भर है । मनुष्य अनिवार्य रूप से पेड़ों पर निर्भर प्रजाति है । तमिल में हाथियों के बारे में कहा जाता है कि एक जीवित (और मौत के बाद भी) हाथी हजार गिन्नियों के बराबर होता है ।
यह बात पेड़ों के बारे में तो और भी सही बैठती है । इस निर्भरता को प्राचीनकाल से ही स्वीकार किया जाता रहा है और कई सभ्यताआें में पेड़ों का आदर किया जाता है और यहां तक कि देवता तक माना जाता है । हिन्दु पुराणों में विश्व की उत्पत्ति समुद्र मंथन से मानी जाती है जिसमे कल्पतरू पेड़ और कामधेनु प्रकट हुए थे । कल्पतरू ने सब कुछ (पौधे, जन्तु और मनुष्य) दिया और कामधेनु सभी आवश्यकताआें की पूर्ति करती है ।
विकासवादी जीव विज्ञान हमें बताता है कि पेड़ और पौधे कैसे आए । जमीनी पौधों की उत्पत्ति का काल ५०-६५ करोड़ सालों पहले का है । और उनकी उत्पत्ति हरे रंग की शैवाल से हुई जो उथले साफ पानी में पनपती थी और सूरज की रोशनी का उपयोग करके वृद्धि के लिए वायुमण्डल की कार्बन डाईऑक्साइड से ऊर्जा उत्पन्न करती थी । इस प्रक्रिया का जो अपशिष्ट उत्पाद वे छोड़ते थे, वह थी ऑक्सीजन गैस । और जब जमीनी पौधों की संख्या बढ़ी, और वे फैलते गए, तो प्रकाश संश्लेषण की क्रिया के फलस्वरूप ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ती गई ।
इसका नकारात्मक पक्ष यह रहा कि समय के साथ ऑक्सीजन में वृद्धि से ऑक्सीकरण की मात्रा बढ़ी और कई जीव इसमें भस्म हो गए । इस ऑक्सीजन विषाक्तता के अलावा समय-समय पर पर्यावरणीय हमलों (उल्काआें और धूमकेतुआें की टक्करों) ने कई जीव-रूपों का सफाया किया और उन्हें जीवाश्म में तबदील कर दिया । इस प्रक्रिया में लकड़ी का कोयला और तेल जैसे पदार्थ बने और जमीन में दफन हो गए । इन्हीं को जीवाश्म ईधन कहते हैं ।
विकासवाद की पहचान है पर्यावरण के साथ अनुकूलन । ऑक्सीजन बढ़ने पर ऑक्सीजन-श्वसन करने वाले जन्तुआें (मनुष्य भी) की उत्पत्ति हुई जो ऑक्सीजन की मदद से भोजन का पाचन करते हैं और उस ऊर्जा के उपयोग से शरीर क्रियाएं चलाते हैं और वृद्धि करते हैं । इस क्रियामें कार्बन डाईऑक्साइड अपशिष्ट के रूप में बाहर निकलती है ।
पौधों और मनुष्य के बीच यह लेन-देन का मामला है । हम पेड़-पौधों के अपशिष्ट पदार्थ (ऑक्सीजन) को लेते है और कार्बन डाईऑक्साइड अपशिष्ट के रूप में बाहर निकालते हैं जबकि पेड़-पौधे इसका उलटा करते हैं । यह लेन-देन का सिलसिला लम्बे समय से चला आ रहा है और संतुलन तभी बना रह सकता है जब इनपुट और आउटपुट बराबर रहे । मगर हमने अपनी प्रगति और सुविधा के लिए इस संतुलन को गहरा धक्का पहुंचाया है ।
हमने ज्यादा से ज्यादा जीवाश्म ईधनों को ऊर्जा के लिए जला डाला, और खुद के लिए और अधिक जगह बनाने के चक्कर में प्रति वर्ष १५ अरब पेड़ काट डाले । कार्बन डाइऑक्साइड एक ग्रीन हाउस गैस है (जो सूरज की रोशनी को धरती पर आने देकर पृथ्वी को गर्म रखती है, लेकिन गर्मी को वापिस आकाश में बिखरने नहीं देती है) इस रूकी हुई गर्मी ने इस ग्रह की जलवायु का नाश करने का काम किया है - पूरी तरह अनिर्वहनीय स्थिति है । इसलिए यह बहुत ही जरूरी है कि पेड़ों को बचाया जाए और वैकल्पिक ईधनों (पवन, सौर, पनबिजली वगैरह) की तरफ ध्यान दिया जाए ।
कुछ क्षेत्रों में जंगल बहुत घने हैं । जैसे ऊपरी बोरीयल या अमेजन के जंगल उष्णकंटिबंधीय जंगलों से कहीं अधिक घने है (प्रति इकाई क्षेत्र में ज्यादा पेड़) । रोचक (और अपेक्षित) बात यह है कि मनुष्यों की जनसंख्या का घनत्व उष्णकंटिबधीय क्षेत्रों में ज्यादा है, जो यह दर्शाता है कि हम पेंड़ों पर कितना ज्यादा निर्भर है । मनुष्य अनिवार्य रूप से पेड़ों पर निर्भर प्रजाति है । तमिल में हाथियों के बारे में कहा जाता है कि एक जीवित (और मौत के बाद भी) हाथी हजार गिन्नियों के बराबर होता है ।
यह बात पेड़ों के बारे में तो और भी सही बैठती है । इस निर्भरता को प्राचीनकाल से ही स्वीकार किया जाता रहा है और कई सभ्यताआें में पेड़ों का आदर किया जाता है और यहां तक कि देवता तक माना जाता है । हिन्दु पुराणों में विश्व की उत्पत्ति समुद्र मंथन से मानी जाती है जिसमे कल्पतरू पेड़ और कामधेनु प्रकट हुए थे । कल्पतरू ने सब कुछ (पौधे, जन्तु और मनुष्य) दिया और कामधेनु सभी आवश्यकताआें की पूर्ति करती है ।
विकासवादी जीव विज्ञान हमें बताता है कि पेड़ और पौधे कैसे आए । जमीनी पौधों की उत्पत्ति का काल ५०-६५ करोड़ सालों पहले का है । और उनकी उत्पत्ति हरे रंग की शैवाल से हुई जो उथले साफ पानी में पनपती थी और सूरज की रोशनी का उपयोग करके वृद्धि के लिए वायुमण्डल की कार्बन डाईऑक्साइड से ऊर्जा उत्पन्न करती थी । इस प्रक्रिया का जो अपशिष्ट उत्पाद वे छोड़ते थे, वह थी ऑक्सीजन गैस । और जब जमीनी पौधों की संख्या बढ़ी, और वे फैलते गए, तो प्रकाश संश्लेषण की क्रिया के फलस्वरूप ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ती गई ।
इसका नकारात्मक पक्ष यह रहा कि समय के साथ ऑक्सीजन में वृद्धि से ऑक्सीकरण की मात्रा बढ़ी और कई जीव इसमें भस्म हो गए । इस ऑक्सीजन विषाक्तता के अलावा समय-समय पर पर्यावरणीय हमलों (उल्काआें और धूमकेतुआें की टक्करों) ने कई जीव-रूपों का सफाया किया और उन्हें जीवाश्म में तबदील कर दिया । इस प्रक्रिया में लकड़ी का कोयला और तेल जैसे पदार्थ बने और जमीन में दफन हो गए । इन्हीं को जीवाश्म ईधन कहते हैं ।
विकासवाद की पहचान है पर्यावरण के साथ अनुकूलन । ऑक्सीजन बढ़ने पर ऑक्सीजन-श्वसन करने वाले जन्तुआें (मनुष्य भी) की उत्पत्ति हुई जो ऑक्सीजन की मदद से भोजन का पाचन करते हैं और उस ऊर्जा के उपयोग से शरीर क्रियाएं चलाते हैं और वृद्धि करते हैं । इस क्रियामें कार्बन डाईऑक्साइड अपशिष्ट के रूप में बाहर निकलती है ।
पौधों और मनुष्य के बीच यह लेन-देन का मामला है । हम पेड़-पौधों के अपशिष्ट पदार्थ (ऑक्सीजन) को लेते है और कार्बन डाईऑक्साइड अपशिष्ट के रूप में बाहर निकालते हैं जबकि पेड़-पौधे इसका उलटा करते हैं । यह लेन-देन का सिलसिला लम्बे समय से चला आ रहा है और संतुलन तभी बना रह सकता है जब इनपुट और आउटपुट बराबर रहे । मगर हमने अपनी प्रगति और सुविधा के लिए इस संतुलन को गहरा धक्का पहुंचाया है ।
हमने ज्यादा से ज्यादा जीवाश्म ईधनों को ऊर्जा के लिए जला डाला, और खुद के लिए और अधिक जगह बनाने के चक्कर में प्रति वर्ष १५ अरब पेड़ काट डाले । कार्बन डाइऑक्साइड एक ग्रीन हाउस गैस है (जो सूरज की रोशनी को धरती पर आने देकर पृथ्वी को गर्म रखती है, लेकिन गर्मी को वापिस आकाश में बिखरने नहीं देती है) इस रूकी हुई गर्मी ने इस ग्रह की जलवायु का नाश करने का काम किया है - पूरी तरह अनिर्वहनीय स्थिति है । इसलिए यह बहुत ही जरूरी है कि पेड़ों को बचाया जाए और वैकल्पिक ईधनों (पवन, सौर, पनबिजली वगैरह) की तरफ ध्यान दिया जाए ।
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