सामयिक
हिमालय का सांस्कृतिक अवदान
कुलभूषण उपमन्यु
हिमालय का हमें जैव विविधता के साथ ही सांस्कृतिक विविधता का भी अवदान है । यहां सदियों से अनेक धर्म फल फूल रहे हैं। इनमें हिन्दू, बौद्ध, जीव वादी बर्मी मत, और एकेश्वर वादी मुस्लिम और इसाई मत प्रमुख हैं ।
सनातन हिन्दू परंपरा, बौद्ध और जीव वादी मतों सबमें आत्मा को मानना और पूजने के अंश विद्यमान हैं। घोर एकेश्वरवादी इस्लाम और इसाई मतों ने इन जीव वादी मतों की निंदा की और घोर विरोध किया । किन्तु हिमालय ने इनको सह अस्तित्व का रास्ता दिखाने का काम किया ।
मनुष्य प्रकृतिमें पैदा होकर, प्रकृति को अपने बुद्धि कौशल द्वारा जीवन को सुंदर और सबके लिए उपयोगी बनाने के लिए संस्कारित करता है तो संस्कृति का विकास होता है और जीवन को अहंकारी एवं पर-पीड़क बनाने के लिए यदि प्रकृति का उपयोग करता है तो विकृति का उदय होता है । संस्कृति के विकास में भौगोलिक और पारिस्थितकीय कारकों का विशेष महत्व रहता है । संस्कृति का स्थूल पक्ष तो भौगोलिक और पारिस्थितिकीय कारकों पर ही ज्यादातर निर्भर करता है ।
समुद्र तटीय, मरुस्थलीय, वन क्षेत्रीय, हिम क्षेत्रीय और उपजाऊ भूमियों में पनपी संस्कृतियों पर इन कारकों का प्रभाव स्पस्ट दृष्टि गोचर होता है । उनके पहनावे, खान पान, कला, साहित्य, त्यौहार, नृत्य, गायन आदि में इसकी झलक मिल जाती है ।
संस्कृति का दूसरा और महत्वपूर्ण पक्ष है उसका सूक्ष्म पक्ष । यह सृष्टि को देखने की दृष्टि के रुप मेंचरितार्थ होता है । इसे किसी भी संस्कृति का मूल कहा जा सकता है । जिस रंग का चश्मा हम लगा लेंगे उसी रंग की सृष्टि दिखाई देगी । जैसी सृष्टि दिखेगी उसी के आधार पर हमारे निर्णय और सोच बनेगी । जिसके आधार पर हमारी संस्कृति का विकास होगा । हिमालय ने संस्कृति के विकास के लिए महत्वपूर्ण इन दोनों कारकों को प्रभावित किया है । स्थूल रुप से हिमालय ने उत्तर ध्रुवीय शीत हवाआें को रोक कर भारत में छ: ऋतुआें के निर्माण में सहायता की ।
ऋतु विविधता से वैचारिक विविधता के लिए उपयुक्त वातावरण का निर्माण किया । सदा-नीरा नदियां दे कर गंगा और सिंध के मैदानों की रचना करके, समृद्ध कृषि संस्कृति और उस पर आधारित कलाआें और हस्त शिल्पों के विकास में योगदान दिया । हिमालय की गोद में ही भारत ही विद्वानों और ऋषियों की मेघा अनुप्राणित हुई ।
हिमालय के वनोंऔर हिमालय से निकली नदियों से अनुप्राणित वन्य प्रदेशों में ही भारतीय संस्कृतिके महान ग्रन्थोंकी रचना हुई । ऐसा मानना है कि उत्तराखण्ड के बदरीवन मेंबादरायण व्यास ने महाभारत ग्रन्थ की रचना की । वनों में रचे जाने के कारण उपनिषद् ग्रन्थों को तो आरण्यक शास्त्र ही कहा जाने लगा । गीता में भगवान् कृष्ण अपनी विभूति वर्णन में कहते हैं ` स्थावराणाम च हिमालय ' स्थिर रहने वालों में मैं हिमालय हूँ । इस तरह हिमालय प्राकृतिक विविधता के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए संस्कृति के विकास का कारक बना । जिसमेंप्रकृति के प्रति श्रद्धा का भाव पैदा हुआ । इससे एक सुक्ष्म दृष्टि का विकास हुआ जिसने एक ऐसा चश्मा दिया जो प्रकृति की क्रि याओ को बिना कोई रंग चढ़ाए अपने असली रुप में देखनें में सक्षम था ।
इसी के फलस्वरुप एक ओर `सत्यं ज्ञानं अनंतम ब्रह्म' का उद्घोष हुआ, दूसरी ओर उस सत्य की खोज की व्यावहारिक गतिविधियां प्रारंभ हुई । इसी के परिणाम स्वरुप बिना आधुनिक उपकरणों के ही सूर्य सिद्धांत जैसे वैज्ञानिक ग्रन्थों की रचना हुई । ज्योतिर्विज्ञान, आयुर्वेद, गणित, आदि विज्ञानों की खोज के साथ शून्य की खोज हुई । भौतिक विज्ञानों की खोज के साथ-साथ सूक्ष्म जगत की और सृष्टि के आदि कारण की खोज प्रारंभ हुई । जिसमें एक चेतन तत्व की अवधारणा की प्रस्थापना हुई जिसे सृष्टि का मूल कारण माना गया । वह चेतना व्यष्टि चेतना के रुप में आत्मा कहलाई, और समष्टि चेतना के रुप में परमात्मा कहलाई । सभी में उस समष्टि चेतना का अंश विद्यमान माना गया । `सर्व खलु इदं ब्रह्म' कह कर उद््घोषणा की गई । जहां भी आत्मा है वह श्रद्धा के योग्य है ।
इसीलिए जड़-चेतन, नदी, पेड़, पहाड़, जीव, जंतु, अग्नि, वायु, सूर्य आदि सभी श्रद्धा के पात्र हो गए, पूज्य हो गए । विष्णु पुराण मेंविष्णु स्वयं कहते है कि `मैने हिमालय की सृष्टि यज्ञ के साधन के लिए की ।' यज्ञ की एक व्याख्या यह भी है कि प्रकृति के उपयोग के कारण होने वाली छीजन की भरपाई करने वाला कार्य यज्ञ है । कपड़ा पहनते है तो कातना-बुनना यज्ञ है, विद्या से जीवन चलाते है तो विद्या दान यज्ञ है यानि ज्ञान यज्ञ, दूसरों के यहां खाते है तो खिलाना भी यज्ञ है और अन्न पैदा करना भी यज्ञ है ।
यानि यज्ञ एक भावना है, प्रकृति और जीवन के प्रति जिम्मेदारी की भावना । स्वयं हिमालय भी मिट्टी निर्माण, जल संरक्षण और जैव विविधता संरक्षण करके छीजन दूर करने का ही कार्य कर रहा है । तो एक तरह से हिमालय हमारी संस्कृति का प्रतीक भी है और हमारे जीवन दर्शन का आधार भी है । यह भगवान शंकर का आवास ही नहीं भगवती पार्वती का पिता भी है । इसे देवात्मा कह कर पुकारा गया ।
हिमालय ने हमें जैव विविधता के साथ सांस्कृ तिक विविधता का भी अवदान दिया है । यहां सदियोंसे अनेक धर्म फल-फूल रहेंहै । इनमें से हिन्दू, बौद्ध, जीव वादी बर्मी मत, और एकेश्वर वादी मुस्लिम और इसाई मत प्रमुख है । सनातन हिन्दू परंपरा, बौद्ध, और जीव वादी मतों सबमें आत्मा को मानना और पूजने के अंश विद्यमान हैं। घोर एकेश्वरवादी इस्लाम और इसाई मतों ने इन जीव वादी मतों की निंदा की और घोर विरोध किया । किन्तु हिमालय ने इनको सह अस्तित्व का रास्ता दिखाने का काम किया । सनातन हिन्दू परंपरा में सबके अंदर एक ईश्वर देखने की जो समझ है इसे एकात्म-सर्वात्म वाद कह सकते है । इस अवधारणा ने प्रकृति के प्रति जिम्मेदार व्यवहार की महत्ता को स्थापित किया । जिसके फलस्वरुप नदी मां हो गई तो अनेक पशु-पक्षी पूज्य होकर संरक्षित हो गए ।
पेड़ पौधों में जीवन की वैज्ञानिक सत्यता को मान्यता दी गई । तुलसी, पीपल, बिल्व, आम, वट, आमला आदि अनेक वृक्ष श्रद्धा के पात्र हो गए । गीता मेंभगवान कृष्ण ने कहा ` वृक्षानाम अश्वत्थो अहं ' इस विविधता के प्रति श्रद्धा ने ही सभी पंथो धर्मोंा के प्रति समदृष्टि प्रदान की । ` एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति ' एक ही ईश्वर को विद्वान लोग अलग-अलग तरह से वर्णन करते है । सहिष्णुता, वैचारिक विविधता की समझ और इसकी सत्यता पर आस्था से ठीक ऐसी भावना पैदा होती है । यही कटुता का मूल कारण बनती है । आज दुनियां को इस भारतीय पंरपरा को आत्मसात करने की बड़ी जरुरत है । किन्तु हम भारतीय परंपरा के ध्वजवाहक स्वयं ही इसके कई पक्षोंको भूल बैठे है या विकृत कर चुके है । खास कर उंच-नीच के भेद बना कर हमने ` सर्व खलु इदं ब्रह्म ' और ` ईशावास्यं इदं सर्वं ' जैसी मौलिक घोषणाआें को ही निरर्थक बनाने का अपराध किया है । विवेकानंद ने अपने समय के आपसी विद्वेष और उंच नीच के भेदोंसे जर्जर समाज के विषय मेंकहा था कि `ये विकृतियां भारतीय संस्कृति के कारण पैदा नहींहुई बल्कि उसको सही तरीके से लागू न करने, गलत व्याख्या और गुलामी के कारण पैदा हुई है ।' यह कथन आज भी काफी हद तक सत्य है । उस एकात्म सर्वात्मवादी संस्कृति को सही अर्थोंा में अपना कर सहिष्णु समतावादी समाज की रचना की जा सकती है । साथ साथ जीवनदायिनी प्रकिृति मां की संभाल भी की जा सकती है । यही विचार, टिकाउ विकास को हासिल करने का मार्ग भी प्रशस्त करेगा । ***
हिमालय का सांस्कृतिक अवदान
कुलभूषण उपमन्यु
हिमालय का हमें जैव विविधता के साथ ही सांस्कृतिक विविधता का भी अवदान है । यहां सदियों से अनेक धर्म फल फूल रहे हैं। इनमें हिन्दू, बौद्ध, जीव वादी बर्मी मत, और एकेश्वर वादी मुस्लिम और इसाई मत प्रमुख हैं ।
सनातन हिन्दू परंपरा, बौद्ध और जीव वादी मतों सबमें आत्मा को मानना और पूजने के अंश विद्यमान हैं। घोर एकेश्वरवादी इस्लाम और इसाई मतों ने इन जीव वादी मतों की निंदा की और घोर विरोध किया । किन्तु हिमालय ने इनको सह अस्तित्व का रास्ता दिखाने का काम किया ।
मनुष्य प्रकृतिमें पैदा होकर, प्रकृति को अपने बुद्धि कौशल द्वारा जीवन को सुंदर और सबके लिए उपयोगी बनाने के लिए संस्कारित करता है तो संस्कृति का विकास होता है और जीवन को अहंकारी एवं पर-पीड़क बनाने के लिए यदि प्रकृति का उपयोग करता है तो विकृति का उदय होता है । संस्कृति के विकास में भौगोलिक और पारिस्थितकीय कारकों का विशेष महत्व रहता है । संस्कृति का स्थूल पक्ष तो भौगोलिक और पारिस्थितिकीय कारकों पर ही ज्यादातर निर्भर करता है ।
समुद्र तटीय, मरुस्थलीय, वन क्षेत्रीय, हिम क्षेत्रीय और उपजाऊ भूमियों में पनपी संस्कृतियों पर इन कारकों का प्रभाव स्पस्ट दृष्टि गोचर होता है । उनके पहनावे, खान पान, कला, साहित्य, त्यौहार, नृत्य, गायन आदि में इसकी झलक मिल जाती है ।
संस्कृति का दूसरा और महत्वपूर्ण पक्ष है उसका सूक्ष्म पक्ष । यह सृष्टि को देखने की दृष्टि के रुप मेंचरितार्थ होता है । इसे किसी भी संस्कृति का मूल कहा जा सकता है । जिस रंग का चश्मा हम लगा लेंगे उसी रंग की सृष्टि दिखाई देगी । जैसी सृष्टि दिखेगी उसी के आधार पर हमारे निर्णय और सोच बनेगी । जिसके आधार पर हमारी संस्कृति का विकास होगा । हिमालय ने संस्कृति के विकास के लिए महत्वपूर्ण इन दोनों कारकों को प्रभावित किया है । स्थूल रुप से हिमालय ने उत्तर ध्रुवीय शीत हवाआें को रोक कर भारत में छ: ऋतुआें के निर्माण में सहायता की ।
ऋतु विविधता से वैचारिक विविधता के लिए उपयुक्त वातावरण का निर्माण किया । सदा-नीरा नदियां दे कर गंगा और सिंध के मैदानों की रचना करके, समृद्ध कृषि संस्कृति और उस पर आधारित कलाआें और हस्त शिल्पों के विकास में योगदान दिया । हिमालय की गोद में ही भारत ही विद्वानों और ऋषियों की मेघा अनुप्राणित हुई ।
हिमालय के वनोंऔर हिमालय से निकली नदियों से अनुप्राणित वन्य प्रदेशों में ही भारतीय संस्कृतिके महान ग्रन्थोंकी रचना हुई । ऐसा मानना है कि उत्तराखण्ड के बदरीवन मेंबादरायण व्यास ने महाभारत ग्रन्थ की रचना की । वनों में रचे जाने के कारण उपनिषद् ग्रन्थों को तो आरण्यक शास्त्र ही कहा जाने लगा । गीता में भगवान् कृष्ण अपनी विभूति वर्णन में कहते हैं ` स्थावराणाम च हिमालय ' स्थिर रहने वालों में मैं हिमालय हूँ । इस तरह हिमालय प्राकृतिक विविधता के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए संस्कृति के विकास का कारक बना । जिसमेंप्रकृति के प्रति श्रद्धा का भाव पैदा हुआ । इससे एक सुक्ष्म दृष्टि का विकास हुआ जिसने एक ऐसा चश्मा दिया जो प्रकृति की क्रि याओ को बिना कोई रंग चढ़ाए अपने असली रुप में देखनें में सक्षम था ।
इसी के फलस्वरुप एक ओर `सत्यं ज्ञानं अनंतम ब्रह्म' का उद्घोष हुआ, दूसरी ओर उस सत्य की खोज की व्यावहारिक गतिविधियां प्रारंभ हुई । इसी के परिणाम स्वरुप बिना आधुनिक उपकरणों के ही सूर्य सिद्धांत जैसे वैज्ञानिक ग्रन्थों की रचना हुई । ज्योतिर्विज्ञान, आयुर्वेद, गणित, आदि विज्ञानों की खोज के साथ शून्य की खोज हुई । भौतिक विज्ञानों की खोज के साथ-साथ सूक्ष्म जगत की और सृष्टि के आदि कारण की खोज प्रारंभ हुई । जिसमें एक चेतन तत्व की अवधारणा की प्रस्थापना हुई जिसे सृष्टि का मूल कारण माना गया । वह चेतना व्यष्टि चेतना के रुप में आत्मा कहलाई, और समष्टि चेतना के रुप में परमात्मा कहलाई । सभी में उस समष्टि चेतना का अंश विद्यमान माना गया । `सर्व खलु इदं ब्रह्म' कह कर उद््घोषणा की गई । जहां भी आत्मा है वह श्रद्धा के योग्य है ।
इसीलिए जड़-चेतन, नदी, पेड़, पहाड़, जीव, जंतु, अग्नि, वायु, सूर्य आदि सभी श्रद्धा के पात्र हो गए, पूज्य हो गए । विष्णु पुराण मेंविष्णु स्वयं कहते है कि `मैने हिमालय की सृष्टि यज्ञ के साधन के लिए की ।' यज्ञ की एक व्याख्या यह भी है कि प्रकृति के उपयोग के कारण होने वाली छीजन की भरपाई करने वाला कार्य यज्ञ है । कपड़ा पहनते है तो कातना-बुनना यज्ञ है, विद्या से जीवन चलाते है तो विद्या दान यज्ञ है यानि ज्ञान यज्ञ, दूसरों के यहां खाते है तो खिलाना भी यज्ञ है और अन्न पैदा करना भी यज्ञ है ।
यानि यज्ञ एक भावना है, प्रकृति और जीवन के प्रति जिम्मेदारी की भावना । स्वयं हिमालय भी मिट्टी निर्माण, जल संरक्षण और जैव विविधता संरक्षण करके छीजन दूर करने का ही कार्य कर रहा है । तो एक तरह से हिमालय हमारी संस्कृति का प्रतीक भी है और हमारे जीवन दर्शन का आधार भी है । यह भगवान शंकर का आवास ही नहीं भगवती पार्वती का पिता भी है । इसे देवात्मा कह कर पुकारा गया ।
हिमालय ने हमें जैव विविधता के साथ सांस्कृ तिक विविधता का भी अवदान दिया है । यहां सदियोंसे अनेक धर्म फल-फूल रहेंहै । इनमें से हिन्दू, बौद्ध, जीव वादी बर्मी मत, और एकेश्वर वादी मुस्लिम और इसाई मत प्रमुख है । सनातन हिन्दू परंपरा, बौद्ध, और जीव वादी मतों सबमें आत्मा को मानना और पूजने के अंश विद्यमान हैं। घोर एकेश्वरवादी इस्लाम और इसाई मतों ने इन जीव वादी मतों की निंदा की और घोर विरोध किया । किन्तु हिमालय ने इनको सह अस्तित्व का रास्ता दिखाने का काम किया । सनातन हिन्दू परंपरा में सबके अंदर एक ईश्वर देखने की जो समझ है इसे एकात्म-सर्वात्म वाद कह सकते है । इस अवधारणा ने प्रकृति के प्रति जिम्मेदार व्यवहार की महत्ता को स्थापित किया । जिसके फलस्वरुप नदी मां हो गई तो अनेक पशु-पक्षी पूज्य होकर संरक्षित हो गए ।
पेड़ पौधों में जीवन की वैज्ञानिक सत्यता को मान्यता दी गई । तुलसी, पीपल, बिल्व, आम, वट, आमला आदि अनेक वृक्ष श्रद्धा के पात्र हो गए । गीता मेंभगवान कृष्ण ने कहा ` वृक्षानाम अश्वत्थो अहं ' इस विविधता के प्रति श्रद्धा ने ही सभी पंथो धर्मोंा के प्रति समदृष्टि प्रदान की । ` एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति ' एक ही ईश्वर को विद्वान लोग अलग-अलग तरह से वर्णन करते है । सहिष्णुता, वैचारिक विविधता की समझ और इसकी सत्यता पर आस्था से ठीक ऐसी भावना पैदा होती है । यही कटुता का मूल कारण बनती है । आज दुनियां को इस भारतीय पंरपरा को आत्मसात करने की बड़ी जरुरत है । किन्तु हम भारतीय परंपरा के ध्वजवाहक स्वयं ही इसके कई पक्षोंको भूल बैठे है या विकृत कर चुके है । खास कर उंच-नीच के भेद बना कर हमने ` सर्व खलु इदं ब्रह्म ' और ` ईशावास्यं इदं सर्वं ' जैसी मौलिक घोषणाआें को ही निरर्थक बनाने का अपराध किया है । विवेकानंद ने अपने समय के आपसी विद्वेष और उंच नीच के भेदोंसे जर्जर समाज के विषय मेंकहा था कि `ये विकृतियां भारतीय संस्कृति के कारण पैदा नहींहुई बल्कि उसको सही तरीके से लागू न करने, गलत व्याख्या और गुलामी के कारण पैदा हुई है ।' यह कथन आज भी काफी हद तक सत्य है । उस एकात्म सर्वात्मवादी संस्कृति को सही अर्थोंा में अपना कर सहिष्णु समतावादी समाज की रचना की जा सकती है । साथ साथ जीवनदायिनी प्रकिृति मां की संभाल भी की जा सकती है । यही विचार, टिकाउ विकास को हासिल करने का मार्ग भी प्रशस्त करेगा । ***
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें