विशेष लेख
शिक्षा व्यवस्था पर पुनर्विचार की जरुरत
फैज कुरैशी
शिक्षा तंत्र की विशालता और गिरती हुई साख के बीच की कड़ी शिक्षक है । अपने दैनंदिनी अनुभवों में शिक्षक और शिक्षण से जुड़े कुछ पूर्वाग्रहों से जूझ रहे है । खोती हुई साख और बच्चें के अकादमिक स्तर को बढ़ाने के लिए प्रयास किये जाने की जरुरत है । वही कुछ नीतिगत बदलाव के बारे मेंभी सोचा जाना चाहिए ।
देश की सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था दुनिया की सबसे बड़ी और जटिल व्यवस्थाआें में से एक है । यहाँ प्रति सवा किलोमीटर पर एक विद्यालय मौजूद है । आंकड़ो के मुताबिक इस व्यवस्था में १५ लाख २२ हजार तीन सौ छियालीस स्कूल है, जिनमें २५ करोड़ ९४ लाख ६८ हजार बच्च्े अध्ययन करते है । इन्हें सीखने में मदद के लिए है ८६ लाख ९१ हजार नौ सौ बाइस शिक्षक । शिक्षा व्यवस्था की ये संख्या कई देशों की कुल जनसंख्या के बराबर है । संख्या की दृष्टि से इतना विशाल तंत्र हमेंविस्मित और गौरवान्वित भी करता है ।
` वर्ल्ड डेवेलपमेंट रिपोर्ट ' २०१८-लर्निंग टू रियलाइज एजुकेशंस प्रॉमिस द्वारा जारी की गई दुनिया के बदतर शिक्षा व्यवस्था वाले १२ देशोंकी सूची में भारत दूसरे स्थान पर है । वहां २०१६ में प्रकाशित असर रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रोंमें कक्षा ५ के ५२२ प्रतिशत और कक्षा ८ के २७ प्रतिशत बच्च्े कक्षा २ के स्तर का पाठ नहीं पढ़ पाते । कक्षा ५ के ७५.४ प्रतिशत बच्चें को घटाना और ७४.१ प्रतिशत बच्चें को भाग देना नहीं आता । यही हालत कक्षा ८ के भी है जहां ७६.८ प्रतिशत बच्च्ें घटाना तो ५६.८ प्रतिशत बच्च्े भाग देना नहीं जानते ।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय के २०१४-१५ के आंकड़ो के अनुसार भारत में प्राथमिक स्तर तथा उच्च् प्राथमिक स्तर पर छात्र शिक्षक अनुपात क्रमश: २४ व १७ दिखता है, जो कि समग्रता मेंदेखने पर बेहतर लगता है । मगर राज्य, जिला और ब्लॉक स्तर पर ये अनुपात अलग ही शक्ल लेते हैं । यह जानकर आश्चर्य होगा कि अधिकतर स्कूलों में विषयवार शिक्षक उपलब्ध ही नहीं है । पिछले दिनोंमध्यप्रदेश विधानसभा में पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर मेंशिक्षा मंत्री ने स्वीकार किया कि प्रदेश के ३५५३ प्राथमिक, ५१६२ माध्यमिक, १०९१ हाई व हायर सेकेंड्री विद्यालय शिक्षक विहीन है । आरटीई-०९ के मुताबिक प्रदेश के विद्यालयोंमें ६३८५१ शिक्षकों की कमी बनी हुई है । स्कूलोंमें बच्चें के लिए शैक्षिक प्रक्रियाएं करनी होती है जो विशेषज्ञता की मांग करती है लेकिन स्कूल की व्यवहारिक परिस्थितियोंमें सामाजिक विज्ञान विषय के शिक्षक को हिंदी/संस्कृत पढ़ाना पड़ता है । इसी तरह गणित विषय के लिए नियुक्त शिक्षकोंके बारे मेंधारणा होती है कि इनकी विज्ञान विषय पर समझ तो अच्छी ही होगी । कितनी ही विशेषज्ञ शिक्षक हो वे २-३ विषयों पर एक साथ समान अधिकार रखते हुए अपेक्षित शैक्षिक प्रक्रियाएं नहीं कर पाते है, तब प्रतिफल को कैसेदेखा जाए । यहाँ शिक्षकों की कार्यक्षमता, काबिलियत, शिक्षण पद्धति, आदि पर प्रश्न नहीं उठाया जा रहा है ।
शिक्षा तंत्र की विशालता और गिरती हुई साख के बीच की कड़ी शिक्षक ही है । अपने दैनंदिनी अनुभवों में शिक्षक और शिक्षण से जुडे कुछ पूर्वाग्रह जैसे सरकारी स्कूल मेंतो पढ़ाई ही नहीं होती, शिक्षक काम ही नही करते, ये पढ़ाना ही नही चाहते आदि को कहते आ रहे है । खोती हुई साख को समझने और बच्चें के अकादमिक स्तर को बढ़ाने के लिए कुछ पहलुआेंका विश्लेषण करने का प्रयास किया है । इसके केंद्र में कुछ प्रश्न उभरते है जिनमें इतना विशाल और संगठित तंत्र होने के बावजूद बच्च्े क्यों अपेक्षित स्तर का सीख नहीं पा रहे हैं ? क्यों सरकारी स्कूलोंसे बच्च्े निजी स्कूलोंमें दाखिला ले रहे हैं ? क्यों शासकीय स्कूलबंद होते जा रहे है ? आदि । वैसे तो इन सवालों के जवाब आपस में गूंथे हुए है और वे अवसरोंकी उपलब्धता के अलावा शिक्षक और तंत्र की जटिलता पर निर्भर करते हैं ।
पिछले कुछ वर्षोंा तथा वर्तमान में भी मध्यप्रदेश के शिक्षक किसी एक शिक्षण सत्र में शिक्षण के साथ या अतिरिक्त तौर पर बूथ लेवल ऑफिसर, विविध सर्वे, पशु गणना आदि में ३ माह से अधिक समय के लिए व्यस्त रहे है । आमतौर पर ये ३-६ माह एक साथ नहीं होते, अंतरालों में होते हैं । इससे अनियमितता की स्थिति पैदा होती है, जो सीखने-सिखाने को बाधित करती है ।
यदि शिक्षकों का अपने विद्यालय क्षेत्र के अलावा अन्य इलाकों में काम को करना होता है (जो कि अधिकतम शिक्षक कर रहे है ) तो वह अपने मूल का याने शिक्षण कार्य को नही कर पाते है । इसके अतिरिक्त समग्र आईडी, आधार कार्ड वेरीफिकेशन, जाति प्रमाण-पत्र, स्वच्छता अभियान, कुम्भ या बड़े उत्सवों में ड्यूटी जैसे कुछ और काम इसमें जोड़ लेना चाहिए ।
यह तो थी स्कूल के बाहर के कुछ कामोंकी बानगी । लेकिन स्कूल के भीतर किये जाने वाले शैक्षिक कामोंके अलावा मध्यान्ह भोजन, यूनिफार्म, किताबें वितरण, छात्रवृत्ति, विविध पत्रक, हिसाब-किताब रखना आदि जैसे भी काम भी शिक्षक के जिम्मे हैंही । इसके अलावा प्रवेशोत्सव पुस्ताकोत्सव, शालेय खेल और ३ से १५ दिवसीय प्रशिक्षण आदि, जो विविध अंतरालों पर चलते ही रहते है । क्या इन सब परिस्थितियों में २२० दिन (आरटीई-०९ के मान से) नियमित रुप से किसी शिक्षक का शिक्षण कार्य करना संभव हो पाता होगा ?
वैसे शिक्षा का अधिकार कानून २००९ (आरटीई-०९) के अंतर्गत प्रारंभिक शिक्षा मेंशिक्षकों के शैक्षणिक कार्य के लिए कक्षा पहली से पांचवी तक एक शैक्षणिक वर्ष में ८०० घंटे तथा छठवीं से कार्यदिवस का प्रावधान है । इसके बरअक्स आरटीई-०९ की धारा २७ के अनुसार `किसी शिक्षक को दस वर्षीय जनगणना, आपदा राहत कर्तव्यों या यथास्थिति, स्थानीय प्राधिकारी या राज्य पा राज्य विधान मंडलों या संसद के निर्वाचन से सम्बंधित कर्तव्यों से भिन्न किसी गैर-शैक्षणिक प्रयोजनों के लिए अभियोजित नहीं किया जाएगा । '
इस विश्लेषण में एक जटिलता और है । ये जटिलता बच्चें व पाठ्यपुस्तक की भाषा, पढ़ाने के तौर तरीकोंव जीवन से कटाव वाले सन्दर्भोंा से बनती है जैसे पाठ्यपुस्तक की हिंदी (जो अधिकतम बच्चें की मातृभाषा नहीं है, में अध्ययन करना), अमूर्त गणितीय संकल्पनाएँ जो परिवेश से जुड़ती दिखाई नहीं देती, अंग्रेजी व संस्कृत भाषा जो परिवेश में उपयोग नही की जाती, बगैर संदर्भोंा व नए परिभाषिक शब्दों में पर्यावरण अध्ययन पढ़ना, माध्यमिक स्तर पर सामाजिक विज्ञान जिसमें इतिहास, भूगोल, नागरिक शास्त्र शामिल है और विज्ञान विषय को रटना या याद करने जैसी प्रक्रियाआें से गुजरना । इस जटिलता से गुजरते हुए बच्च्े जब घर पहुँचते है तो घरों पर अकादमिक सहयोग की अपेक्षा बेमानी ही लगती है । ये तमाम चीज़ेंशैक्षिक उपलब्धियों पर प्रतिकूल असर डालते ही होगी ।
अब हम आरटीई-०९ के २५ प्रतिशत आरक्षण वाले नियम की भी व्यावहारिक स्थिति को परख लेते है । यह नियम संभव्त: बड़े शहरों में वंचित वर्ग के बच्चें को समान अवसर उपलब्ध कराने के नजरिए से बनाया होगा । इसके तहत बड़े/महंगे निजी विद्यालयों में पहुंचे छात्रों और पालको के अनुभव यूनिफार्म, पिकनिक, रोज का टिफिन, स्कूलोंकी संस्कृति, व्यवहार आदि को लेकर नकारात्मक अनुभव सामने आते है । इस नियम के बारे मेंवामपंथी शिक्षाशास्त्री ने एक विमर्श में कहा था `इससे हम शिक्षा के निजीकरण और सरकारी स्कूलोंको बंद करने के दरवाजे खोल रहे है ' ।
इनका यह कथन आंकड़ो के मान से सत्य परिलक्षित होता दिखता है । २०१५-२०१६ के मुताबिक मध्यप्रदेश मेंवर्ष २०१०-२०११ में १११९४३ शासकीय तो २३७१० निजी विद्यालय थे, वहीं वर्ष २०१५-१६ में यह आंकड़ा ११४४६५ तथा २७१९४ हो गया है । इस काम में अजीब स्थिति ये है कि स्कूल के केचमेंट एरिया से सरकारी स्कूलोंमें आ सकने वाले बच्चें को शासकीय शिक्षकों को ही नियम के तहत निजी स्कूलोंमें भेजने की प्रक्रियाकरनी होती है । उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक वर्ष में२०१०-११ में २० या उससे कम छात्रों वाले ३५७७ विद्यालय थे, जो कि २०१५-१६ में बढ़ कर ११६२५ हो गए यानी आरटीई ०९ के लागू होने के बाद सरकारी स्कूल लगातार खाली हो रहे और आने वाले समय मेंये स्कूल जल्द ही बंद होने की स्थिति मेंहोंगे ।
वर्तमान शिक्षा के परिदृश्य को देखते हुए आने वाले समय में सरकारी स्कूलों का अस्तित्व संकट में दिखता है । सरकारी और निजी स्कूलोंमें बच्चें के शैक्षिक स्थितियां एक समान है, ऐसे मेंनीतिगत मुद्दों पर पुनर्विचार करने की जरुरत होगी, जिससे बच्चें को शिक्षा के अधिकार से वंचित होने की स्थिति से बचाया जा सकेगा । ***
शिक्षा व्यवस्था पर पुनर्विचार की जरुरत
फैज कुरैशी
शिक्षा तंत्र की विशालता और गिरती हुई साख के बीच की कड़ी शिक्षक है । अपने दैनंदिनी अनुभवों में शिक्षक और शिक्षण से जुड़े कुछ पूर्वाग्रहों से जूझ रहे है । खोती हुई साख और बच्चें के अकादमिक स्तर को बढ़ाने के लिए प्रयास किये जाने की जरुरत है । वही कुछ नीतिगत बदलाव के बारे मेंभी सोचा जाना चाहिए ।
देश की सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था दुनिया की सबसे बड़ी और जटिल व्यवस्थाआें में से एक है । यहाँ प्रति सवा किलोमीटर पर एक विद्यालय मौजूद है । आंकड़ो के मुताबिक इस व्यवस्था में १५ लाख २२ हजार तीन सौ छियालीस स्कूल है, जिनमें २५ करोड़ ९४ लाख ६८ हजार बच्च्े अध्ययन करते है । इन्हें सीखने में मदद के लिए है ८६ लाख ९१ हजार नौ सौ बाइस शिक्षक । शिक्षा व्यवस्था की ये संख्या कई देशों की कुल जनसंख्या के बराबर है । संख्या की दृष्टि से इतना विशाल तंत्र हमेंविस्मित और गौरवान्वित भी करता है ।
` वर्ल्ड डेवेलपमेंट रिपोर्ट ' २०१८-लर्निंग टू रियलाइज एजुकेशंस प्रॉमिस द्वारा जारी की गई दुनिया के बदतर शिक्षा व्यवस्था वाले १२ देशोंकी सूची में भारत दूसरे स्थान पर है । वहां २०१६ में प्रकाशित असर रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रोंमें कक्षा ५ के ५२२ प्रतिशत और कक्षा ८ के २७ प्रतिशत बच्च्े कक्षा २ के स्तर का पाठ नहीं पढ़ पाते । कक्षा ५ के ७५.४ प्रतिशत बच्चें को घटाना और ७४.१ प्रतिशत बच्चें को भाग देना नहीं आता । यही हालत कक्षा ८ के भी है जहां ७६.८ प्रतिशत बच्च्ें घटाना तो ५६.८ प्रतिशत बच्च्े भाग देना नहीं जानते ।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय के २०१४-१५ के आंकड़ो के अनुसार भारत में प्राथमिक स्तर तथा उच्च् प्राथमिक स्तर पर छात्र शिक्षक अनुपात क्रमश: २४ व १७ दिखता है, जो कि समग्रता मेंदेखने पर बेहतर लगता है । मगर राज्य, जिला और ब्लॉक स्तर पर ये अनुपात अलग ही शक्ल लेते हैं । यह जानकर आश्चर्य होगा कि अधिकतर स्कूलों में विषयवार शिक्षक उपलब्ध ही नहीं है । पिछले दिनोंमध्यप्रदेश विधानसभा में पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर मेंशिक्षा मंत्री ने स्वीकार किया कि प्रदेश के ३५५३ प्राथमिक, ५१६२ माध्यमिक, १०९१ हाई व हायर सेकेंड्री विद्यालय शिक्षक विहीन है । आरटीई-०९ के मुताबिक प्रदेश के विद्यालयोंमें ६३८५१ शिक्षकों की कमी बनी हुई है । स्कूलोंमें बच्चें के लिए शैक्षिक प्रक्रियाएं करनी होती है जो विशेषज्ञता की मांग करती है लेकिन स्कूल की व्यवहारिक परिस्थितियोंमें सामाजिक विज्ञान विषय के शिक्षक को हिंदी/संस्कृत पढ़ाना पड़ता है । इसी तरह गणित विषय के लिए नियुक्त शिक्षकोंके बारे मेंधारणा होती है कि इनकी विज्ञान विषय पर समझ तो अच्छी ही होगी । कितनी ही विशेषज्ञ शिक्षक हो वे २-३ विषयों पर एक साथ समान अधिकार रखते हुए अपेक्षित शैक्षिक प्रक्रियाएं नहीं कर पाते है, तब प्रतिफल को कैसेदेखा जाए । यहाँ शिक्षकों की कार्यक्षमता, काबिलियत, शिक्षण पद्धति, आदि पर प्रश्न नहीं उठाया जा रहा है ।
शिक्षा तंत्र की विशालता और गिरती हुई साख के बीच की कड़ी शिक्षक ही है । अपने दैनंदिनी अनुभवों में शिक्षक और शिक्षण से जुडे कुछ पूर्वाग्रह जैसे सरकारी स्कूल मेंतो पढ़ाई ही नहीं होती, शिक्षक काम ही नही करते, ये पढ़ाना ही नही चाहते आदि को कहते आ रहे है । खोती हुई साख को समझने और बच्चें के अकादमिक स्तर को बढ़ाने के लिए कुछ पहलुआेंका विश्लेषण करने का प्रयास किया है । इसके केंद्र में कुछ प्रश्न उभरते है जिनमें इतना विशाल और संगठित तंत्र होने के बावजूद बच्च्े क्यों अपेक्षित स्तर का सीख नहीं पा रहे हैं ? क्यों सरकारी स्कूलोंसे बच्च्े निजी स्कूलोंमें दाखिला ले रहे हैं ? क्यों शासकीय स्कूलबंद होते जा रहे है ? आदि । वैसे तो इन सवालों के जवाब आपस में गूंथे हुए है और वे अवसरोंकी उपलब्धता के अलावा शिक्षक और तंत्र की जटिलता पर निर्भर करते हैं ।
पिछले कुछ वर्षोंा तथा वर्तमान में भी मध्यप्रदेश के शिक्षक किसी एक शिक्षण सत्र में शिक्षण के साथ या अतिरिक्त तौर पर बूथ लेवल ऑफिसर, विविध सर्वे, पशु गणना आदि में ३ माह से अधिक समय के लिए व्यस्त रहे है । आमतौर पर ये ३-६ माह एक साथ नहीं होते, अंतरालों में होते हैं । इससे अनियमितता की स्थिति पैदा होती है, जो सीखने-सिखाने को बाधित करती है ।
यदि शिक्षकों का अपने विद्यालय क्षेत्र के अलावा अन्य इलाकों में काम को करना होता है (जो कि अधिकतम शिक्षक कर रहे है ) तो वह अपने मूल का याने शिक्षण कार्य को नही कर पाते है । इसके अतिरिक्त समग्र आईडी, आधार कार्ड वेरीफिकेशन, जाति प्रमाण-पत्र, स्वच्छता अभियान, कुम्भ या बड़े उत्सवों में ड्यूटी जैसे कुछ और काम इसमें जोड़ लेना चाहिए ।
यह तो थी स्कूल के बाहर के कुछ कामोंकी बानगी । लेकिन स्कूल के भीतर किये जाने वाले शैक्षिक कामोंके अलावा मध्यान्ह भोजन, यूनिफार्म, किताबें वितरण, छात्रवृत्ति, विविध पत्रक, हिसाब-किताब रखना आदि जैसे भी काम भी शिक्षक के जिम्मे हैंही । इसके अलावा प्रवेशोत्सव पुस्ताकोत्सव, शालेय खेल और ३ से १५ दिवसीय प्रशिक्षण आदि, जो विविध अंतरालों पर चलते ही रहते है । क्या इन सब परिस्थितियों में २२० दिन (आरटीई-०९ के मान से) नियमित रुप से किसी शिक्षक का शिक्षण कार्य करना संभव हो पाता होगा ?
वैसे शिक्षा का अधिकार कानून २००९ (आरटीई-०९) के अंतर्गत प्रारंभिक शिक्षा मेंशिक्षकों के शैक्षणिक कार्य के लिए कक्षा पहली से पांचवी तक एक शैक्षणिक वर्ष में ८०० घंटे तथा छठवीं से कार्यदिवस का प्रावधान है । इसके बरअक्स आरटीई-०९ की धारा २७ के अनुसार `किसी शिक्षक को दस वर्षीय जनगणना, आपदा राहत कर्तव्यों या यथास्थिति, स्थानीय प्राधिकारी या राज्य पा राज्य विधान मंडलों या संसद के निर्वाचन से सम्बंधित कर्तव्यों से भिन्न किसी गैर-शैक्षणिक प्रयोजनों के लिए अभियोजित नहीं किया जाएगा । '
इस विश्लेषण में एक जटिलता और है । ये जटिलता बच्चें व पाठ्यपुस्तक की भाषा, पढ़ाने के तौर तरीकोंव जीवन से कटाव वाले सन्दर्भोंा से बनती है जैसे पाठ्यपुस्तक की हिंदी (जो अधिकतम बच्चें की मातृभाषा नहीं है, में अध्ययन करना), अमूर्त गणितीय संकल्पनाएँ जो परिवेश से जुड़ती दिखाई नहीं देती, अंग्रेजी व संस्कृत भाषा जो परिवेश में उपयोग नही की जाती, बगैर संदर्भोंा व नए परिभाषिक शब्दों में पर्यावरण अध्ययन पढ़ना, माध्यमिक स्तर पर सामाजिक विज्ञान जिसमें इतिहास, भूगोल, नागरिक शास्त्र शामिल है और विज्ञान विषय को रटना या याद करने जैसी प्रक्रियाआें से गुजरना । इस जटिलता से गुजरते हुए बच्च्े जब घर पहुँचते है तो घरों पर अकादमिक सहयोग की अपेक्षा बेमानी ही लगती है । ये तमाम चीज़ेंशैक्षिक उपलब्धियों पर प्रतिकूल असर डालते ही होगी ।
अब हम आरटीई-०९ के २५ प्रतिशत आरक्षण वाले नियम की भी व्यावहारिक स्थिति को परख लेते है । यह नियम संभव्त: बड़े शहरों में वंचित वर्ग के बच्चें को समान अवसर उपलब्ध कराने के नजरिए से बनाया होगा । इसके तहत बड़े/महंगे निजी विद्यालयों में पहुंचे छात्रों और पालको के अनुभव यूनिफार्म, पिकनिक, रोज का टिफिन, स्कूलोंकी संस्कृति, व्यवहार आदि को लेकर नकारात्मक अनुभव सामने आते है । इस नियम के बारे मेंवामपंथी शिक्षाशास्त्री ने एक विमर्श में कहा था `इससे हम शिक्षा के निजीकरण और सरकारी स्कूलोंको बंद करने के दरवाजे खोल रहे है ' ।
इनका यह कथन आंकड़ो के मान से सत्य परिलक्षित होता दिखता है । २०१५-२०१६ के मुताबिक मध्यप्रदेश मेंवर्ष २०१०-२०११ में १११९४३ शासकीय तो २३७१० निजी विद्यालय थे, वहीं वर्ष २०१५-१६ में यह आंकड़ा ११४४६५ तथा २७१९४ हो गया है । इस काम में अजीब स्थिति ये है कि स्कूल के केचमेंट एरिया से सरकारी स्कूलोंमें आ सकने वाले बच्चें को शासकीय शिक्षकों को ही नियम के तहत निजी स्कूलोंमें भेजने की प्रक्रियाकरनी होती है । उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक वर्ष में२०१०-११ में २० या उससे कम छात्रों वाले ३५७७ विद्यालय थे, जो कि २०१५-१६ में बढ़ कर ११६२५ हो गए यानी आरटीई ०९ के लागू होने के बाद सरकारी स्कूल लगातार खाली हो रहे और आने वाले समय मेंये स्कूल जल्द ही बंद होने की स्थिति मेंहोंगे ।
वर्तमान शिक्षा के परिदृश्य को देखते हुए आने वाले समय में सरकारी स्कूलों का अस्तित्व संकट में दिखता है । सरकारी और निजी स्कूलोंमें बच्चें के शैक्षिक स्थितियां एक समान है, ऐसे मेंनीतिगत मुद्दों पर पुनर्विचार करने की जरुरत होगी, जिससे बच्चें को शिक्षा के अधिकार से वंचित होने की स्थिति से बचाया जा सकेगा । ***
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