शुक्रवार, 16 फ़रवरी 2018

ज्ञान विज्ञान
वैज्ञानिकों ने पहली बार बनाया बंदरों का क्लोन
वैज्ञानिकों ने पहली बार बंदरों का क्लोन तैयार करने में सफलता हासिल कर ली है । इस सफलता को इंसानो का क्लोन तैयार करने की दिशा में बेहद अहम माना जा रहा है, क्योंकि बंदरो की शारीरिक संरचना इंसानों से काफी मिलती-जुलती है । इस वजह से ही क्लोनिंग के लिए बंदरों को चुना गया । प्रयोग सफल होने के बाद चीन के वैज्ञानिकों ने कहा है कि अब उन्हें भरोसा है के जल्द ही इंसानों का क्लोन भी तैयार किया जा सकेगा । इंसानों की क्लोनिंग की टेक्नोलॉजी मिलने पर अल्जाइमर, पार्किंसन जैसी बीमारियों का इलाज भी पहले से आसान हो सकेगा ।
क्लोनिंग के लिए वैज्ञानिकों ने डॉली-द शीप टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया और डीएनए की कार्बन कॉपी करके क्लोनिंग तैयार की । क्लोनिंग करने वाली श्ंाघाई की रिसर्च टीम को लीड करने वाली डॉक्टर मु मिंग पू ने बताया - `बंदरों की शारीरिक संरचना इंसानों से सबसे ज्यादा मिलती-जुलती है । अब चूंकि हमने बंदरों की क्लोनिंग कर ली है, तो जाहिर है हम इंसानों का क्लोन तैयार करने की दिशा में भी आगे बढ़ गए है । टेक्नोलॉजी के लिहाज से अब कोई बेरियर नहीं बचा ।' वैज्ञानिको ने झोंग झोंग नाम केे एक बंदर का क्लोन तैयार किया । इसका नाम हुआ हुआ रखा । हालांकि ब्रिटिश वैज्ञानिक इस डेवलेपमेंट से ज्यादा सहमत नहीं हैं । ह्यूमन जेनेटिक अलर्ट ग्रुप के डॉ. डेविड किंग कहते है - ` ह्यूमन क्लोनिंग ऐसी टेक्नोलॉजी है जिसका आसानी से गलत इस्तेमाल किया जा सकेगा ।' हालांकि क्लोनिंग तैयार करने वाले चीन के वैज्ञानिक ऐसा नहीं मानते । वो कहते है कि - क्लोनिंग टेक्नोलॉजी का सबसे बेहर इस्तेमाल मेडिकल फील्ड में किया जा सकेगा । दोनो बंदर अब फिट है । इन्हें अभी मेडिकल सुपरविजन में ही रखा जा रहा है ।
सबसे पहले १९९७ में किसी जिंदा स्पेसीज का क्लोन तैयार किया गया था । स्कॉटलैंड के वैज्ञानिकोंने एक भेड़ का क्लोन तैयार किया था । इसे ही डॉली नाम दिया गया था । तब से क्लोनिंग की ये तकनीक ही डॉली-द शीप के नाम से मशहूर हो गई ।

डीजल-बिजली के बजाय हाइड्रोजन से चलेगी ट्रेन
देश मेंआने वाले दिनों में ट्रेन डीजल या बिजली के बजाय हाइड्रोजन से चला करेंगी । चेन्नई स्थित इंटेग्रल कोच फैक्टरी (आईसीएफ) ने देश मेंपहली बार हाइड्रोजन गैस से चलने वाले इंजन का प्रोटोटाइप तैयार कर लिया है । गत दिसंबर में इसका ट्रायल भी सफल रहा । जर्मनी के बाद पहली बार भारत में यह प्रोटोटाइप तैयार किया गया है । आईसीएफ के वैज्ञानिकोंके अनुसार यह नये इंजर वाली ट्रेन २०२१ के अंत तक पटरी पर दौड़ सकती है । प्रोजेक्ट से जुड़े एक वैज्ञानिक ने बताया कि यह ट्रेन पूरी तरह प्रदूषण मुक्त होगी । इसमेंइंजन से धंुए की जगह सिर्फ भाप निकलेगी । आईसीएफ के वैज्ञानिकों के अनुसार शुरु मेंहाइड्रोजन ट्रेन महंगी पड़ेगी । प्रचलन में आने पर यह डीजल इंजन से १० गुना और बिजली वाले इंजन से पांच गुना सस्ती होगी । हाइड्रोजन इंजन में एक फ्यूल टैंक होगा । टैंक में पानी डाला जाता है । पानी से रासायनिक रिएक्शन कर हाइड्रोजन गैस बनती है । ऑक्सीजन की मदद से हाइड्रोजन को नियंत्रित कर बेहरत ढंग से जलाया जाता है । इससे गर्मी पैदा होती है । गर्मी से लिथियम बैटरी चार्ज होती है, जिससे ट्रेन चलती है । ट्रेन चलने के दौरान धुंए की जगह सिर्फ भाप निकलती है ।
आईसीपीएफ के वैज्ञानिकोंने बताया कि स्थानीय इंजीनियरिंग कॉलेज के कुछ छात्र भी प्रोजेक्ट में शामिल किए गए । ११ माह में ७ बार प्रोटोटाइप में बदलाव करने पड़े । हाइड्रोजन इंजन डीजल वाले की तुलना में ६०%  कम शोर करता है । इसकी रफ्तार और यात्रियों को ढोने की क्षमता डीजल इंजन के बराबर है ।
हम पारम्परिक भाप या डीजल इंजन के बजाय ट्रेन-१८ की तरह कोच मोटर इंजन प्रोटोटाइप बनाने पर काम कर रहे हैं। इसमें जगह बचने के साथ ट्रेन आगे पीछे ले जाने के लिए इंजन बदलने से छुटकारा मिलेगा । कोच के उपर या नीचे १०० किलो हाइड्रोजन गैस के लिए फ्यूल टैंक बनाया जाएगा । ताकि ३००-३५० यात्रियों को ट्रेन १४०-१५० किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से ७०० किलोमीटर जा सके ।
क्या कुत्ते कैंसर की गंध को सूंघ सकते है ?
यह तो जानी मानी बात है कि कुत्ते आपराधिक गुत्थी सुलझाने, आपदा के क्षेत्रोंमें बचाव दलों का मार्गदर्शन देने वगैरह में अच्छी भूमिका निभाते हैं । अब कहा जा रहा है कि कुत्तों को कैंसर सूंघने का प्रशिक्षण दिया जा सकता है । रोगग्रस्त कोशिकाआेंसे निकलने वाली गंध से कैसर का पता लगाने के लिए कुत्तों की संवेदनशील नाक का उपयोग कर अनगिनत लोगों का निदान करने में मदद मिल सकती है । लेकिन अभी इसमें कई समस्याएं है ।
१९८९ में दी लैंसेट में कुत्तेद्वारा सूंघकर कैंसर पता लगाने की रिपोर्ट के प्रकाशन के बाद ऐसी कई रिपोर्ट्स सामने आई और २००६ में एक डबल ब्लाइंड अध्ययन भी प्रकाशित हुआ । जल्द ही, अनगिनत अध्ययनों से पता चला कि प्रशिक्षित कुत्तें किसी व्यक्ति की सांस या पेशाब के नमूनों का सूंघकर कतिपय कैसर का पता लगा सकते है । कोशिकाएं, यहां तक कि कैंसर कोशिकाएं, वाष्पशील कार्बनीक यौगिकों (वीओसी) का उत्सर्जन करती हैं । इन यौगिकों की प्रकृतिके चलतेहर प्रकार के  कैंसर की एक अलग गंध होती है । 
कुत्तों की नाक में २२ करोड़ सेअधिक गंध संवेदना ग्राही होते है जिसकी वजह से ये रोग सूंघने के लिए सबसे उत्कृष्ट जानवर है ।
कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में ओटोलैरिंगोलॉजी के प्रोफेसर डॉ. हिलेरी ब्रॉडी ने इसका एक विकल्प सुझाया है । आप पहले कुत्तोंको संूघने के लिए यौगिकोंका एक मिश्रण दीजिए, फिर उसमें से एक-एक यौगिक को हटाते जाइए । कुछ घटक हटा दिए जाने के बाद जब कुत्ते नमूने पर जवाब देना बंद कर दें तब यह निष्कर्ष निकला जा सकता है कि हटाए गए यौगिक कैंसर से सम्बंधित हैं । इसके बाद शोधकर्ता इन अलग-अलग घटकों का विश्लेषण कर सकेगें ।
अधिकांश कुत्तोंको विशेष कैंसर की गंध को पहचानने के लिए लगभग ६ महीनोंमें प्रशिक्षित किया जा सकता है । किंतुऐसे अध्ययन वास्तविक परिस्थिति में नहीं बल्कि प्रयोगशाला में किए गए है जहां कुत्तों को पांच नमूने दिए जाते है जिसमें एक कैंसरयुक्त नमूना होता है । मगर वास्तव में एक कुत्तेको १००० नमूने सुंघाए जाने पर शायद एक ही कैंसर वाला नमूना निकले । शायद इसी वजह से वजह से वास्तविक परिस्थिति में किया गया अध्ययन असफल रहा था । 
अगर कुत्तों को ध्यान में रखते हुए सेटअप बदला भी जाए तब भी यह मरीज़ोंको स्क्रीन करने के लिए एक यथार्थवादी तरीका नहींहोगा । एक तो इसके लिए विभिन्न प्रकार के कैंसर पहचानने के लिए कुत्तोंका प्रशिक्षण करना होगा । और कुत्तोंके स्वभाव में परिवर्तन के दैनिक चक्र को भी ध्यान मेंरखना होगा । और परिणाम अलग अलग कुत्तोंके लिए अलग-अलग भी हो सकते है ।
इसकी बजाय, ब्रॉडी और हैकनर का ख्याल है कि कुत्ते एक जैव रासायनिक नाक मशीन (ई-नाक) विकसित करने मेंमददगार हो सकते है । ऐसी मशीनें कुछ चिकित्सकीय स्थितियों के लिए उपलब्ध भी हैं । कुत्तों की मदद से इन्हें और अधिक संवेदनशील बनाया जा सकता है ।
ब्रह्मांडीय जीपीएस
आजकल स्कूली बसोंके संदर्भ मेंजीपीएस काफी चर्चा में है । जीपीएस यानी ग्लोबल पोज़ीशनिंग सिस्टम एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें पृथ्वी और पृथ्वी के बाहर की किसी भी जगह की स्थिति का निर्धारण उपग्रहों की मदद से किया जाता है । कम से कम तीन उपग्रहों से प्राप्त् सूचनाआें का मिला-जुला उपयोग करके यहा बताया जा सकता है कि कोई बिंदु कहां है । अब वैज्ञानिकों ने एक ऐसी ब्रह्मांडीय जीपीएस प्रणाली के विचार पर काम करना शुरु किया है जो उपग्रहों की मदद के बगैर, अंतरिक्ष में कहीं भी स्थिति का निर्धारण कर सके । इसमें पल्सर का उपयोग किया जाएगा । शुरुआती प्रयोगों ने इस प्रणाली की व्यवहारिकता दर्शाई है ।
पल्सर मृत हो चुके तारोंके अवशेष होते है जो लगातार घूर्णन करते रहते है और समय के एक िशिचनत अंतराल पर रेडियो तरंगेंछोड़ते रहते है । पिछले वर्ष नवंबर में नासा ने अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर पल्सर आधारित जीपीएस की संभावना को टटोला था । न्यूट्रॉन स्टार इंटीरियर कंपोजीशन एक्सप्लोरर (नाइसर)वास्तव मेंमृत तारों के पदार्थ का अध्ययन करने के लिए शुरु किया गया है । नाइसर ने एक प्रयोग में पल्सर से आने वाले विकिरण के समय मेंहोने वाले अत्यंत अल्प अंतर के आधार पर स्वयं अपनी स्थिति निर्धारित करने का प्रयास किया । स्थिति के निर्धारण मेंमात्र ५ किलोमीटर की त्रुटि हुई ।
इससे पहले चीन ने पल्सर आधारित मार्ग संचालन के परीक्षण हेतु एक उपग्रह छोड़ा था । इसने ६५०० प्रकाश वर्ष दूर स्थित पल्सर से निकलने वाले एक्सरे संकेतों का विश्लेषण करके स्थिति निर्धारण का प्रयास किया था ।      ***

कोई टिप्पणी नहीं: