रविवार, 17 जुलाई 2016

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लुप्त् हो रही हैं छिपकलियां 
नरेन्द्र देवागंन
सरीसूपों (रेंगने वाले जन्तुआें) में छिपकलियां प्रमुख हैं । इनकी लगभग ६००० प्रजातियां पाई जाती   है  । ये विश्व के सभी भागों में पाई जाती है, किन्तु उष्णकंटिबधीय प्रदेशों में अधिक सामान्य है । भारत में इनके ८कुल हैं जिनकी लगभग २५० प्रजातियां पाई जाती है । अधिकांश स्थलीय होती है मगर वृक्षीय, बिल बनाने वाली यानी भूमिगत और जलीय छिपकलियां भी कम नहीं है । 
छिपकलियों के रंग उनकी रक्षा में सहायक होते हैं । सामान्यत: उनकी खाल कंटीलेशल्कों से ढंकी रहती है । खाल के नीचे हडि्डयों की प्लेटें होती है । इनके अंग सामान्यत: पूर्ण रूप से विकसित होते हैं और चढ़ने वाली छिपकलियों के पैरों में चिपकने वाली गादियां होती हैं । अधिकांश छिपकलियां इच्छानुसार अपनी पूंछे तोड़ सकती है । टूट कर गिरी हुई पूंछ कुछ समय तक फुदकती रहती है, जिससे पीछा करने वाला उसको देखने मेंलग जाता है और छिपकली बच कर निकल भागती    है । 
अधिकांश छिपकलियां अंडे देती हैं । कुछ ऐसी भी प्रजातियां है जो बच्च्े देती है । सामान्यतया छिपकलियां अपने अंडे धरती पर देती हैं और सेती हैं । किन्तु उत्तरी गोलार्द्ध की कुछ छिपकलियां अपने अंडों को शरीर के अंदर ही सेती है और उनसे बच्च्े पैदा होते हैं । किन्तु बच्च्े देने की यह प्रक्रिया स्तनधारी प्राणियों से नितांत भिन्न है, जिनमें भू्रण गर्भाशय में विकसित होकर शिशु का रूप धारण करके जन्म लेता है । 
छिपकलियां सामान्यत: कीड़े-मकोड़े और अन्य छोटे प्राणियों का शिकार करती है । कुछ प्रजातियां पूरी तरह शाकाहारी होती है । मेक्सिको मेंपाई जाने वाली कुछ प्रजातियों को छोड़कर शेष सभी अविषैली होती है । बहुत सी जातियों का मांस खाया जाता है और ऐसा विश्वास है कि कुछ में औषधीय गुण होते हैं । लगभग २ दर्जन प्रजातियों की खाल से सुन्दर वस्त्र, जूते, स्लीपर और घरेलू वस्तुएं बनाई जाती है । 
ऐगौमिड एशिया, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया में पाई जाने वाली छिपकलियां हैं, जिनसे सजावटी उपांग पाए जाते हैं, जैसे मुकुट और गले की थैलियां । उनमे रंग-बिरंगी रेखाकृतियां देखने को मिलती है । खाल पर हडि्डयों की प्लेटें नहीं होती और दुम साधारणत: लंबी तो होती है, किन्तु जल्दी टूटकर नहीं गिरती । इस कुल की भारत में पाई जाने वाली सबसे महत्वपूर्ण प्रतिनिधि छिपकलियां इस प्रकार है । ड्रेको प्रजाति की उड़ने वाली छिपकली जो वृक्षों पर रहती    हैं । इनमें पंखो जैसी सुन्दर रंगों वाली झिल्लियां रहती हैं जिनके सहारे ये एक पेड से दूसरे पेड पर चली जाती है । पंख जैसे गले वाली छिपकली सिटाना पोंटिसेरिआना क्यूवियर क्रोधित होने पर अपने गले के उपांगो को इतनी तेजी से खोलती और बंद करती है कि चिंगारियां निकलने का आभास मिलता है । 
यूरोमैट्रिक्स हार्डविकाई नाम की छिपकली को पाला जा सकता   है । कहा जाता है कि कुछ आदिवासी इसको खाते हैं । इसकी वसा लेप के रूप में इस्तेमाल की जाती है । गड्ढों से शीत निष्क्रिय छिपकलियों को खोद कर निकाला जाता है और घोड़ों की औषधि में प्रयोग किया जाता है । माबूया कैरिनेटा प्रजाति की छिपकली प्राय: समस्त भारत में २५०० मीटर की ऊंचाई  तक, खाली मकानों और ढीली चट्टानी भूमियों में रहती है । यह पेड़ों पर भी पाई जाती है । इस छिपकली से एक औषधीय तेल भी निकाला जाता है । 
जलवायु परिवर्तन से छिपकलियांे के विलुप्त् होने का खतरा उपत्पन्न हो गया है जलवायु परिवर्तन के कारण विश्व के कुछ भागों में १२ प्रतिशत छिपकलियां पहले ही गायब हो चुकी है । एक अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन में चेतावनी दी गई है कि यदि विश्व का तापमान बढ़ना जारी रहा तो २०८० तक छिपकलियांे की कुल प्रजातियों में से २० प्रतिशत विलुप्त् हो सकती है । 
गेको, इगुआना और गिरगिट जैसी छिपकलियांे को अक्सर ठंडे खून वाला प्राणी माना जाता है । इसका मतलब है कि उनके शरीर का तापमान बाहरी वातावरण के अनुसार बढ़ता और घटता रहता है । छिपकलियां अपने शरीर के तापमान को बढ़ाने के लिए धूप सेंकती हैं जब उनके शरीर का तापमान ज्यादा बढ़ जाता है तो छाया में चली जाती है । 
वैज्ञानिकों का कहना है कि विश्व के कई भागों में तापमान इतना ज्यादा हो गया है कि छिपकलियां पर्याप्त् भोजन हासिल करने को भी बाहर नहीं निकल पाती हैं । इसका परिणाम यह होता है कि वे कमजोर होकर मर जाती हैं । इन छिपकलियांे को गर्मी लेने के लिए धूप में निकलना जरूरी होता है । लेकिन गर्मी ज्यादा होने के कारण उन्हें छाया में लौटना पड़ता है । एक निश्चित सीमा के बाद छिपकलियां अनुकूलित नहीं हो सकती है । 
वैज्ञानिकों का अनुमान है कि स्थानीय छिपकलियांे की ४० प्रतिशत संख्या विलुप्त् हो जाएगी और २०८० तक छिपकली की २० प्रतिशत प्रजातियां गायब हो जाएंगी । वैज्ञानिकों  ने मेक्सिको में २०० स्थानों पर छिपकलियांे की लगभग ४८ प्रजातियों का अध्ययन करके यह पता लगाया है कि १९७५ से १९९५ के बीच लगभग १२ प्रतिशत छिपकलियां विलुप्त् हो चुकी थी । हालांकि उनके प्राकृतिक आवास में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं हुआ था । 
धूप में नीले रंग की छिपकलियांे के शरीर के तापमान में बढ़ोतरी को दर्ज करने वाले एक उपकरण से पता चला कि स्थानीय तापमान इतना बढ़ गया कि इनके लिए उसका सामना करना मुश्किल हो गया है । 

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