रविवार, 17 जुलाई 2016

ज्ञान-विज्ञान
पक्षियों की घटती उम्र और शहरी परिवेश 
शहर की भीड़ भरी जिन्दगी बहुत ही तनावपूर्ण होती है जिसके कारण हार्मोन स्तरों में बदलाव हो रहा है साथ ही प्रतिरक्षा प्रणाली पर भी प्रतिकूल असर पड़ रहा है । अब एक पक्षी ग्रेट टिट पर हुए नए शोध से पता लगा है कि यह परिवंश बुढ़ाने की प्रक्रिया को भी तेज कर सकता है । 
      शहरी परिवेश  बुढ़ाने की प्रक्रिया को कैसे प्रभावित करता है इसे जांचने के शोधकर्ताआें ने चिड़िया के चूजों पर शोध किया । ये चूजे शहरों या गावों में रहने वाले पक्षियों के चूजे   थे । इन्हेंशहरी और ग्रामीण माता-पिता के साथ रखा गया । १५ दिनों तक अवलोकन करने के बाद शोधकर्ताआें ने प्रत्येक चूजे के रक्त का नमूना लिया और कोशिकाआें में टीलोमेयर की लंबाई नापी । टीलोमेयर का संबंध उम्र से होता है । प्रत्येक गुणसूत्र के सिरों पर उपस्थित टीलोमेयर गुणसूत्र को नुकसान से बचाता है । प्रत्येक कोशिका विभाजन के बाद टीलोमेयर की लम्बाई कम होती जाती है । 
बायोलॉजी लेटर्स शोध पत्रिका मेंअपने शोध पत्र में उन्होनें बताया है कि शहरी क्षेत्रों में पले चूजों के टीलोमेयर का आकार औसतन अपेक्षाकृत छोटा था । चाहे उनका जन्म स्थल कोई भी हो मगर शहरी वातावरण में पले चूजा के टीलोमेयर गांवों में पले चूजों की अपेक्षा ११ प्रतिशत छोटे थे । 
कोशिकीय स्तर पर टीलोमेयर की लंबाई का द्योतक माना जाता है । यह भी देखा गया है कि टीलोमेयर में क्रमिक गिरावट की वजह से उम्र संबंधी परेशानियां पैदा होती है । जैसे यकृत रोग या ह्दय व रक्त संचार से संबंधित बीमारियां ।
शोध के परिणाम बताते है कि शहरी प्रदूषण तनाव बढ़ने का कारण है जिसकी वजह से डीएनए को नुकसान पहुंचता है । हो सकता है कि ग्रेट टिट के चूजों में कोशिकीय उम्र गिरावट का कारण भी यही है । वैसे अभी यह साफ नहीं है कि यह स्थिति कितनी व्यापक है मगर संभव है कि मनुष्य समेत समस्त शहरी जीवों में छोटा टीलोमेयर कमतर औसत आयु का सबब हो । इस पर भी शोध की आवश्यकता है । 

पॉलीथीन से डीजल बनाया गया 
वैज्ञानिकों ने पॉलीथीन को उपयोगी पदार्थो में बदलने का एक तरीका खोज निकाला है । हालांकि यह अभी प्रायोगिक दौर में ही है मगर इससे उम्मीद बंधी है कि जल्दी ही व्यापारिक स्तर पर पॉलीथीन से ईधन बनाना संभव हो जाएगा । 


     पॉलीथीन वह पदार्थ है जिसका उपयोग हम कई तरह से करते है - खास तौर से  थैलियां । एक अनुमान के मुताबिक हम प्रति वर्ष १० करोड़ टन पॉलीथीन की वस्तुएं बनाते हैं और इनमें से अधिकांश को फेंक देते हैं । फेंकी गई पॉलीथीन की वस्तुएं कचरा भराव स्थलों पर, नदी-नालों में, शहर की नालियों में और समुद्रों में पहुंच जाती हैं । ये बहुत धीरे-धीरे विघटित होती है । 
पॉलीथीन दरअसल एथीलीन नामक हाइड्रोकार्बन के अणुआें को जोड़-जोड़कर बनाया गया पॉलीमर  है । एथीलीन को पॉलीथीन में बदलने के लिए दो उत्प्रेरकों के मिश्रण का उपयोग किया जाता है । एथीलीन के अणु में दो कार्बन होते हैं जो आपस में दोहरे बंधनों से जुड़े होते    हैं । एक उत्प्रेरक इनमें से एक बंधन को तोड़ देता है । अब एथीलीन के हर अणु के पास दूसरे अणु से बंधन बनाने की गुंजाइश होती है । दूसरा उत्प्रेरक इस क्रिया में मदद करता है । जब ये बंधन बनते हैं तो धीरे-धीरे लंबी-लंबी कार्बन श्रृखलाएं बन जाती है । यही पॉलीथीन है । पॉलीथीन के टिकाऊपन का राज यह है कि इसमें कार्बन परमाणुआें के बीच मात्र इकहरे बंधन होते हैं, जिन्हें तोड़ना मुश्किल होता है । 
इन्हीं उत्प्रेरकों का उपयोग करके ईविन स्थित कैलिफोर्निया विश्वविघालय के जिबिन गुआन और शंघाई की चायनीज एकेडमी ऑफ साइन्सेज के जेंग हुआंग ने पॉलीथीन से निपटने का तरीका विकसित किया है । उन्होनें इन उत्प्रेरकों के थोड़े परिवर्तित रूप का उपयोग किया । यह परिवर्तित रूप नॉर्थ कैरोलिना विश्वविद्यालय के मॉरिस बुकहार्ट ने विकसित किया है । इस उत्प्रेरक की विशेषता यह है कि यह कार्बन-कार्बन इकहरे बंधन को तोड़ देता है और उन्हें फिर से जोड़ता है । जब ये जुड़ते है तो बहुत लंबी-लंबी श्रृंखलाएं नहीं बनाते बल्कि छोटी-छोटी श्रृंखलाएं बनाते है - लगभग उतनी लंबी जैसी कि डीजल वगैरह में पाई जाती है । 
तो गुआन और हुआंग ने इस उत्प्रेरक का उपयोग पॉलीथीन पर करने का विचार किया । पॉलीथीन में तो लाखों कार्बन वाली श्रृंखलाएं होती है । उन्होनें कचरे मे से पॉलीथीन की थैलियां इकट्ठी की और उनमें थोड़ा डीजल मिला दिया । अब इस मिश्रण को उक्त उत्प्रेरकों के साथ रखा गया तो २४ घंटे बाद जो उत्पाद मिला उसमें कार्बन की अपेक्षाकृत छोटी श्रृंखला वाले हाइड्रोकार्बन थे । 
साइन्स एडवांसेस नामक पत्रिका में अपने काम का विवरण देते हुए उन्होंने बताया है कि अभी यह प्रक्रिया बहुत धीमी है । ये उत्प्रेरक बहुत मंहगे भी हैं । इसके अलावा, ये जल्दी ही खुद भी विघटित हो जाते   हैं । इसलिए अभी यह प्रक्रिया व्यापारिक स्तर पर काम नहीं आएगी, मगर उन्हें उम्मीद है कि रास्ता मिल गया है और आगे काम करके ये इसे एक उपयोगी तकनीक मेंबदल देंगे ।

पानी से जमीन पर मछलियों की छलांग 
हाल के एक अध्ययन से पता चला है कि मछलियों ने विकास के दौर में जमीन पर रहने की कला कम से कम तीस बार सीखी है । इसी अध्ययन ने यह भी स्पष्ट किया है कि संभवत: पानी से निकलकर जमीन पर रहने वाली प्रथम मछलियां समुद्री थी । 
विकासविद मानते है कि पहली बार किसी मछली ने पानी से जमीन पर कदम करीब ३५ करोड़ साल पहले रखा था । और ऐसा नहीं है कि सारे उभयचरों (यानी पानी व जमीन दोनों जगह रहने वाले जन्तुआें) का विकास इसी मछली से हुआ है । कम से कम ३० बार स्वतंत्र रूप से अलग-अलग प्रजातियों ने पानी से जमीन पर आना सीखा है । 
यह अध्ययन ऑस्ट्रेलिया के न्यु साउथ वेल्स विश्वविघालय के टेरी ओर्ड तथा जॉर्जिना कुक ने किया    है । इसके लिए उन्होंने उन मछलियों से संबंधित सारा शोध साहित्य खंगाला जिन्होनें जमीन पर आने में सफलता प्राप्त् की थी।  इससे उन्हें ये अनुमान लगाने में मदद मिली कि मछलियों ने यह करिश्मा कितनी बार स्वतंत्र रूप से किया ।
        ओर्ड और कुक ने पाया कि वर्तमान में १३० मछली प्रजातियां ऐसी है जो कुछ हद तक जमीन पर समय बिताती है । इनमें अमेरिकन ईल है जो बरसात के समय तालाबों के बीच कूदती रहती है । ऐसी ही एक मछली लॉन्ग स्पाइन्ड सी स्कॉर्पियन है जो पानी में ऑक्सीजन की कमी होने पर समुद्र किनारे के पोखरों में से उछलकर जमीन पर आ जाती है । इसी प्रकार की एक मछली अटलांटिक मडस्किपर है जो भोजन की तलाश में कीचड़ पर घूमती रहती है । 
शोध पत्रिका इवॉल्यूशन में प्रकाशित शोध पत्र में शोधकर्ताआें ने बताया है कि मछलियों के ३३ कुलों में कम से कम एक प्रजाति ऐसी है जिसने ठोस धरती को अपना अस्थायी आवास बनाया । मतलब कम से कम ३३ बार तो अलग-अलग प्रजातियों ने जमीन पर चहलकदमी करने की आदत बनाई है ।
शोधकर्ताआें ने एक मछली कुल का अध्ययन थोड़ा ज्यादा गहराई में जाकर किया । यह कुल है ब्लेनिडी । ये मछलियां समुद्री हैं और आम तौर पर तटों के उथले पानी में पाई जाती है । इनका अवलोकन करते हुए शोधकर्ताआें ने देखा कि ये काफी समय समुद्र तक की चट्टानों पर फूदकते हुए बिताती हैं । ये पानी के बाहर रहना इतना पंसद करती है कि यदि इन्हें डराया जाए, तो ये पानी की ओर नहीं भागती बल्कि चट्टानों के बीच और अंदर चली जाती है । कहने को इसे समुद्री मछली कहा जाता है मगर यह काफी वक्त पानी से बाहर गुजारती है ।

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