रविवार, 17 जुलाई 2016

वन महोत्सव पर विशेष 
वनाधिकार में है आग का समाधान
सुरेश भाई 
जंगल बचाने की आड़ में वनवासी समुदाय को वनों से बेदखल कर दिया गया । परिणामस्वरूप वन अनाथ हो गए । वन विभाग और वनों का रिश्ता तो राजा और प्रजा जैसा   हैं । यदि वन ग्राम बसे रहेंगे तो उसमें रहने वाले अपना पर्यावास, आवास व पर्यावरण तीनों का पूरा ध्यान रखते है। परंतु आधुनिक वन प्रबंधन का कमाल जंगलों की आग के रूप में सामने आ रहा है। 
पिछले दिनों उत्तराखण्ड के जंगल जल रहे थे । आग इतनी भयावह थी कि वायु सेना और एनडीआरएफ की कोशिशें भी नाकाम लग रही हैं । वैसे देश के अन्य भागों के जंगल भी आग की चपेट में हैं । एक अनुमान है कि प्रतिवर्ष लगभग १८ हजार हेक्टेयर जंगल जल जाते हैं । लेकिन उत्तराखण्ड के जंगलों में जनवरी माह से ही लगातार आग लगी हुई है। 
अब तक यहाँ लगभग २५०० हैक्टेयर जंगल आग में स्वाह हो गये हैं । पिछले १५ वर्ष में यहाँ के लगभग ३८ हजार हैक्टेयर जंगल जल चुके हैं  । चिन्ता की बात तो यह है कि वन विभाग प्रतिवर्ष वनों में वृद्वि के आंकड़े ही प्रस्तुत करता है परिणामस्वरूप आग के प्रभाव के कारण कम हुये वनों की सच्चई सामने नहीं आती है ।  
देशभर के पर्यावरण संगठनों ने कई बार माँग की है कि ``वनों को गाँव को सौंप दो ।`` अब तक यदि ऐसा हो जाता तो वनों के पास रहने वाले लोग स्वयं ही वनों की आग बुझाते । वन विभाग और लोगों के बीच में आजादी के बाद सामंजस्य नहीं बना है। लाखों वन निवासी, आदिवासी और अन्य लोग अभयारण्यों और राष्ट्रीय पार्कांे के नाम पर बेदखल किये गये हैं । 
इसके साथ ही जिन लोगों ने पहले से ही अपने गाँव में जंगल पाले हुये है, उन्हें भी अंग्रेजों के समय से वन विभाग ने अतिक्रमणकारी मान रखा है। वे अपने ही जंगल से घास, लकडी व चारा लाने में सहज महसूस नहीं करते हैं। यदि वनों पर गाँवों का नियन्त्रण होता और वन विभाग उनकी मदद करता, तो वनों को आग से बचाया जा सकता था । वनांे में अग्नि नियन्त्रण के लिये लोगों के  साथ वन विभाग को संयुक्त रूप से प्रयास करने की आवश्यकता है । 
आम तौर पर माना जाता है कि वनों में आग का कारण व्यावसायिक दोहन करवाना भी हैं । जब वन आग से सूखेंगे तभी इनका कटान करना नियमानुसार हो जाता हैं क्योंकि सूखे, जडपट एवं सिर टूटे पेड़ों के नाम पर ही व्यावसायिक कटान किया जाता है, जो आग से ही संभव है । वनों की आग प्रकृति में कार्बन की मात्रा बढा रही है । आग के कारण वनों से जीव-जन्तु गांँव की ओर आने लगते हैं । ऊँचाई के वर्षा वाले वनों का आग की चपेट में आना इसलिए भी खतरनाक है क्योंकि यहाँ से निकलने वाला पानी घाटियों तक पहुँचते ही सूख जाता है। इससे ग्लेशियरों की पिघलने की दर बढ़ती है । गौरतलब है कि उत्तराखण्ड में जहाँ ६० प्रतिशत जलस्त्रोत सूख चुके हैं वहाँ भविष्य में क्या होगा ?
हर वर्ष करोडों रुपये के पौधारोपण करने की जितनी आवश्यकता है उससे कहीं अधिक जरूरत वनों को आग से बचाने की हैं । वनों पर ग्रामीणों को अधिकार देकर सरकार को वनाग्नि नियंत्रण में जनता का सहयोग हासिल करना चाहिए । गाँव के हक-हकूक भी आग से समाप्त हो रहे हैं । बार-बार आग की घटनाओं के बाद भूस्खलन की सम्भावनाएं अधिक बढ़ जाती    हैं । जिन झाड़ियों, पेड़ों और घास के सहारे मिट्टी और मलबे के ढेर थमे हुये रहते हैं वे जलने के बाद थोड़ी सी बरसात में सड़कों की तरफ टूटकर आने लगते हैं ।   
उत्तराखण्ड एक आपदा घर जैसा बन गया । वहाँ इस बार भी भूस्खलन की घटनायें हो सकती हैं । इसके चलते फायरलाइन बनाने के नाम पर केन्द्रीय वन और पर्यावरण मन्त्रालय से और अधिक पेड़ों को काटने की स्वीकृति की सूचनायें भी मिल रही है। ऐसे वक्त में पहले तो लोगों के सहयोग से अग्नि नियन्त्रण के उपाय ढूढ़ें जायें, दूसरा चौड़ीपत्ती के वनों की पट्टी बनाने के लिये नौजवानों की ईको टॉस्कफोर्स बनाने की आवश्यकता है ।  स्थानीय लोग आग बुझाते हुए जान भी गंवा देते   हैं । उन्हें शहीद का दर्जा मिलना चाहिए । वनाग्नि के दौर में उत्तराखण्ड के राज्यपाल ने वन महकमें की सभी छुटिट्याँ रद्द कर दी थी लेकिन वन विभाग के  पास ऐसा कोई मानव समूह नहीं है कि वे अकेले ही लोगों के सहयोग के बिना आग बुझा सके । 

कोई टिप्पणी नहीं: