रविवार, 17 जुलाई 2016

उद्योग-जगत
विद्युत संयंत्र में झटका नहीं विस्फोट
राजेश कुमार/राजकुमार सिन्हा
निजी विद्युत कंपनियों में श्रमिकों एवं कर्मचारियों से संबंधित सुरक्षा नियमों की घनघोर उपेक्षा की जाती है । इसके परिणामस्वरूप अनेक की मृत्यु भी हो जाती है । परंतु निगरानी तंत्र की लापरवाही और मिलीभगत के चलते दोषियों को सजा ही नहीं मिल पा रही है । 
पिछले दिनों मध्यप्रदेश के अनूपपुर जिले के जैतहरी में स्थित हिन्दुस्तान पावर प्राइवेट लिमिटेड (एम.बी.पावर) परियोजना में बायलर की सफाई के दौरान संयंत्र बंद न करने के कारण हुए हादसे में ही तीन लोगों की घटनास्थल पर मृत्यु हो गई और दो दर्जन से भी अधिक श्रमिक घायल हो गये। कम्पनी ने केवल एक व्यक्ति की मृत्यु और ११ लोगों के  घायल होने की खबर ही दी है। यह एकमात्र घटना नहीं है । ऐसे अनगिनत हादसे केवल अखबारों की खबर बन कर ही रह जाते हैं। उन पर ना तो मीडिया ने आगे कोई खोजबीन की, ना ही प्रशासन ने कम्पनियों से सवाल पूछे ।

इसी साल ऐसे ही दो हादसे दो बड़ी विद्युत कम्पनियों मंे हुए । रिलायंस की सासन (सिंगरौली) अल्ट्रा मेगा विद्युत परियोजना में निर्माण के दौरान १९ श्रमिकों की मौत व सैकड़ों के घायल होने के मामले की पुष्टि परियोजना को वित्तीय सहायता देने वाले अमेरिका के एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट (एग्जिम) बैंक के इंस्पेक्टर जनरल ने की । ओआईजी जी की रिपोर्ट के मुताबिक यहां ज्यादातर श्रमिक दैनिक वेतनभोगी ही हैं। दूसरा मामला है अडानी की कोयला बिजली परियोजना का । मुन्द्रा, कच्छ गुजरात में स्थित इस संयंत्र के बायलर से छोडे गये गरम पानी से सात लोगों की मृत्यु हो गई और २१ से ज्यादा लोग बुरी तरह घायल हो गये । यह घटना भी गुमनामी की भेंट चढ़ गई । 
निजी बिजली परियोजनाआंे में श्रमिक अधिकारांे का उल्लंघन आम बात है। बिजली कम्पनियां ज्यादातर कामों के लिये दैनिक वेतनभोगी मजदूर ही काम पर रखती हंै और उनका दस्तावेजीकरण भी नहीं करतीं । कम्पनी स्थाई मजदूरों को जो मजदूरी देती हैंउससे कम मजदूरी पर दैनिक वेतनभोगी मजदूर को रखती हैं इससे जो सुविधाएं स्थाई मजदूर को मिलती हैं उससे भी कम्पनी बच जाती है । इसके अलावा हादसे की स्थिति में कम्पनी अपनी जिम्मेदारी से बच जाती है ।  
इन संयंत्र में अधिकतर मजदूर दूसरे राज्यों से आते हैं। इन्हें अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है जैसे, यह मजदूरी निर्धारित नहीं कर पाते हैंऔर जितना कम्पनी देती है उसी में उनको काम करना पड़ता है। इनसे निर्धारित घंटों से अधिक काम करवाया जाता है । उनको बुनियादी सुविधाआंे के अभाव मंे रहना पड़ता है । पलायनकर्ता और असंगठित मजदूरों को स्थानीय प्रशासन भी नजरअंदाज कर देता    है । इनसे स्थानीय मजदूरांे की मजदूरी निर्धारण पर भी असर पड़ता है । इन सभी का फायदा कम्पनी उठाती है। एक तरफ तो प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी विदेश में भारतीय प्रवासी मजदूरों के साथ खाना खाकर उनका हौसला आफजाई करते हैंदूसरी तरफ देश में मजदूरांे की सुरक्षा और अधिकारांे के खिलवाड़ के खिलाफ कोई सवाल नहीं करता । देश के कामगारों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार क्यों ? 
पिछले एक दशक मंे भारत के कोयला बिजली क्षेत्र मंे निजी कम्पनियों की बाढ़ सी आ गई है । भारत सरकार आंख मूंदकर कम्पनियों का हजारांे एकड़ जमीन पर कब्जा  दे रही है । राज्य सरकारें भी वन अधिकार कानून मंे बदलाव कर वनभूमि निजी कोेयला बिजली कम्पनियों को सौंप रही है । सरकारी आंकडों के अनुसार पिछले ३० वर्षों मंे करीब १४००० वर्ग किमी जंगल का कब्जा २३७१६ कम्पनियों को दे दिया गया है । हर साल २५० वर्ग किमी से भी ज्यादा वनभूमि बिजली कम्पनियों, खनन,बांध और कारखानों को सौंपी जाती है । सबसे अधिक जमीन खनिज कम्पनियांे को दी गई है ।  
बिजली परियोजनाएं पानी का भी अत्यधिक उपयोग करती हैं । एकतरफ देश मंे पानी को लेकर हाहाकार मचा है दूसरी ओर इन बिजली परियोजनाआंे ने पानी की लूट मचा रखी है । नदियांे से पानी लेने के बाद नियम और कानूनों को ताक पर रख उनमंे जहर बहाया जा रहा  है । यह पानी पीने से जानवर तो मर ही रहे हैं, खेती भी बर्बाद हो रही है । जीवजन्तु की तमाम प्रजातियां भी खत्म हो रही हैं । इतना ही नहीं अनेक अन्य जलस्त्रोत भी प्रदूषित हो गये हैं । सिंगरौली इसका एक अहम उदाहरण है । यहां लोग प्रदूषित पानी पीने को मजबूर हैं और फेफड़े के कैंसर, टीबी जैसी भयानक बीमारियांे से ग्रसित हैं । 
पिछले पचास सालांे से सरकार सबको बिजली पहुंचाने के  नाम पर हर साल कई बिजली परियोजनाआंे को मंजूरी देती है। लेकिन फिर भी लोगों तक बिजली नहीं पहंुच पा रही है। आज भी कई गांवों के लिये बिजली एक सपना    है । गौरतलब है कि सन् २००१ मंे १०१६६० मेगावॉट के संयंत्र मौजूद थे और ३८ प्रतिशत लोगांे के पास बिजली नहीं थी और सन् २०१५-१६ में बिजली उत्पादन क्षमता २८४३०३ मेगावॉट तक पहंुच गयी जो की पंद्रह साल पहले के मुकाबले डेढ़ गुना अधिक है, लेकिन फिर भी २० प्रतिशत लोगांे के लिये बिजली नहीं  है । हालांकि वर्तमान सरकार सबको वर्ष २०१९ तक बिजली देने का वादा कर रही है। एक ओर सरकार देश के प्राकृतिक संसाधनों को विकास के नाम पर रिलायंस, अडानी और मोजरबियर जैसी बिजली कंपनियांे के हवाले कर रही है। दूसरी ओर पर्यावरण और श्रम कानूनांे में बदलाव कर बिजली कंपनियों को फायदा पहुंचा रही है। मोदी सरकार इन्ही बदलावों को ``इज आफ डुइंग बिजनेस``(व्यापार करने में सहूलियत) कह रही है । 
निजी बिजलीघरांे के हादसांे में मरने एवं जख्मी होने वालों की संख्या का कोई सही आकलन आज तक सार्वजनिक नहीं हुआ है। जब से बिजली क्षेत्र निजी हाथांे मंे आया है तभी से इसमें श्रमिकों की सुरक्षा मंे कोताही व उनके अधिकारांे से खिलवाड़ आम बात हो गई है। रिलांयस, टाटा या अडानी को बिजली कंपनियों मे घाटा हो रहा है । इस पर तो भारत सरकार और उसका प्रशासन चिंतित है लेकिन उनकी परियोजनाओं मंे मजदूरांे की सुरक्षा में कोताही और अधिकारांे से खिलवाड़ के खिलाफ सरकार और प्रशासन से कोई सवाल क्यों नहीं पूछता ? मीडिया भी इन सवालों को नहीं पूछ पा रही है । 
एम.बी.पावर जैतहरी  परियोजना में हुई घटना मंे अनूपपुर के स्थानीय लोगांे का कहना है कि मोजरबियर के कोयला बिजलीघर मंे हुए हादसे मंे कई मजदूर एवं कर्मचारी ९० प्रतिशत से अधिक जल गये थे और मरने वालांे की संख्या तीन से अधिक है। वहीं कम्पनी केवल तीन अधिकारी स्तर के स्थाई कर्मचारियों के मरने की बात कर रही है । लेकिन सफाई जैसे कार्यों मंे मजदूर ही काम करते है और इस बड़े धमाके में  आसपास मंे काम करने वाले मजदूर भी चपेट मंे आये होगंे । इस घटना में कहीं भी मजदूरों के मरने की बात ना तो मीडिया ने उठाई ना कम्पनी ने ही कुछ बताया । इस संयंत्र में दो बायलर हैं जिसमंे से उन्होंने एक बायलर को चालू रखकर दूसरे की सफाई करनी चाही थी । नियम अनुसार दोनों को ही बंद कर सफाई की जानी चाहिए । अगर एक बायलर काफी गरम चल रहा है तो उसी के एकदम बगल मंे ठण्डा बायलर नहीं चलाया जा सकता या फिर उससे सुरक्षा हेतु रेत की बोरी की दीवार दोनों बायलरों के बीच बनानी  चाहिये । लेकिन ऐसा नहीं किया गया था । सफाई मजदूरांे को बायलर की सफाई करने के दौरान आग से बचाव हेतु जो वर्दी दी जाती है वह भी इनको नहीं दी गई थी । 
इन बड़ी बिजली परियोजनाओं ने आदिवासी, किसान और मजदूरों के पास दरबदर भटकने के अलावा कोई विकल्प नहीं छोड़ा    है । यह एक दुखद विडम्बना है कि प्राकृतिक और खनिज संसाधनों को कुछ सीमित निजी हाथों में सौंपने हेतु सरकार हजारांे सालांे से बसे बसाये लोगों को उजाड़ रही है ।

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