रविवार, 17 जुलाई 2016

प्रदूषण
देश मेंबढ़ता इलेक्ट्रॉनिक कचरा 
संध्या रायचौधरी
इंटरनेशनल टेलीकम्यू-निकेशंस यूनियन के आंकड़ो के अनुसार भारत और चीन में मोबाइल फोन की संख्या इंसानी आबादी को पीछे छोड़ चुकी है । सिर्फ इन दो देशों में मोबाइल फोन का आंकड़ा ७ अरब पार कर चुका है । 
चीन की तरह भारत में भी सस्ते से सस्ता फोन उपलब्ध है । लेकिन गंभीर और खतरनाक बात यह है कि इससे इलेक्ट्रानिक क्रांति में खतरे ही खतरे उत्पन्न हो जाएंगे जो इस धरती की हर चीज को नुकसान पहुंचाएंगे । 
फिलहाल भारत में एक अरब से ज्यादा मोबाइल ग्राहक हैं । मोबाइल सेवाएं शुरू होने के २० साल बाद भारत ने यह आंकड़ा इसी साल जनवरी में पार किया है । दुनिया  में फिलहाल चीन और भारत ही दो ऐसे देश है, जहां एक अरब से ज्यादा लोग मोबाइल फोन से जुड़े   हैं । देश में मोबाइल फोन इंडस्ट्री को अपने पहले १० लाख ग्राहक जुटाने में करीब ५ साल लग गए थे, पर अब भारत-चीन जैसे आबादी बहुल देशों की बदौलत पूरी दुनिया में मोबाइल फोन की संख्या इंसानी आबादी के आंकड़े यानी ७ अरब को भी पीछे छोड़ चुकी है । 
ये आंकड़े बताते हैं कि अब गरीब देशों के नागरिक भी जिन्दगी में बेहद जरूरी बन गई संचार सेवाआें का लाभ उठाने की स्थिति में हैं, वहीं यह इलेक्ट्रानिक क्रांति दुनिया को एक ऐसे खतरे की तरफ से ले जा रही है जिस पर अभी ज्यादा ध्यान नहीं दिया जा रहा है । यह खतरा है इलेक्ट्रानिक कचरे यानी ई-वेस्ट   का । 
आईटीयू के मुताबिक भारत, रूस, ब्राजील समेत करीब १० देश ऐसे है जहां मानव आबादी के मुकाबले मोबाइल फोनों की संख्या ज्यादा है । रूस में २५ करोड़ से ज्यादा मोबाइल है जो वहां की आबादी से १.८ गुना ज्यादा है । ब्राजील में २४ करोड़ मोबाइल है, जो आबादी से १.२ गुना ज्यादा है । इसी तरह मोबाइल फोनधारकों के मामले में अमेरिका और रूस को पीछे छोड़ चुके भारत में भी स्थिति यह बन गई है कि यहां करीब आधी आबादी के पास मोबाइल फोन है । 
भारत की विशाल आबादी और फिर बाजार मेंसस्ते मोबाइल हैंडसेट उपलब्ध होने की सूचनाआें के आधार पर इस दावे में कई संदेह भी नहीं लगता । पर यह तरक्की हमें इतिहास के एक ऐसे मोड़ पर ले आई है, जहां हमें पक्के तौर पर मालूम नहीं है कि आगे कितना खतरा है । हालांकि इस बारे में थोड़े बहुत आकलन-अनुमान अवश्य है जिनसे समस्या का आभार होता है । 
जैसे वर्ष २०१३ में इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्निकल एजूकेशन एण्ड रिसर्च (आईटीईआर) द्वारा इलेक्ट्रानिक कचरे (ई-वेस्ट) का प्रबंधन और साज-संभाल विषय पर आयोजित सेमीनार मेंपर्यावरण एवं वन मंत्रालय के विज्ञानियों ने एक आंकलन करके बताया था कि भारत हर साल ८ लाख टन इलेक्ट्रानिक कचरा पैदा कर रहा है । इस कचरे में देश के ६५ शहरों का योगदान है पर सबसे ज्यादा ई-वेस्ट देश की वाणिज्यिक राजधानी मुम्बई में पैदा हो रहा है । हम अभी यह कहकर संतोष जता सकते है कि हमारा पड़ोसी मुल्क चीन इस मामले में हमसी मीलों आगे है । 
संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक चीन दुनिया का सबसे बड़ा ई-वेस्ट डंपिग ग्राउंड है । उल्लेखनीय यह है कि जो टीवी, फ्रिज, एयर कंडीशनर, मोबाइल फोन, कम्प्यूटर आदि चीन मेंबनाकर पूरी दुनिया में सप्लाई किए जाते है, कुछ वर्षो बाद चलन से बाहर हो जाने और कबाड़ में तब्दील हो जाने के बाद वे सारे उपकरण चीन या भारत लौट आते हैं । निसंदेह अभी पूरी दुनिया का ध्यान विकास की ओर है । विज्ञान की तरक्की ने हमें जो साधन और सुविधाएं मुहैया कराई है, उनसे हमारा जीवन पहले के मुकाबले आसान भी हुआ है । 
कम्प्यूटर और मोबाइल फोन जैसी चीजों ने हमारा कामकाज काफी सुविधाजनक बना दिया है । इसकी लिस्ट काफी लंबी है और फैक्स मशीन, फोटोकॉपी, डिजिटल कैमरे, लैपटॉप, प्रिंटर, इलेक्ट्रानिक खिलौने व उपकरण, एयर कंडीशनर, माइक्रोवेव कुकर, थर्मामीटर आदि चीजों ने हमें चारों तरफ से घेर लिया है । दुविधा यह है कि आधुनिक विज्ञान की देन पर सवार हमारा समाज जब इन उपकरणों के पुराने या बेकार होने पर उनसे पीछा छुड़ाने की कोशिश करेगा, तो ई-वेस्ट की विकराल समस्या से कैसे निपटा जाएगा । 
यह चिंता भारत-चीन जैसे तीसरी दुनिया के मुल्कों के लिए ज्यादा बड़ी है क्योंकि कबाड़ में बदलती ये चीजे ब्रिटेन अमेरिका जैसे विकसित देशों की सेहत पर कोई असर नहीं डाल रही है । इसकी एक वजह यह है कि तकरीबन सभी विकसित देशों ने ई-कचरे से निपटने के प्रबंध पहले ही कर लिए है और दूसरी कि वे ऐसा कबाड़ हमारे जैसे गरीब मुल्कों की तरफ ठेल रहे हैं । जाहिर है हमारे लिए चुनौती दोहरी    है । पहले तो हमे देश के भीतर ही पैदा होने वाली समस्या से जुझना है और फिर विदेशी ई-वेस्ट के उस सतत प्रवाह से निपटना है, जिसे लेकर कोई ज्यादा बैचेनी भारत और चीन समेत दूसरे कई गरीब विकासशील देशों में नहीं दिखाई देती । 
हमारी चिंताआें को असल में इससे मिलने वाली पूंजी ने ढांप रखा है । विकसित देशों से मिलने वाले चंद डॉलरों के बदले हम यह मुसीबत खुद ही अपने यहां बुला रहे हैं । दूसरी तरफ मोबाइल फोन और इसी तरह अन्य इलेक्ट्रानिक सामानों की बढ़ती फेहरिस्त हमें इनसे जुड़े खतरों की तरफ धकेल रही है । ई-कबाड़ पर्यावरण और मानव सेहत की बली भी ले सकता है । मोबाइल फोन की ही बात करे तो कबाड़ में फेके गए इन फोनों में इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक और विकिरण पैदा करने वाले कलपुर्जे सैकड़ों साल तक जमीन में स्वाभाविक रूप से घुलकर नष्ट नहीं होते । 
सिर्फ एक मोबाईल फोन की बैटरी अपने बूते ६ लाख लीटर पानी दूषित कर सकती है । इसके अलावा एक पर्सनल कम्प्यूटर में सीसा, फॉस्फोरस, कैडमियम व मरकरी जैसे घातक तत्व होते हैं, जो जलाए जाने पर सीधे वातावरण में घुलते है और विषैले प्रभाव उत्पन्न करते हैं । कम्प्यूटर स्क्रीन के रूप में इस्तेमाल होने वाली कैथोड़ किरण पिक्चर ट्यूब जिस मात्रा में सीसा (लेड) पर्यावरण में छोड़ती है, वह भी काफी नुकसानदेह होता है । 
समस्या इस वजह से भी ज्यादा विनाशकारी है क्योंकि हम सिर्फ  अपने ही देश के ई-कबाड़ से क्काम की चीजें निकालने की आत्मघाती कोशिश नहीं करते बल्कि विदेशों से भी ऐसा खतरनाक कचरा आयात करते हैं । ग्रीनपीस ने अपनी रिपोर्ट टॉक्सिक ट्रैश: रीसाइक्लिंग इलेक्ट्रानिक वेस्ट्स इन चाइना एण्ड इण्डिया में साफ किया है कि जिस ई-कबाड की रिसाइक्लिंग पर युरोप में २० डॉलर का खर्च आता है, वही काम भारत-चीन जैसे मुल्कों में महज चार डॉलर में हो जाता है । वैसे तो हमारे देश में ई-कबाड़ पर रोक लगाने वाले कानून है । 
खतरनाक कचरा प्रबंधन और निगरानी नियम १९८९ की धारा ११(१) के तहत ऐसे कबाड़ की खुले में रिसाइक्लिंग और इसके आयात पर रोक है, लेकिन नियम-कायदों की अनदेखी का आलम यह है कि अकेले दिल्ली की सीलमपुर, जाफराबाद, मायापुरी, बुराड़ी आदि बस्तियों में सम्पूर्ण देश में आने वाले ई-कचरे का ४० फीसदी हिस्सा रिसाइकिल किया जाता है । हमारी तरक्की ही हमारे खिलाफ न हो जाए और हमारा देश दुनिया के ई-कचरे के डंपिग ग्राउंड में तबदील होकर न रह जाए इस बाबत सरकार और जनता, दोनों स्तरों पर जागृति की जरूरत है । 

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