गुरुवार, 19 जनवरी 2017

जीव जगत
पशु संरक्षण की आवश्यकता 
प्रो. किशोरी लाल व्यास 

प्राचीन काल में मनुष्य ने कुछ पशुआें को पालित बना लिया था, जिनमें गाय, भैंस, ऊँट, बकरी, भे इत्यादि प्रमुख है । ये पशु मनुष्य के लिए अनेक प्रकार से उपयोगी है । गाय को प्राचीन काल से ही भारत में माता का दर्जा प्राप्त् है । 
आज पशुआें के प्रति हमारी दृष्टि बदल गई है । आज की उपभोक्तावादी संस्कृति में गाय, भैंस आदि पशुआें को माँस, चमड़ा, अस्थियाँ आदि का स्त्रोत मान लिया गया है । 
आज भी भारत की अधिकांश कृषि पशुआें पर निर्भर है । इसी कारण हमारे किसानों के लिए गाय-बैल बछड़े भैस आदि जानवर पशु न होकर, उनके अपने आत्मीय है । 
भारतीय किसान के लिए पशु आज भी वस्तु या मांस का लोथड़ा नहीं हैं, वे उनके सुख-दु:ख के साथी, है । किसान गाय भैंसों से दूध प्राप्त् करता है, बछड़े प्राप्त् करता है उन्हें पालता और बड़ा करता है । बछड़े बैल बनते हैं जो खेती में तथा परिवहन में किसानों की चौबीसों घंटे सहायता करते हैं । 
जो गांव शहरो के निकट बसे हैं या शहरों की सीमा में आते है, उन गॉवों पर शहर के प्रदूषण का भयंकर प्रभाव पड़ता है । उदाहरणार्थ - मुसी नदी के तट पर बसा हैदराबाद शहर। शहर की सारी गंदगी, कचरा, नालियाँ, रासायनिक-प्रदूषण, खेती के और घरो के अपशिष्ट बहकर मूसी नदी मेंगिरते हैं गत पचास वर्षो में मूसी नदी, नदी न रहकर एक बड़ी सी गंदी नाली बन गई है । उस नदी का परिसर कचरे से पटा है । 
अब मूसी नदी का प्रदूषित जल आगे जाकर घास के बड़े-बड़े मैदानों में सिंचाई के कामआता है । इसी पानी से सब्जियाँ, फल आदि उगाये जाते हैं । यह घांस प्रतिदिन गाँवों में गाय-भैंसों को खिलाई जाती है । इन्हीं पशुआें का दुध गांव वालों व शहर वाले उपयोग में लाते हैं । इस दुध को गर्म करने पर बदबू उठती   है । इस दूध का विश्लेषण करने पर इसमें डी.डी.टी., रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों के अवशेष, फेक्टरियों के रसायन, जैसे - जस्ता, पारा, शीशा पेंटस आदि घुले मिलते  हैं । इस प्रकार पर्यावरण विनाश का चक्र चलता है । प्रतिदिन हरी सब्जियों, फलों आदि के माध्यम से हम न जाने कितना रसायन खाते होंगे । 
यही हाल शहरों के निकट बसे सारे गांवों का है । गोमती नदी लखनऊ द्वारा, गंगा-कानपुर, वाराणसी, पटना आदि गंगा द्वारा गोदावरी-राजमहेन्द्री द्वारा कृष्णा विजयवाड़ा द्वारा देश की सारी नदियाँ आज भारी प्रदूषण लेकर बह रही है । इस पर्यावरण विनाश के शिकार है - किसान, सामान्य जन और पशु  पक्षी । किसी की गलती की सजा, कोई पाये, पर्यावरण विनाश का मारा, कहाँ कहाँ जाए ?
कमोबेश यह स्थिति देश के सारे किसानों की, मजदूरों की बच्चें की और उपभोक्ताआें की हो गई है । पता नहीं हम क्या खा-पी रहे हैं । कौन सा रसायन हमारे शरीर में जाकर कौन सी बीमारी पैदा कर रहा है । आज सारा भारत मिला वह तथा प्रदूषण से त्रस्त है । एक समय ऐसा था कि भारत देश अपनी पशु संपदा के लिए विश्व में अव्वल था । भारत के किसान तो अपने पशुआें को जान से अधिक प्यार करते थे । गाय, बैंल, भैंस, ऊँट आदि की रक्षा में वे प्राण देने में भी पीछे नहीं हटते थे । 
जोधपुर (राज.) में गांवों में आज भी पशु-पक्षी को कोई नहीं मारता । हिरण, चितल, मोर आदि ग्रामीणों के घरों में स्वछन्द घूमते    हैं । आज ये ढाई सौ वर्ष पूर्व खेजड़ी वृक्षों को बचाने के लिए २७२ लोगों ने अपना बलिदान दिया था । अमृत देवी नामक महिला पहली स्त्री थी जो उनके नेतृत्व में पेड़ों को बचाने के लिए ३६३ लोग शहीद हो गये थे । इससे प्रेरणा पाकर हिमालय में चिपको आंदोलन शुरू हुआ था । 
आज स्थित उलट गई है । भारत की आजादी के बाद कई शहरों में बड़े-बड़े यांत्रिक कत्लखाने खुल गये । केवल हैदराबाद मेंही अलकबीर, अल्लाना आदि कत्लखाने खुल गये जिसमें प्रतिदिन ५ से १० हजार पशु व्यवसाय यांत्रिक उपकरणों से पश्चिमी देशों के ढंग पर काटे जाते हैं । छोटे-छोटे बछडे तक नहीं छोड़े जाते, उनका मांस पेटी बंद कर मिडिल इस्ट के देशों को हवाई जहाज द्वारा भेजा जाता है । बदले में भारत देश अरब देशों से पेट्रोल डीजल खरीदता है, और खेती का यांत्रिक बनाता जा रहा है । इसका परिणाम क्या होगा ?
हमारी पशु संपदा तो नष्ट हो ही रही है, हम ट्रेक्टरो आदि यंत्रों को चलाने के लिए ईधन के लिए अरब देशों पर निर्भर होते जा रहे हैं । गत दस वर्षो में हैदराबाद के चारो ओर गांवों से लाखो गाय, बैल, भैंस- बछड़े, पाडे खरीद कर, काट दिये गये, उनका मांस निर्यात किया   गया । 
हमारी कृषि और परिवहन की निर्भरता पेट्रोल डीजल पर बढ़ती   गई । महंगाई, बेरोजगारी और भुखमरी बढ़ती गई । पशु के प्रति प्रेमदृष्टि समाप्त् होकर व्यापारी दृष्टि विकसित हो गई । पशु सम्पदा की इस दयनीय स्थिति से एक ओर दु:ख होता है तो दूसरी ओर उन यांत्रिक कत्लखानों से बढ़ते प्रदूषण के कारण समस्याएं और जटिल होती जा रही है । दुर्भाग्य की बात यह है कि हर छोटे बड़े शहरों में ऐसे पशु कत्लखाने खुल गये हैं जिनमें हजारो पशु निर्ममता से मारे जाते हैं । 
सरकारी अधिकारियों के निकम्मेपन के कारण पशु-हत्यारों के हौसले इतने बुलन्द हैंकि कानून का डर तो उन्हें बिल्कुल नहीं है । यदि क्षेत्रीय ग्रामीण इन हत्याआें का विरोध करते है तो अवैध हथियारों से इन निहत्थे किसानों पर आक्रमण किया जाता है, कभी-कभी हत्याएँ तक होती है ।
पृथ्वी पर पैदा हुए प्रत्येक जीव को जीवित रहने व उसके हक को दिलाने की बाते कही गयी है । मनुष्य का कर्तव्य प्रत्येक जीव जन्तु, पशु पक्षियों की हत्याएं करना एक रोजगार बन गया है । कभी दूध की नदियां बहानेवाला यह देश आज पूरी तरह से अपना अस्तित्व खोता जा रहा है । इस प्रकार हो रही पशु हत्याआें से निरन्तर कम हो रही पशुआें की संख्या से कृषि कार्य भी पूरी तरह से प्रभावित होने के कगार पर है जिसके कारण भविष्य में दूध का भी अकाल पड़ेगा । 
पशुआें की इस सामूहिक हत्या के परिणामस्वरूप पर्यावरण का भी विनाश हो रहा है । जिन क्षेत्रों में यह अवैध धन्धा चल रहा है वहाँ मृत पशुआें के शरीर से बहने वाला खून मूत्र आदि जमीन में बोरिंग करके बड़े पाइप के सहारे जमीन के नीचे पहुंचा दिया जाता है जो क्षेत्रवासियोंके नल के पानी मेंमिलकर आता है तथा स्वास्थ को हानि पहुंचाता है । इन सबकी जानकारी कृषि विभाग, पशु पालन विभाग, नियंत्रण बोर्ड आदि सबको है, लेकिन कुछ हल नहीं निकल रहा है । 
भारत देश में पशुआें की संख्या दिन प्रतिदिन कम होती जा रही है । अत: दूध एवं दुग्ध पदार्थो के भाव बहुत बढ़ गये हैं । बड़ी निर्दयता से इन पशुआें का संहार किया जाता है । इसका दुष्परिणाम किसानों के जीवन पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पड़ता है । 
आज इस विषय पर गंभीरता से विचार करने और कार्य करने की आवश्यकता है, वरना हमारा पशुधन तो समाप्त् होगा ही, पर्यावरण की समस्याएं भी विकराल होती    जायेगी । 

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