गुरुवार, 19 जनवरी 2017

विशेष लेख
दुनिया से खत्म हो जाएंगी २५०० भाषाएं 
संध्या रायचौधरी 

हमारा समाज जैस-जैसे विकसित हो रहा है भाषा के मामले मेंहम तेजी से विपन्न होते जा रहे हैं । अध्ययन के अनुसार ९७ फीसदी लोग केवल चार भाषाएं बोलते हैं । जबकि ९६ फीसद भाषाएं केवल तीन फीसदी आबादी द्वारा बोली जा रही   है । भाषाआेंकी मौत का मातम सारी दुनिया मना रही है, पर हम भारतीय भाषाआें में से १९६ को जल्दी ही खो देंगे, जिस पर कहीं कोई चर्चा नहीं हो रही है । 
भाषा का विलुप्त् होना मनुष्य जाति के लिए सबसे खास बात है । जिस तरह मछली जल में रहती है, उसी तरह मनुष्य भाषा में । लेकिन भाषाआें की मौत फटाफट हो रही   है । बीती सदी में कोई ऐसा दशक नहीं बीता, जिसमें किसी भाषा का अंत न हुआ हो । इसी दशक में अंडमान की एक भाषा बो का अंत इसे बोलने वाली एकमात्र महिला बोआ सीनियर की मृत्यु के साथ हुआ । इसके कुछ ही दिन बाद यूनेस्को ने भाषा एटलस जारी किया, जिसके मुताबिक दुनिया की करीब ६००० भाषाआें में से २५०० के लुप्त् होने की आशंका है । 
भारत में सर्वाधिक १९६ भााषाआें पर लुप्त् होने का खतरा है । दूसरा स्थान अमेरिका का है जहां की १९२ भाषाआें पर यह संकट है । यूनेस्को के अनुसार दुनिया में १९९ भाषाएं ऐसी हैं, जिन्हें बोलने वाले १०-१० सेे भी कम लोग हैं । 
भाषा की मौत का अर्थ गहरा है । इसके साथ संस्कृति का भी अंत हो जाता है, मनुष्यों की विशिष्ट पहचान गुम हो जाती है । भाषा का मरना दुनिया की विविधता पर भी चोट है । यह हमारे एकरंगी विश्व की ओर जाते कदम का सूचक है । दुनिया के भाषा विज्ञानी इसे लेकर सांसत में हैं । वैश्वीकरण के बाद भाषाआें के विलोप में काफी तेजी आई है । आज दुनिया के करीब ९७ फीसदी लोग केवल चार भाषाएं बोलते हैं । इससे उलट दुनिया की ९६ फीसदी भाषाएं केवल तीन फीसदी आबादी द्वारा बोली जाती है । 
भाषाआें के विलुप्त् होने के कारणोंमें मनुष्यों का प्रवास, सांस्कृतिक विलोपन, भाषा के प्रति नजरिए में बदलाव, सरकारी नीतियां, शिक्षा का माध्यम, और रोजगार आदि अहम हैं । वैश्वीकरण के जिस दौर में हम आज आ पंहुचे हैं, वहां एक ही तरह का खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना, एक ही तरह की जिदंगी और एक ही तरह की भाषा का जोर है । 
आजकल अंग्रेजी सबसे अधिक थोपी जाने वाली भाषा बन गई है लेकिन ऐसा नहीं है कि दूसरी भाषाएं अतिक्रमण नहीं कर रही है । स्थानीय भाषा भी दूसरी कम प्रभावी स्थानीय भाषाआें को खा जाती है । विश्व स्तर पर अंग्रेजी ऐसा ही कर रही है । वैसे ऐसा आरोप हिंदी जैसी भाषाआें पर भी लगता है, जो क्षेत्रीय भाषाआें पर नकारात्मक असर डालती हैं । 
दुनिया के दो सबसे बड़े भाषा प्रेमी और विश्लेषक - प्रोफेसर डेविड हेरीसन और ग्रेगरी एंडरसन, जो नेशनल ज्योग्राफिक सोसायटी की भाषा विषयक परियोजना में दुनिया की खाक छान चुके हैं, ने भाषाआें के विलोपन पर काफी कुछ लिखा और बताया है । इन दोनोंविशेषज्ञों का कहना है कि विश्व की सैकड़ों भाषाएं विश्व पटल से मिटने वाली हैं । प्रशांत महासागरी द्वीप समूहों, पूर्वी साइबेरिया, उत्तरी-पश्चिमी इलाका, मध्यवर्ती दक्षिण अमेरिका भाषाई विलोपन के दृष्टिकोण से सर्वाधिक संवेदनशील क्षेत्र हैं । ये दोनों भाषा विज्ञानी कहते हैं कि भाषाआें के मिटने की दर जैन विविधता के मिटने की दर से कहीं तेज है । दोनों भाषाविदों ने पाया कि कुछ भाषाएं तो ऐसी थीं, जो आनन-फानन में ही मिट गई । अमूमन ऐसा प्राकृति आपदाआें के बाद हुआ, जिसने किसी छोटे-मोटे समुदाय को अपनी चपेट में ले लिया और उस समूह के साथ उसकी भाषा भी सदा के लिए खो  गई । वैसे ज्यादातर भाषाएं धीरे-धीरे मर रही हैं । उनका दम किसी दूसरी भाषा के हाथोंघुटता है । 
२५ साल में लुप्त् हुई भाषाएं 
* ऑस्ट्रेलिया के जनजातीय समूह मेंबोली जाने वाली दो भाषाएं यावुरू और मगाटा को बोलने वाले केवल तीन लोग बचे हैं । इसी तरह भाषा अमुरदाग है, जिसे बोलने वाला केवल एक व्यक्ति जिंदा है । 
* बो - यह ग्रेट अंडमानी भाषा इसी साल लुप्त् हुई, जब इसे बोलने वाली एकमात्र महिला बोआ सीनियर की मौत हुई । यह भाषा उत्तरी अंडमान के पश्चिमी किनारे पर बोली जाती थी । यह भाषा लिपिहीन थी इसलिए इसके सम्बंध मेंअब कोई जानकारी नहीं हैं । 
* इयाक - यह २१ जनवरी २००८ को लुप्त् हुई । इसे बोलने वाले आखरी व्यक्ति थे स्म्थि जोन्स । इयाक एक सदी पहले अलास्का के प्रशांत महासागरीय तटीय क्षेत्रों में काफी प्रचलित थी । 
* अकाला सामी - यह रूस के कोला पेनेसुएला में बोली जाती   थी । इसे बोलने वाले आखरी व्यक्ति माजा सर्जीना थे जिनकी मौत २९ दिसंबर २००३ को हुई । इसका लिखित ज्ञान इतना कम है कि इसे पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता । 
* गागुडजू - इसकी मौत २३ मई २००२ को इसे बोलने वाले आखरी व्यक्ति बिग बिल निएट्जी के साथ हुई । यह कभी उत्तरी ऑस्ट्रेलिया में बोली जाती थी । इस भाषा को काकाडू या गागाडू के नाम से भी जाना जाता है । 
* उबयेख - यह कभी तुर्की के कॉकेशियन प्रांत मेंबड़े पैमाने पर बोली जाती थी । यह क्षेत्र काला सागर के इलाके मेंपड़ता है । उबयेख के अंतिम जानकार का नाम अज्ञात है, लेकिन माना जाता है कि उनकी मृत्यु १९९२ में हुई थी  
* मुनिची - यह कभी पेरू के यूरीमागुआस प्रांत के मुनिचीस गांव में बोली जाती थी । इस भाष के अंतिम जानकार हुऐनचो इकाहुएटे थे जिनकी मौत १९९० में हुई थी । 
* कामास - इसे कामाशियन के नाम से भी जाना जाता है । यह रूस के यूराल पर्वतमाला क्षेत्र मेंबोली जाती थी । आखरी बोलने वाले कलावाडिया पोल्तोनिकोवा थे जिनकी मौत १९८९ में हो गई । भाषा का व्याकरण अभी भी उपलब्ध है । 
* मियामी इलिनाइस - यह देशज अमेरिकन भाषा थी । १९८९ में हुए अध्ययन के बाद पाया गया कि इसे बोलने वाला कोई नहीं बचा है । लुप्त् होने से महज २५ साल पहले तक अमेरिका के इलिनॉय, इंडियाना, मिशिगन, ओहायो जैसे प्रांतों में इसे बोलने वाले कुछ लोग थे ।
* नेगरहॉलैंड्स क्रिओल - यह १९८७ में लुप्त् हुई । आखरी व्यक्ति जो इस भाषा की जानकार थी वे थी श्रीमती एलिक स्टीवेंसन । यह भाषा अमेरिका के वर्जिन आइलैंड में बोली जाती थी ।
इस संदर्भ में इंटरनेट पर भारतीय भाषाआें की चर्चा भी लाजमी है । भारत सही मायने में इंटरनेट क्रांति को साकार होते देख रहा है । इसका असर तकनीक के हर क्षेत्र में दिख रहा है । इंटरनेट पर अंग्रेजी भाषा का आधिपत्य खत्म होने की शुरूआत हो गई है । गूगल में हिंदी वेब डॉट कॉम से एक ऐसी सेवा शुरू की है जो इंटरनेट पर हिंदी उपलब्ध समस्त सामग्री को एक जगह ले आई है । इसमें हिंदी वॉइस सर्च जैसी सुविधाएं भी शामिल हैं । 
इस प्रयास को गूगल ने इंडियन लैंग्वेज इंटरनेट एलाएंस (आईएलआईए) कहा है । इसका लक्ष्य २०१७ तक ३० करोड़ ऐसे नए लोगों को इंटरनेट से जोड़ना है जोे इसका इस्तेमाल र्स्माटफोन या अनय किसी मोबाइल फोन से   करेंगे । गूगल के आंकड़ों के मुताबिक, अभी देश में अंग्रेजी भाषा समझने वालों की संख्या १९.८ करोड़ है, और इनमें से ज्यादातर लोग फिलहाल इंटरनेट से जुड़े हुए हैं । 
एक तथ्य यह भी है कि भारत में इंटरनेट बाजार का विस्तार इसलिए ठहर-सा गया है क्योंकि सामग्रियां अंग्रेजी में हैं । आंकड़े बताते है कि इंटरनेट पर ५५.८ प्रतिशत सामग्री अंग्रेजी में है, जबकि दुनिया की पांच प्रतिशत  से कम आबादी अंग्रेजी का इस्तेमाल अपनी प्रथम भाषा के रूप में करती है । दुनिया के मात्र २१ प्रतिशत लोग ही अंग्रेजी की कुछ समझ रखते हैं । इसके बरक्स अरबी या हिंदी जैसी भाषाआें में, जो बड़े पैमाने पर बोली जाती हैं, इंटरनेट सामग्री क्रमश: ०.८ और ०.१ प्रतिशत ही उपलब्ध है । 
बीते कुछ वर्षोंा में इंटरनेट और विभिन्न सोशल नेटवर्किंग साइट्स जिस तरह लोगों की अभिव्यक्ति, आशाआें और अपेक्षाआें का माध्यम बनकर उभरे हैं, वह उल्लेखनीय जरूर है, मगर भारत की भाषाआें में जैसी विविधता है, वह इंटरनेट में नहीं दिखती । भारत में इंटरनेट को तभी गति दी जा सकती है जब इसकी अधिकतर सामग्री हिंदी समेत अन्य क्षेत्रीय भाषाआें में हो । परामर्श संस्था मैकेंजी का एक नया अध्ययन बताता है कि २०१७ तक भारत के जीडीपी में इंटरनेट १०० अरब डॉलर का योगदान देगा, जो २०१४ में ३० अरब डॉलर था । 
अध्ययन यह भी बताता है कि अगले तीन साल में भारत दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा इंटरनेट उपभोक्ताआें को जोड़ेगा । इसमें देश के ग्रामीण इलाकों की बड़ी भूमिका होगी । मगर इंटरनेट उपभोक्ताआें की यह रफ्तार तभी बरकरार रहेगी जब इंटरनेट सर्च अधिक सुगम बनेगी । हिंदी और अन्य भारतीय भाषाआें को इंटरनेट पर बढ़ावा देना होगा, तभी गैर अंग्रेजीभाषी लोग इंटरनेट से जयादा जुड़ेंगे । 

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