कविता
बेहिसाब जंगल कटे
कृष्ण स्वरूप शर्मा
बेहिसाब जंगल कटे, सूख गया पाताल ।
बेपानी अब हो गया, मानवता का हाल । ।
जंगल भी घबरा गये, चिंतित हैं सब जीव ।
इधर कुचलती आ रही, मानव भीड़ अजीब ।।
आवश्यक, हर जीव है, जीवन का कुछ अर्थ ।
संरक्षण इनका करें, सृजन नहीं है व्यर्थ ।।
पर्वत नंगे हो गये, नदियाँ वस्त्र विहीन ।
सन्तानों ने कर दिये, मातु पिता बेेदीन ।।
अति दूषित पर्यावरण, भूले निज तहजीब ।
मरूस्थल बढ़ते जा रहे, जंगल नहीं नसीब ।।
आरी में बन कर लगी, जब लकड़ी की मूँठ ।
अपनों ने धोखा दिया, पेड़ हो गए ठूँठ ।।
दंड कोई ऐसा मिले, मानव हत्या मान ।
हैं सजीव सब वृक्ष तो, हत्या एक समान ।।
हुए स्वार्थ में बुद्धि के, सारे बंद कपाट ।
बैठे हैं जिस पेड़ पर, रहे उसी को काट ।।
बेहिसाब जंगल कटे
कृष्ण स्वरूप शर्मा
बेहिसाब जंगल कटे, सूख गया पाताल ।
बेपानी अब हो गया, मानवता का हाल । ।
जंगल भी घबरा गये, चिंतित हैं सब जीव ।
इधर कुचलती आ रही, मानव भीड़ अजीब ।।
आवश्यक, हर जीव है, जीवन का कुछ अर्थ ।
संरक्षण इनका करें, सृजन नहीं है व्यर्थ ।।
पर्वत नंगे हो गये, नदियाँ वस्त्र विहीन ।
सन्तानों ने कर दिये, मातु पिता बेेदीन ।।
अति दूषित पर्यावरण, भूले निज तहजीब ।
मरूस्थल बढ़ते जा रहे, जंगल नहीं नसीब ।।
आरी में बन कर लगी, जब लकड़ी की मूँठ ।
अपनों ने धोखा दिया, पेड़ हो गए ठूँठ ।।
दंड कोई ऐसा मिले, मानव हत्या मान ।
हैं सजीव सब वृक्ष तो, हत्या एक समान ।।
हुए स्वार्थ में बुद्धि के, सारे बंद कपाट ।
बैठे हैं जिस पेड़ पर, रहे उसी को काट ।।
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