सोमवार, 19 जून 2017

स्वास्थ्य
खून का लेन-देन और मैचिंग
एस. अनंतनारायणन

रक्ताधाम (खून चढाना) एक उपयोगी जीवन रक्षक तभी बन पाया जब १९०१ में रक्त समूहों की खोज हो गई । उससे पहले किसी मरीज का बहुत खून बह जाने या सर्जरी के बाद रक्ताधाम कभी-कभी मरीज के लिए जीवनदायक तो कभी-कभी जानलेवा साबित होता था । प्राय: ऐसा होता था कि मरीज खून की कमी से नहीं बल्कि किसी अन्य व्यक्ति का खून चढ़ाने के कारण मौत का शिकार हो जाता था । 
ऑस्ट्रिया के वैज्ञानिक कार्ल लैण्डस्टाइनर इस खोज के आधार पर आगे अनुसंधान कर रहे थे कि अलग-अलग जन्तु और पादप प्रजातियों में प्रोटीन में अंतर होते है और प्रोटीन हर प्रजाति के लिए विशिष्ट होते है । 
दरअसल उन्होनें देखा कि अलग-अलग अंगो में भी विशेष प्रोटीन्स पाए जाते है और यहां तक कि एक ही जन्तु के अलग-अलग हिस्सों के निर्माण के लिए अलग-अलग प्रोटीन्स की जरूरत होती है । यह मानव-निर्मित मशीनों जैसा नहीं था जहां अलग-अलग हिस्से एक ही पदार्थ से बनाए जा सकते हैं । 
     यह समझने के लिए कि क्या वे अंतर एक ही प्रजाति के सदस्यों के बीच भी पाए जाते हैं । लैण्डस्टाइनर ने विभिन्न व्यक्तियों की लाल रक्त कोशिकाआें और रक्त सीरम को आपस में मिलाने की कोशिश  की । उन्होंने देखा कि कुछ मामलों में तो ऐसा लगता है जैसे किसी व्यक्ति के खून को उसी के खून में मिलाया गया हो । किन्तु कुछ मामलों में दो व्यक्तियों का खून मिलाने पर खून के थक्के बनने लगते थे अर्थात खून के अंश आपस में चिपक जाते थे । 
ऐसे अलग-अलग खून के नमूनों के साथ काम करते हुए लैण्डस्टाइनर ने दर्शाया कि ४ रक्त होते है - अ, इ, अइ और ज तथा विभिन्न रक्त समूहों के मिलाने पर तालिका में दिखाए अनुसार परिणाम प्राप्त् होते हैं । 
तालिका से स्पष्ट है कि रक्त समूह अ और इ के व्यक्ति को या तो उसी समूह का रक्त दिया जा सकता है या ज समूह का । किन्तु ज समूह के व्यक्ति को सिर्फ ज समूह का रक्त देना होगा । दूसरी ओर, ज समूह का रक्त किसी भी समूह के लिए चल जाएगा । तो अइ सार्वभौमिक ग्राही है । जबकि ज समूह सार्वभौतिक दाता है । गलत रक्त समूह का खून देने पर खून के थक्के बनने लगते हैं । परिणाम यह होता है कि रक्त प्रवाह में बाधा पहुंचती है या अन्य अंगों का कामकाज प्रभावित होता है और मरीज की मृत्यु हो जाती है । 
अब हम मानते है कि मानव रक्त कोशिकाआें की सतह पर विशिष्ट प्रोटीन्स होते है । इन्हें हम अ, इ और ज नाम से जानते हैं । किसी-किसी कोशिका पर अ व इ दोनों प्रोटीन्स पाए जाते हैं । सतह पर पाए जाने वाले ये प्रोटीन्स एंटीजन होते हैं । अर्थात जब कोई पराई वस्तु इनके संपर्क मेंआती है तो ये उसके खिलाफ प्रतिक्रिया करते है, बशर्ते कि उस पराई वस्तु पर ऐसे रासायनिक चिन्ह हो जिन्हें ये प्रोटीन पहचानते हो । रक्त सीरम में एंटीबॉडी पाई जाती हैं । एंटीबॉडी में पदार्थ होते है जो एंटीजन को प्रतिक्रियाकरने को उकसाते हैं । 
अ और इ रक्त समूह के खून की कोशिकाआें पर क्रमश: अ और इ एंटीजन पाए जाते हैं । किन्तु इन रक्त के सीरम में जो एंटीबॉडी होती हैं वे इनके विपरीत होती हैं । अर्थात अ रक्त समूह के खून के सीरम मेंइ एंटीबॉडी होती है जबकि उक्त इ समूह के खून के सीरम में अ एंटीबॉडी होती है । अइ रक्त समूह के खून की कोशिकाआेंपर दोनों एंटीजन होते हैं किन्तु सीरम में कोई एंटीबॉडी नहीं होती । इसके विपरीत ज समूह के रक्त में कोई एंटीजन होता जबकि सीरम में दोनों एंटीबॉडी होती है । 
परिणाम वही होता है जो हमने ऊपर की तालिका में देखा । अ और इ समूह वाले लोग अपने ही रक्त समूह का ज या समूह का खून ले सकते हैं । अइ समूह, जिसमें कोई एंटीबॉडी नहीं होती, वह किसी भी समूह का खून प्राप्त् कर सकता है । ज समूह के खून में दोनों एंटीबॉडी होती है, और उसे किसी अन्य समूह का रक्त नहीं दिया जा सकता सिर्फ ज समूह का ही रक्त दिया जा सकता है । चूंकि इस खून में कोई एंटीजन नहीं होता इसलिए यह खून किसी को भी दिया जा सकता है । 
रक्त समूहों के वर्गीकरण का तत्काल प्रभाव यह हुआ है कि खून चढ़ाने से पहले खून की जांच करके मैचिंग किया जा सकता था । परिणाम नाटकीय थे । सर्जरी के बाद और एनीमिया के मामलों में खून देना कहीं अधिक सुरक्षित हो यगा । इसके कुछ वर्षो बाद एक ओर खोज हुई कि रक्त कोशिकाआें की सतह पर एक और प्रोटीन पाया जाता है जिसे आरएच फैक्टर कहते है । इस मामले मे भी एक एंटीजन और एक एंटीबॉडी होती है । जिन लोगो के खून की कोशिकाआेंपर यह  फैक्टर होता है उन्हें आरएच धनात्मक कहते हैं और उनमें कोई आरएच धनात्मक कहते हैं और उनमे कोई आरएच-एंटीबॉडी नहीं होती । दूसरी ओर यदि आरएच ऋणात्मक व्यक्ति को आरएच फैक्टर युक्त खून दिया जाए उनमें इसके खिलाफ एंटीबॉडी बन जाती है । इसलिए आरएच ऋणात्मक खून दिया जाना चाहिए जबकि आरएच धनात्मक व्यक्ति को आरएच ऋणात्मक खून भी चल जाता है । रक्त समूहों की खोज के लिए कार्ल लैण्डस्टाइनर को १९३० में नोबेल से सम्मानित किया गया था । 

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