सोमवार, 19 जून 2017

सामयिक
आज अच्छे अनुसंधान की शर्ते क्या हैं ?
डॉ. अश्विन शेषशायी 
क्या भारत की शिक्षा व्यवस्था उन छात्रों को स्टेम कोशिका के जीव विज्ञान मेंशोध करने के लिए तैयार कर सकती है जिन्होंने कम्प्यूटर विज्ञान और संगीत में स्नातक उपाधि ली हो ? करना तो चाहिए । 
यह भारत सरकार के लिए गहमा-गहमी का वक्त है । इस सरकार ने परिवर्तन का वादा किया था । जहां आंतकी शिविरों के विरूद्ध सर्जिकल स्ट्राइक और अर्थव्यवस्था बहस के केन्द्र में हैं - कम से कम शब्दों में - वहीं शिक्षा में बदलाव और कौशल विकास की बातें मुख्य धारा विमर्श में से नदारद हो चुकी हैं । उदाहरण के लिए, एक नई शिक्षा नीति का निर्माण किया जा रहा है जिसके घोषित लक्ष्यों में सामाजिक सुधार शामिल है । इसमें शिक्षा को वहनीय बनाना और बालिका शिक्षा के अलावा विश्व स्तरीय कामगार दल विकसित करना भी शामिल है । 
हम यहां इस बारे मेें विचार नहीं करेंगे कि शिक्षा को समाज के सारे तबकों तक कैसेपहुंचाया जाए या कॉलेज में पहुंचने वाले विद्यार्थियों के लिए सर्वोत्तम शिक्षा कैसी हो । हम यह बात करेंगे कि विज्ञान में सर्वोच्च् स्तर के अकादमिक शोध में युवाआें से, अर्थात स्नातक उपाधि हासिल करने के बाद पीएच.डी. उपाधि हेतु शोध में आने वाले विद्यार्थियों से क्या अपेक्षा होती है । 
हाई स्कूल व कॉलेज के मूल्यांकन के लिए अकादमिक शोध सही मापदंड क्यों है ? गहन अनुसंधान के लिए दो चीजें जरूरी होती है : (क) आलोचनात्मक और रचनात्मक ढंग से सोच पाना और (क) काम करवा पाना । संभवत: ये दो हुनर व्यापारिक क्षेत्र में भी सर्वोच्च् स्तर पर जरूरी होंगे । इसलिए ऐसी शिक्षा प्रदान करना जो युवा मस्तिष्कों में इन दो आदतों का विकास कर पाए सिर्फ अकादमिक दृष्टि से ही जरूरी नहीं है । इतना कहने के बाद यह देखते हैं कि जीव विज्ञान जैसे बहु-विषयी क्षेत्र में अकादमिक शोध के मापदंड क्या है । 
क्या हमें रचनात्मक सोच की जरूरत है / क्या हमें नवाचारों की जरूरत है ? पिछली कुछ सदियों या शायद सहस्त्राब्दियों में मनुष्य के जेनेटिक विकास के मुकाबले सांस्कृतिक विकास का पलड़ा भारी रहा है । हमने अपनी दुनिया को इतनी तेज रफ्तार से बदला है कि अगले कुछ दशकों या आजकल के स्मार्टफोन के युग में शायद वर्षो और महीनों में हमारे बासी पड़ जाने का खतरा है । यह सब हुआ क्योंकि मानवजाति में नवाचार की जबरदस्त क्षमता है । दीर्घावधि में और पीछे मुड़कर देखे तो शायद इस सबसे कुछ अच्छा हासिल नहीं हुआ होगा किन्तु जो हो गया वह हो गया । सवाल है कि हम आगे कैसे बढ़े । 
हमें निर्जीव और जैविक विश्व के बीच अंतक्रियाआें के निहायत पेचीदा जाल को समझना होगा, तभी हम इस तंत्र में किसी भी गडबड़ी के परिणामों की भविष्यवाणी कर पाएंगे । और गड़बडियां सघन रूप में और तेज गति से हो रही है । इनमें अर्थ व्यवस्था और वायुमण्डल में बेतरबीब झटकों की भूमिका कम नहीं है । ये झटके हर किस्म के हैंऔर बात को पूरी तरह समझे बगैर दिए जा रहे हैं कि ये हमारा निर्वाह करने वाले नेटवर्क को किस तरह डांवाडोल करते हैं । 
हालांकि नियामक संस्थाआें का काम यह सुनिश्चित करना है कि इस तरह की गड़बड़ियां न्यूनतम रहें मगर वे तभी यह भूमिका निभाने की स्थिति में होगी जब उनके पास पर्याप्त् आंकड़े हो और भविष्यवाणी के कारगर औजार हो । यह बड़ी संख्या में किए गए शोध अध्ययनों से ही संभव होगा और ये अध्ययन प्राय: अकादमिक प्रकृति के होगें । 
अकादमिक अनुसंधान का मकसद हमारी दुनिया और उससे बहार नई चीजें खोजना और उनके बारे में जांचने योग्य भविष्यवाणियां करना होता है । इस प्रक्रिया में इस बात के मापदण्ड तय किए जाते हैं कि वैध खोज किसे कहा जाएगा । सामान्यत: एक परिकल्पना बनाई जाती है, और उसका खंडन करने के लिए प्रयोग किए जातें है । परिकल्पना तब तक टिकी रहती है जब तक कि उसका खंडन नहीं हो जाता । 
परिकल्पना की परख प्राय: सिर्फ प्रयोग के चुनाव से नहींबल्कि इस बात से तय होती है कि वह प्रयोग कितने अच्छे से किया गया । अन्यथा कोई बेढंगा प्रयोगकर्ता तो प्रयोग करके गुरूत्वाकर्षण के सिद्धांत का भी खंडन कर देगा । अर्थात् एक शोधकर्ता के लिए बुनियादी शर्त यह है कि वह किसी परिकल्पना की जांच के लिए सही प्रयोग डिजाइन करके उसे ठीक से अंजाम दे सके । आप इन कामों को कितने अच्छे से कर सकेंगे, यह काफी हद तक आपके शुरूआती प्रशिक्षण की गुणवत्ता पर निर्भर करता है । 
जब कोई परिकल्पना खंडित हो जाती है, तब भी हम उससे जुड़ी हर चीज को कूड़े में नहीं फेंक देते । ऐसा अक्सर होता है कि कोई परिकल्पना सार्वभौमिक स्तर पर सही नहीं होती । किन्तु कुछ संदर्भो में सही होती है । किसी काल्पनिक दवा का उदाहरण लीजिए तो किसी ऐसी बीमारी के इलाज में काम आती है जिसका प्रकोप काफी ज्यादा होता    है । यह दवा गहन क्लीनिकल परीक्षणों से गुजरती है जिनमें कई सांख्यिकीय नियंत्रण स्थापित किए जाते हैं । इस प्रक्रिया में से यह दवा कामयाब होकर निकलती है । तब यह नियमित चिकित्सा का अंग बन जाती है और जबरदस्त ढंग से कामयाब रहती है जब तक कि कुछ ऐसे मरीज सामने नहीं आते जिनका उपचार करने में यह नाकाम रहती   है ।
अब यह सिद्धांत सार्वभौमिक नहीं रह जाता कि उक्त दवा उस बीमारी का इलाज कर देगी । किन्तु क्या हमें उस दवा को खारिज कर देना चाहिए ? शायद नहीं । हो सकता है कि चिकित्सा शोधकर्ता मिलकर यह खोज करें कि जिन मरीजों के लिए वह दवा नाकाम रहती है उन सबमें कोई ऐसी सामान्य बात है जो खून की जांच से पता चलती है । अकादमिक शोधकर्ता शायद और आगे जाकर यह दर्शा पाएं कि इन व्यक्तियों में कोई जेनेटिक उत्परिवर्तन उपस्थित है जो शरीर में इस दवा के चयापचय को प्रभावित करता है । 
परिकल्पनाआें की संदर्भ-सापेक्ष सत्यता की यह धारणा वैज्ञानिक अनुसंधान की व्याख्या को और भी मुश्किल बना देती है । इसके चलते शोधकर्ता में आलोचनात्मक सोच की जरूरत होती है । यह क्षमता भी शुरूआती बचपन में ही विकसित की जा सकती है ।
हमारे सांस्कृतिक विकास की तेज रफ्तार ने हमें जानकारी जुटाने के लिहाज से एक अनोखी स्थिति में ला खड़ा किया है । इंटरनेट विशाल है, आजकल के १४० अक्षरों के प्रेम के कारण इसमें गहराई कम है, फैलाव ज्यादा है । किन्तु जो लोग तलाश करते हैं, उनके लिए इसमें गहराई भी है और इसे एक अच्छी बात माना जाता है । अलबत्ता, मन में कई बार संदेह होता है कि जानकारी तक आसान पहुंच क्या एक अच्छी चीज है । मसलन, क्या यह रचनात्मक सोच को कुंद कर सकती है ?
आज जब कोई बच्च एक तथ्य सीखता है और उसकी पीछे का क्यों जानने का उत्सुक होता है तो उसके लिए इंटरनेट पर जाकर उत्तर पाना बहुत आसान होता है - बजाय इसके कि वह समस्या के हल के संभावित मार्गो के बारे में सोचने की प्रक्रिया से गुजरे और पुस्तकालय से जवाब के बारे मेंसुराग खोजे और अंतत: तय करे कि क्या उसका जवाब सही है । 
जानकारी की भरमार के इस युग में या तो बच्च संत हो या वह सवाल विज्ञान के एकदम अग्रणी क्षेत्र से संबंधित हो, तभी बच्च्े के लिए पुरानी शैली का सोचना और बुदबुदाना उस सवाल की गुत्थी को सुलझाने के लिए जरूरी होगा । मगर बच्च्े संत नहीं है और हमेशा अग्रणी क्षेत्रों में काम नहीं करते । हमारे शिक्षाविद् इस समस्या के बारे में क्या सोचते हैं और इसके बारे में क्या करना चाहते है ? इस सवाल का जवाब महत्वपूर्ण है । 
इंटरनेट और डिजिटलीकरण का जाल सिर्फ सूचनाआें के प्रसार तक सीमित नहीं है । यह तो और आगे जाकर हमारे लिए सारे काम कर देना चाहता है । जीव विज्ञान में ऐसे कई रेडीमेड, आसान सॉफ्टवेयर उपलब्ध हैं जो हमें कई काम तेजी से करने में मदद करते हैं । इनकी लोकप्रियता का प्रभाव यह हुआ है कि हमने स्नातक छात्रों की एक पीढ़ी तैयार की है जो सॉफ्टवेयर को चलाने वाला कोई बटन दबाने या कोई निर्देश टाइप करने में दक्ष है मगर उन्हें इस बात की कोई समझ नहीं होती कि सॉफ्टवेयर जो गणनाएं करता है उसकी विधि क्या है अथवा उसके पीछे मान्यताएं क्या है । 
उदाहरण के लिए, एक सॉफ्टवेयर उपलब्ध है जो यह भविष्यवाणी कर सकता है कि क्या कोई औषधि किसी प्रोटीन से जुड़ेगी और कहां जुड़ेगी । किन्तु इस भविष्यवाणी के लिए कुछ मान्यताएं ली जाती है जिनसे इस भविष्यवाणी को सरल बनाने में मदद मिलती    है । हमारे देश के बायोइंफॉर्मेटिक्स के कई छात्र ऐसे औजारों का उपयोग करते हैं किन्तु उनके पास ऐसी आणविक अंतर्क्रियाआें का निर्धारण करने वाले भौतिक बलों की समझ का अभाव होता है । कहना न होगा कि आंख मूंदकर ऐसे सॉफ्टवेयर का उपयोग करने से साफ्-सुथरे निष्कर्ष निकल सकते हैं जो शायद सही न  हो । यह बहुत महंगा पड़ सकता है । 
अंतत: हमारी शिक्षा प्रणाली देर से उभरने वाले या विषय बदलने वालों को नापसंद करती है । जैसे यदि किसी प्रतिभावन छात्र ने अर्थ शास्त्र में बी.ए. किया है और वह पश्चिमी देशों की यात्रा किए बगैर रसायन शास्त्र में प्रवेश करना चाहे, तो इसकी कितनी गुंजाइश है ? बहुत कम । अक्सर, १७-१८ वर्षीय छात्र द्वारा, तमाम सामाजिक दबाव झेल रहे अपने पालकों की संगत में चुने गए प्रथम स्नातक विषय पत्थर की लकीर बन जाते हैं । यह बहुत बुरी बात है । 
विज्ञान को अक्सर मानविकी से लाभ मिलता है । हमारे जीवन में विज्ञान के स्थान व भूमिका से संबंधित सवालों के जवाब प्राय: इतिहास और दर्शन शास्त्र से मिलते हैं । इन विषयों की नासमझी किसी कामकाजी वैज्ञानिक के लिए लाभदायक कम, हानिकारक ही ज्यादा हो सकती है । जहां तक मेरी जानकारी है, बहुत थोड़े से क्रीमी लेयर संस्थान ही विज्ञान के पाठ्यक्रम में मानविकी की शिक्षा को शामिल करते हैं । किन्तु इस मानविकी शिक्षा की प्रथा का क्रीमी लेयर में सीमित रहना एक बड़ी खामी है क्योंकि इन उत्कृष्ट संस्थानों में प्रवेश निहायत मुश्किल होता है ।  

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