सोमवार, 19 जून 2017

ज्ञान-विज्ञान
अंतरिक्ष में भी धूल उड़ती है !
अंतरिक्ष में हमारे द्वारा छोड़े गए उपग्रहों, अंतरिक्ष स्टेशनों के अलावा भी बहुत कुछ है । नासा के मुताबिक हमारे आसपास के अंतरिक्ष में क्रिकेट गेंद के आकार की २१ हजार वस्तुएं भट रह हैं। यह मुख्यत: उपग्रहों का मलबा है । किन्तुइन सबसे ज्यादा संख्या छोटे-छोटे कणों की है । ऐसे अरबों कण निकट अंतरिक्ष में मौजूद है । 
स्टेनफोर्ड विश्वविघालय की भौतिक शास्त्री और खगोल इंजीनियर सिग्रिड क्लोज का कहना है कि ये छोटे-छोटे कण बहुत तेज रफ्तार से घूम रहे हैं। इन कणों का आकार तो रेत के कणों से भी कम है किन्तु ये ६० कि.मी. प्रति सेकण्ड की रफ्तार से चलते है । जहां बड़े-बड़े टुकड़ों से भौतिक क्षति का खतरा होता है वहीं ये छोटे-छोटे करण उपग्रहों को विद्युतीय क्षति पहुंचाते है । 
अंतरिक्ष में कई सारी नाकामियों और गड़बड़ियों के प्रत्यक्ष भौतिक कारण पता नहीं चलते है और उन्हें अज्ञात कारण के खाते में डाल दिया जाता है । क्लोज और उनके साथी एलेक्स फ्लेचर का मत है कि ये गड़बड़ियां प्राय: इन छोटे-छोटे कणों के कारण होती हैं । उन्होंने प्लाज्मा भौतिकी के सिद्धान्तों के अनुसार पूरे मामले का गणितीय विश्लेषण किया है । फिजिक्स ऑफ प्लाज्मास में प्रकाशित उनके शोध पत्र के मुताबिक होता यह है कि सबसे पहले तो धूल के ये कण अत्यन्त तेज गति से किसी अंतरिक्ष यान से टकराते हैं । टक्कर के कारण उत्पन्न गर्मीकी वजह से यह कण औश्र अंतरिक्ष यान का बहुत थोड़ा सा हिस्सा वाष्पीकृत हो जाता है और आयनीकृत हो जाता   है । आयनीकरण के चलते वहां आयानों और इलेक्ट्रॉन का एक बादल सा बन जाता है । और ये सब अलग-अलग गति से इधर-उधर बिखरते है । फिर आयन इलेक्ट्रॉन को वापिस आकर्षित करते हैं । यह खेल चलता रहता है किन्तु इलेक्ट्रॉन की हलचल के कारण विद्युत चुंबकीय विकिरण पैदा होता है । क्लोज और फ्लेचर का विश्लेषण बताता है कि उपग्रहों की कुछ क्षतियों की व्याख्या इलेक्ट्रॉनों की इस हलचल के आधार पर हो सकती है । उन्होंने अपने शोध पत्र में यह तो नहीं बताया है कि इस समस्या के बारे में क्या किया जा सकता है किन्तु उनका मानना है कि अंतरिक्ष को और जानने की जरूरत है ताकि अंतरिक्ष उड़ानों को सुरक्षित बनाया जा सके ।

मानव सदृश जीव का लगभग पूरा कंकाल मिला
दक्षिण अफ्रीका की एक गुफा राइजिंग स्टार में से मानव सदृश जीवों के जीवाश्म मिलने का सिलसिला जारी है । ४ वर्ष पहले यहां से १५०० हडि्डयां मिली थी और अब १३० हडि्डयां तथा एक दांत और मिला   है । यह खोज दक्षिण अफ्रीका के विटवाटर्सरैंड विश्वविघालय के ली बर्जर और उनके साथियों ने की है । 
बर्जर की टीम ने जल्दी ही यह समझ लिया कि ये सारी हडि्डयां मनुष्य के एक प्राचीन सहोदर की है जिसे उन्होंने होमो नलेडी नाम दिया है । इसमें से उन्हें एक कंकाललगभग पूरा का पूरा मिला  है । इसकी कद-काठी छोटी है किन्तु हाथ और पैर बिल्कुल आधुनिक मनुष्य जैसे है जबकि कुल्हे और कंधे ऑस्ट्रेलोपेथिकस नामक वनमानुष से मिलते-जुलते हैं । ऑस्ट्रेलोपेथिक्स विलुप्त् प्राणी है जिसके अब जीवाश्म ही मिलते हैं । 
दरअसल टीम ने स्पष्ट किया है कि अभी जो हडि्डयां मिली हैं वे तीन जीवों की है किन्तु अधिकांशत: एक ही जीव की हैं । इसे इक्कसवीं सदी की सबसे बड़ी जीवाश्म खोज कहा गया है । 
हडि्डयां के आकार के आधार पर अनुमान लगाया गया है कि इस प्राणी का कद लगभग १.४ मीटर रहा होगा और वजन करीब ४० किलोग्राम । वैज्ञानिकों ने यह भी अनुमान लगाने की कोशिश की है कि ये जीवाश्म लगभग किस काल के होंगे । यह अनुमान लगाना मुश्किल था क्योंकि ये जीवाश्म ठोस चट्टान में नहीं बल्कि ढीली-ढाली तलछट में प्राप्त् हुए हैं । बहरहाल, तलछट और वहां पाए गए चूना पत्थर में आइसोटॉप्स का विश्लेषण करने पर पता चला है कि ये जीवाश्म २,३०,००० से लेकर ४,१५,००० वर्ष पुराने हो सकते है । होमो नलेडी के दांतों का भी आइसोटॉप विश्लेषण किया गया तो पता चला कि इनका काल २,३६,००० से ३,३५,००० वर्ष पूर्व का है । गौरतलब है कि कई तत्व आइसोटॉप के रूप में पाए जाते हैं, जिनका विघटन एक निश्चित गति से होता है । अत: किसी नमूने में एक ही तत्व के विभिन्न आइसोटॉप्स का अनुपात देखकर बताया जा सकता है कि यह कितना पुराना है । 
यदि यह समय माना जाए, तो कहा जा सकता है कि होमो नलेडी दक्षिण अफ्रीका में स्वयं हमारी प्रजाति होगी सेपियन्स का समकालीन रहा होगा या कम से कम कुछ समय तो दोनों ने साथ-साथ बिताया होगा । यह बात इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि होमो नलेडी वर्तमान मनुष्य से काफी भिन्न था । इससे लगता है कि होमो वंश में कई अन्य शाखाएं पैदा हुई थी और ये साथ-साथ अस्तित्व में थी । 

एस्पिरिन के नए चमत्कार
एस्पिरिन एक ऐसी औषधि है जिसके नित नए उपयोग सामने आते हैं । पहले-पहले इसे एक पेड़ की पत्तियों से निकाला गया था और इसका उपयोग दर्द निवारक के रूप में किया जाता था । धीरे-धीरे इसका उपयोग गठिया तथा बुखार में किया जाने लगा । फिर बात आगे ब़ी और एस्पिरिन ह्दयघात, स्ट्रोक्स तथा कुछ किस्म के कैंसर की रोकथाम में भी प्रभावी पाई गई । आज दुनिया भर में एस्पिरिन की वार्षिक खपत १२० अरब गोलियों की है । 
एस्पिरिन की इन विभिन्न भूमिकाआें की क्रियाविधियों पर काफी अनुसंधान किया गया है ।  और अब वैज्ञानिकों ने एस्पिरिन का एक और उपयोग खोज निकाला है । ऐसा कहा जा रहा है कि एस्पिरिन कैंसर कोशिकाआें को शरीर में एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचने से रोकती है - वैज्ञानिक भाषा में एस्पिरिन मेटास्टेसिस को रोकती है । आखिर कैसे ? इसे समझने के लिए पहले देखना होगा कि मेटास्टेसिस होता कैसे है । 
मेटास्टेसिस एक जटिल प्रक्रिया है । विचित्र बात यह है कि इसके लिए कैंसर कोशिका और आपके शरीर की कोशिकाआें के बीच सहयोग की जरूरत पड़ती है । सबसे पहले तो कुछ कैंसर कोशिकाआें को अपनी मूल गठान से टूटकर अलग होना पड़ेगा । फिर इन्हें आसपास किसी रक्त वाहिनी की दिवार को पार करके रक्त प्रवाह में पहुंचना पड़ेगा । एक बार ये कोशिकाएं रक्त प्रवाह में पहुंच गई तो ये शरीर में कहीं भी पहुंच सकती हैं । किन्तु कहीं पैर जमाने के लिए इन्हें एक बार फिर रक्त वाहिनी की दीवार को पार करके किसी अंग में प्रवेश करना होगा और वहां कोशिकाआें के बीच समाहित होकर वृद्धि करना होगी । 
हॉल ही में इस पूरी प्रक्रिया में रक्त में पाई जाने वाली एक किस्म की कोशिकाआें की भूमिका होती    है । ये कोशिकाएं प्लेटलेट्स कहलाती है और इनकी सबसे मशहूर भूमिका खून का थक्का बनने में देखी गई  है ।

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