सोमवार, 19 जून 2017

हमारा भूमण्डल
खाद्य बहुलता के मध्य भूखे पेट
फीलहेरिस
जलवायु परिवर्तन और कृषि के बीच करीबी संबंध है, जिसका खाद्यान्न फसलों और भोजन की उपलब्धता पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है । दुनिया में कृषि पर होने वाले प्रभावों  का आकलन और कृषि में     समग्र बदलाव की जरूरतें मद्देनजर हाल ही में एक रिपोर्ट जारी हुई है ।
``धन बढ़िया रहन सहन व खान पान की सुविधाएं जैसे-जैसे बड़ी मात्रा में निर्दयता पूर्वक  कुछ ही लोगोंं के पास सिमटती जा रही है। वैसे ही असमानता फैलकर कई समस्याओं को जन्म दे रही है। यह गणना की गई हैंकि ७९५ मिलीयन लोग अभी भी भूख से जूझ रहे हैं तथा वैश्विक खाद्य सुरक्षा जलवायु परिवर्तन तथा प्राकृतिक संसाधनों पर अत्यधिक दबाव से खतरे में    है । वर्ष २०५० तक विश्व की जनसंख्या में १० बिलीयन की वृद्धि होगी,जबकि वर्तमान स्तर से कृषि उत्पादन केवल ५० प्रतिशत ही बढ़ेगा । 
अत: समस्या यह होगी कि तेजी से बढ़ती आबादी का पेट किस तरह भरा जावे एवं वैश्विक कृषि उत्पादन, खाद्य सुरक्षा एवं व्यवस्था को किस प्रकार संवहनीय  या टिकाऊ (सस्टेनेबल) बनाया  जावे ?``
उपरोक्त जानकारी संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य एवं कृषि आयोग (एफएओ) ने पिछले माह रोम में जारी एक रिपोर्ट में प्रदान की है। जिसका शीर्षक है ``खाद्य एवं कृषि भविष्य``। रिपोर्ट में कृषि उत्पादन, खाद्य प्रबंधन आदि के संदर्भ में कई समस्याओं को दर्शा कर चेतावनी दी गयी है तथा समाधान के कई उपाय भी सुझाये हैं । 
आयोग का मानना है कि कृषि विस्तार तथा अधिक जल संसाधनों का उपयोग कर पैदावार बढ़ाने की सम्भावना भी काफी कम है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि कृषि आर्थिकी का गणित समझकर हमें वर्तमान कृषि भूमि से ही संसाधनों का किफायती उपयोग कर उत्पादन बढ़ाना होगा ।
इसके लिए अनाज की कुछ ऐसी किस्मों को खोजना होगा या संकरण से बनाना होगा, जो जलवायु परिवर्तन का सामना कर कम जल के उपयोग से ज्यादा उत्पादन प्रदान करे । कृषि रसायनों से पैदा खतरों को देखकर उनका भी उपयोग संभल कर किया जाना जरूरी है । वैश्विक स्तर पर अब यह स्वीकार किया गया है कि ज्यादा संसाधनों के उपयोग वाली कृषि पद्धति जो वनों का विनाश करे, जल की बर्बादी करे, भूमि को खराब करे तथा ज्यादा ग्रीनहाउस गैसों को पैदा करे,वह खाद्य या कृषि उत्पादन के लिए संपोषी नहीं हो सकती हैं। 
आयोग का सर्वाधिक जोर इस बात पर है कि वैश्विक खाद्य पदार्थों की आवश्यकता की पूर्ति हेतु वर्तमान में जो खाद्य पदार्थों की हानि कई स्तरों पर हो रही उसे एवं बर्बादी को रोकना सबसे जरूरी है। एक अध्ययन के अनुसार पूरी दुनिया में प्रतिवर्ष जितना अन्न पैदा होता है, उसका एक तिहाई भाग बर्बाद हो जाता है।
दुनिया के गरीब या कम आय वाले देशों में खाद्य पदार्थों की हानि आधार भूत रचना के उस भाव में तथा पुरानी पद्धतियों के उपयोग से कटाई एवं कटाई के बाद भी होती है । इसके साथ ही उचित भंडारण का अभाव, स्थानांतरण तथा पेंकिग कार्य आदि में भी खाद्य पदार्थों की हानि होती है। उत्तरी अमेरीका, यूरोप, जापान, तथा चीन में १५ प्रतिशत खाद्य पदार्थों की हानि और बर्बादी उपयोग एवं वितरण के मध्य होती   है । उत्तरी अफ्रीका तथा मध्य एशिया में   हानि  ११ प्रतिशत है एवं सबसे कम ५.९ प्रतिशत, लेकिन अमेरिका में है । 
रिपोर्ट यह भी कहती है कि कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ने से उन पर अतिरिक्त भार बढ़ेगा क्योंकि घरेलू कार्य में तो उनकी जिम्मेदारी है   ही । सहारा व अफ्रीका तथा लेकिन अमेरीका के देशों जैसे चिली, इक्वाडोर तथा पेरु में भी कृषि कार्यों में विशेषकर मजदूरी के रूप में महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है । १९८० से २०१० के मध्य कृषि में महिलाओं का योगदान अमेरिका से ३० से ४३ प्रतिशत तथा अफ्रीका में ३५ से ४८ प्रतिशत बढ़ा है।
कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ने से उनके परिवार व उनकी स्वयं की आर्थिक हालत सुधरेगी एवं यह कदम महिला सशक्तीकरण की ओर होगा ।
रिपोर्ट आशावादी बनकर यह विश्वास दिलाती है कि हमारे ग्रह पृथ्वी की कृषि पद्धतियां यहां के रहवासियों के उदर पोषण की पूर्ति हेतु सक्षम है, परंतु आवश्यकता इस बात की है कि दूसरे कई प्रमुख परिवर्तन किये जावे । यदि ये परिवर्तन नहीं किये जाते हैं या नहीं अपनाये जाते हैं तो वर्ष २०३० तक कई लोगों का भूखे रहना निश्चित है । 
संपोषी विकास के नए उद्देश्यों में भी वर्ष २०३० तक खाद्य असुरक्षा तथा कुपोषण उन्मूलन का लक्ष्य रखा गया है । रिपोर्ट का यह सुझाव सबसे अहम है कि हमंे समपोषी खाद्य व्यवस्था की ओर जाना होगा । जहां भूमि जल एवं रसायनों आदि का किफायती उपयोग हो, जीवाष्म ईंधन का भी न्यूनतम उपयोग हो, जैवविविधता का संरक्षण हो तथा किसी भी स्तर पर व्यर्थ में बर्बादी न हो । 
इस व्यवस्था के लिए कृषि में निवेश बढ़ाकर इसे एक लाभकारी उपक्रम बनाना होगा । उत्पादन के साथ-साथ भंडारण एवं वितरण की व्यवस्थाओं को नई तकनीकों से जोड़ना होगा ताकि उत्पादकों को अच्छा लाभ हो तथा उपभोक्ताओं को अच्छी वस्तुएं आसानी से उचित मूल्यों पर मिल सके ।

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