कविता
पावस गीत
रामधारी सिंह दिनंकर
दूर देश के अतिथि व्योम में
छाए घन काल ेसजनी,
अंग-अंग पुलकित वसुधा के
शीतल, हरियाले सजनी ।
भींग रही अलकें संध्या की,
रिमझिम बरस रही जलधर,
फूट रहे बुलबुले याकि
मेरे दिल के छाले सजनी ।
किसका मातम ? कौन बिखेरे
बाल आज नभ पर आई ?
रोई यों जी खोल, चले बह
आँसू के नाले सजनी ।
आई याद आज अलका ही,
किन्तु पंथ का ज्ञान नहीं,
विस्मृत पथ पर चले मेघ
दामिनी-दीप बाले सजनी ।
चिर-नवीन कवि-स्वप्न, यक्ष के
अब भी दीन, सजल लोचन,
उत्कंठित विरहिणी खड़ी
अब भी झूला डाले सजनी ।
बुझती नहीं जलन अंतर की,
बरसेें दृग, बरसें जलधर,
मैनें भी क्या हाय,
ह्दय में अंगारे पाले सजनी ।
धुलकर हँसा विश्व का तृण-तृण,
मेरी ही चिंता न धुली,
पल-भर को भी हाय, व्यथाएँ
टलीं नहीं टाले सजनी ।
किन्तु, आज क्षिति का मंगल क्षण,
यह मेरा क्रंदन कैसा ?
गीत मग्न घन-गगन, आज
लू भी मल्हार गा ले सजनी ।
पावस गीत
रामधारी सिंह दिनंकर
दूर देश के अतिथि व्योम में
छाए घन काल ेसजनी,
अंग-अंग पुलकित वसुधा के
शीतल, हरियाले सजनी ।
भींग रही अलकें संध्या की,
रिमझिम बरस रही जलधर,
फूट रहे बुलबुले याकि
मेरे दिल के छाले सजनी ।
किसका मातम ? कौन बिखेरे
बाल आज नभ पर आई ?
रोई यों जी खोल, चले बह
आँसू के नाले सजनी ।
आई याद आज अलका ही,
किन्तु पंथ का ज्ञान नहीं,
विस्मृत पथ पर चले मेघ
दामिनी-दीप बाले सजनी ।
चिर-नवीन कवि-स्वप्न, यक्ष के
अब भी दीन, सजल लोचन,
उत्कंठित विरहिणी खड़ी
अब भी झूला डाले सजनी ।
बुझती नहीं जलन अंतर की,
बरसेें दृग, बरसें जलधर,
मैनें भी क्या हाय,
ह्दय में अंगारे पाले सजनी ।
धुलकर हँसा विश्व का तृण-तृण,
मेरी ही चिंता न धुली,
पल-भर को भी हाय, व्यथाएँ
टलीं नहीं टाले सजनी ।
किन्तु, आज क्षिति का मंगल क्षण,
यह मेरा क्रंदन कैसा ?
गीत मग्न घन-गगन, आज
लू भी मल्हार गा ले सजनी ।
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