शनिवार, 18 अगस्त 2018

सामयिक
पौधारोपण का प्रेरणादायी इतिहास
डॉ. ओ.पी. जोशी

भारत जैसे प्रकृति पूजक देश में पर्यावरण पर गंभीर संकट खड़े हैंऔर इससे निपटने में पौधारोपण एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है । जाहिर है इसका समाधान प्रदूषण कम करने के साथ ज्यादा से ज्यादा मात्रा में पेड़ लगाने में है । 
अमूमन होता यह है कि सरकारें या स्वयंसेवी संस्थाएं जोर-शोर से बड़े पैमाने पर पौधरोपण तो करती हैं, लेकिन उनका परिणाम लगभग शून्य ही आता   है । इतिहास के कई उदाहरण बताते हैंकि पौधारोपण का कार्य कितनी भावना, निष्ठा एवं आनंदमयी तरीके से किया जाता था । हमंे इनसे प्रेरणा लेनी चाहिये । 
वर्षा काल प्रारंभ होतेे ही देश भर में पौधारोपण के आयोजन होने लगते हैंजो वृक्ष-रोपण के नाम से ज्यादा प्रचालित है । पिछले १०-१५ वर्षों में हो यदि ये आयोजन पेड़ों से लगाव पैदाकर नैतिक जिम्मेदारी से किये जाते तो शायद घटती हरियाली का संकट इतना गम्भीर नहीं होता । ज्यादातर अब ये आयोजन एक वार्षिक त्यौहार की भांति हो गये हैं, जो अपने लोगों को आमंत्रित करने तथा दूसरे दिन फोटो प्रकाशित होने तक सीमित हो गये हैं। 
हमारी सभ्यता एवं संस्कृति में पेड़ों का विशेष महत्व रहा है । पेड़  देवतुल्य माने गये हैं । इतिहास में जाकर देखेें तो हमें कई ऐसे उदाहरण मिलते हैंजहां पौधारोपण का कार्य कितने हर्षोल्लास एवं जिम्मेदारी से किया जाता था । अग्निपुराण  में तो पौधारोपण को एक पवित्र मांगलिक समारोह के रूप में बताया गया है । पौधों को रोपने के पूर्व उन्हें औषधीय पौधों के रस से नहलाया जाता था या कुछ समय के लिए डुबोया जाता था । 
इसके पीछे भावना यही होती थी कि पौधे में यदि कोई संक्रमण वगैरह हो तो समाप्त हो जावे एवं पौधे से एक स्वस्थ पेड़ बने । इसके बाद शीर्षस्थ भागों पर, जहां से वृद्धि होती है, वहां सोने की सलाई से हल्दी कुंकु लगाकर अक्षत से पूजा की जाती थी । सूर्य जब मेष राशि में हो तब किसी शुभ मुहूर्त में मंत्रोच्चर के साथ रोपित किया जाता था एवं बाद में नियमित देखभाल की जाती थी । 
गुजरात के अहमदाबाद पर ५२ वर्षों तक शासन करने वाले सुल्तान मेहमद बेगड़ा ने ६० हजार से ज्यादा पौधे रोपकर उन्हें वृक्ष बनाये । बेगड़ा के शासन काल में वर्षा के दिनों में १५ दिनों तक पौधारोपण का महोत्सव मनाया जाता  था । राजा स्वयं अपने परिवार के साथ पौधारोपण स्थल पर रहते थे । शुभ मुहूर्त में खोदे गये गढ़्ढों में बैड़बाजों की धुन  के साथ ईमली, चंदन, अशोक, पीपल तथा नीम आदि के पौधे सावधानीपूर्वक रोपे जाते थे । रोपे गये पौधों को सिंचाई हेतु कुंए भी आवश्यकता अनुसार खोदे जाते थे ।  पौधारोपण के  इन दिनों में जनता से किसी प्रकार की कोई कर वसूली नहीं की जाती थी । 
निजी भूमि पर पौधा-रोपण हेतु राजकीय कोष से सहायता भी प्रदान की जाती थी । पौधारोपण के इन दिनों में इस कार्य से जुड़े लोगों को भोजन कराया जाता था एवं जरूरत मदों को वस्त्र भी वितरित किये जाते थे । सावन माह की अंतिम पूर्णिमा के दिन जब समारोह का समापन होता था, उस समय एक घंटे मंे अधिक से अधिक पौधे रोपने वाली युवती को `वृक्षों को रानी`, नाम की पद्वी देकर उसकासम्मान किया जाता था । शांति निकेतन में गुरू रविन्द्रनाथ टैगौर द्वारा आयोजित पौधारोपण जीवंतता एवं प्रसन्नता लिए एक महकता आयोजन बन जाता था । इसी आयोजन के कारण आज शांति निकेतन में सैकड़ों वृक्ष खड़े हैं। 
गुरूवर स्वयं पेड़ पौधांे से परिजन समान प्यार कर बंधुत्व की भावना बनाये रखते थे । बंगाल में बंग पंचांग का चलन ज्यादा है जिसके तहत बाइशे श्रावण यानी सावन की बाईसवीं तिथि का काफी महत्व है । अत: शांति निकेतन में भी इसी दिन पौधारोपण किया जाता था । गुरूवर ने पौधारोपण पर गीत एवं मंत्र आदि लिखे थे जो आसानी से समझ में आ जाते थे । पौधों का रोपण खुशी का मौका तथा पवित्र अवसर माना जाता था । पौधारोपण के दिन (बाइशे श्रावण) सभी लोग सजधज कर आते थे । लड़के बसंती रंग के कुर्ते व धोतियां पहनकर कमर में दुपट्टा व सर पर बसंती रंग का ही रूमाल समान कोई कपड़ा बांधते थे । महिलाएं तथा लड़कियां भी बसंती घाघरा व साड़ी पहनकर गले में फूल मालाएं व बालों में गजरे सजाती थीं । सभी लोग एक जगह एकत्र हो फिर एक जुलूस के रूप में नाचते-गाते पूरे परिसर में घूमते । इस जुलूस के पीछे फूल-पत्तियों से सजी पौधों (बाल-तरू) की पालकी लिए पांच बच्च्े सफेद पोषाक पहने चलते थे, जो पंचभूत का प्रतिनिधित्व करते थे । 
कुछ बच्च्े पालकी के आसपास भी चलते जिनमें से कुछ झांझ मजीरे व शंख बजाकर गीत गाते एवं कुछ पौधों पर ताड़ की पत्तियों से चंवर डुलाते । निश्चित स्थानों पर जहां पहले से खोदे ग े तैयार रहते थे, वहां गीत गाते माटी की गोद में बाल तरू को इस भावना से रोपा जाता था कि धरती की कोख में अपनी विजय पताका फहराओं एवं फलांे फूलो । रोपित पौधे की सुरक्षा हेतु बांस का सुंदर कटघरा (ट्री-गार्ड) भी लगाया जाता था एवं आशीर्वाद स्वरूप मांगलिक गाये जाते थे, जिनका तात्पर्य होता था शतायु बनो, तुम्हारी छाया आंगन में बनी रहे एवं पंचभूतांे की कृपा हो । शाम के समय संगीत कार्यक्रम से समारोह समाप्त होता था।
शांति निकेतन के  इस आयोजन से सम्भवत: प्रेरणा पाकर समाज सेवी बाबा आमटे के महाराष्ट्र में स्थित आनंदवन में भी ऐसा आयोजन होने   लगा । आनंदवन से जुड़े लोगों का एक मिलन समारोह प्रतिवर्ष होता था जिसमंे कवि, साहित्यकार, नाटककार एवं गायक आदि आते थे । सामाजिक कार्यकर्ता श्री पु. ल. देशपांडे की सलाह पर मिलन समारोह के दूसरे दिन पौधा-रोपण से जुड़ा बालतरू पालकी यात्रा का कार्यक्रम जोड़ा गया । इस कार्यक्रम में बाहर से आये लोगों के साथ-साथ स्थानीय लोगों को भी शामिल किया  गया । रातभर पालकी यात्रा की तैयारी की जाती जिसमें बालतरू  के छोटे-छोटे मटके रखे जाते थे । सभी लोग स्नान कर एवं सज कर आनंदवन के एक छोर पर एकत्र होते एवं वहीं से बालतरू  की पालकी का जुलूस प्रारंभ होता । आरंभ में आनंद-वन का बैंड, फिर भजन गाती टोलियां, अखाड़े तथा सिर पर मंगल कलश लिए महिलाएं  होती  थी । 
इसके पीछे अबीर, गुलाल उड़ाती बाल-तरू की पालकी चलती थी । बाबा आमटे स्वयं भी बाल तरू पालकी उठाते   थे । पालकी जुलूस जगह जगह रूककर बाल तरू का रोपण करता जाता था । समाप्ति पर एक शमियाने में एक मंच पर पालकी रख उसका अभिवादन कर सभी लोग बिदा होते थे। इतिहास के ये उदाहरण बताते हैंकि पौधारोपण का कार्य कितनी भावना, निष्ठा एवं आनंदमयी तरीके से किया जाता था । हमंे इनसे प्रेरणा लेनी चाहिये ।                                  

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