स्वतंत्रता दिवस पर विशेष
नदी धर्म मानने से ही नदिया बचेगी
अनुपम मिश्र
दुनिया की सबसे पवित्र मानी जाने वाली नदी होने के साथ ही गंगा दुनिया की सबसे प्रदूषित नदियों में भी है ।
प्रधानमंत्री मोदी का पसंदीदा कार्यक्रम होने के बावजूद गंगा की सफाई अभी बहुत दूर की कौड़ी है । सरकार ने इस प्रोजेक्ट के लिए २०१५ में ३ अरब डॉलर की रकम खर्च करने की योजना बनाई । लेकिन पिछले दो सालों में गंगा की सफाई के लिए मिले पैसे का महज चौथाई हिस्सा ही खर्च किया है ।
सनातन धर्म से भी पुराना एक और धर्म है । वह है नदी धर्म । गंगा को बचाने की कोशिश में लगे लोगों को पहले इस धर्म को मानना पड़ेेगा ।
गंगा मैली हुई है । उसे साफ करना है । सफाई की अनेक योजनाएँ पहले भी बनी हैं । कुछ अरब रुपए इनमें बह चुके हैं । बिना कोई अच्छा परिणाम दिए । इसलिए केवल भावनाओं में बह कर हम फिर ऐसा कोई काम न करें कि इस बार भी अरबों रुपयों की योजनाएँ बनें और गंगा जस की तस गंदी ही रह जाए ।
बेटे-बेटियाँ जिदद्ी हो सकते हैं। कुपुत्र-कुपुत्री भी हो सकते हैं । पर अपने यहाँ प्राय: यही तो माना जाता है कि माता, कुमाता नहीं होती । तो जरा सोचें कि जिस गंगा माँ के बेटे-बेटी उसे स्वच्छ बनाने के प्रयत्न कोई ३०-४० बरस से कर रहे हैं वह साफ क्यों नहीं होती ? क्या इतनी जिद्दी है हमारी यह माँ ?
साधु-सन्त समाज, हर राजनीतिक दल, सामाजिक संस्थाएँ, वैज्ञानिक समुदाय, गंगा प्राधिकरण और तो और विश्व बैंक जैसा बड़ा महाजन भी गंगा को तन-मन-धन से साफ करना चाहते हैं और यह माँ ऐसी है कि साफ ही नहीं होती ।
शायद हमेंे थोड़ा रुककर कुछ धीरज के साथ इस गुत्थी को समझना चाहिए ।
अच्छा हो या बुरा हो, हर युग का एक विचार एक झंडा होता है । उसका रंग इतना जादुई, इतना चोखा होता है कि वह हर रंग के झंडों पर चढ़ जाता है । तिरंगा, लाल, दुरंगा और भगवा सब उसको नमस्कार करते हैं उसी का गान गाते है। उस युग के, उस दौर के करीब-करीब सभी मुखर लोग, मौन लोग भी उसे एक मजबूत विचार की तरह अपना लेते हैं ।
कुछ समझ कर, कुछ बिना समझे भी । तो इस युग को, पिछले कोई ६०-७० बरस को, विकास का युग माना जाता है । जिसे देखो उसे अपना यह देश पिछड़ा लगने लगा है । वह पूरी निष्ठा के साथ इसका विकास कर दिखाना चाहती है । विकास पुरुष जैसे विश्लेषण सभी समुदायों में बड़े अच्छे लगने लगे हैं ।
वापस गंगा पर लौटें । पौराणिक कथाएँ और भौगोलिक तथ्य दोनों कुल मिलाकर यही बात बताते हैं कि गंगा आपौरुशेय है । इसे किसी एक पुरुष ने नहीं बनाया। अनेक संयोग बने और गंगा को अवतरण हुआ । जन्म नहीं । भूगोल, भूगर्भ शास्त्र बताता है कि इसका जन्म हिमालय के जन्म से जुड़ा है । कोई दो करोड़ तीस लाख बरस पुरानी हलचल से । इसके साथ एक बार फिर अपनी दीवारों पर टंगे कैलेंडर देख लें ।
इस विशाल समय अवधि का विस्तार अभी हम भूल जाएं । इतना ही देखें कि प्रकृति ने गंगा को सदानीरा बनाए रखने के लिए इसे अपनी कृपा के केवल एक प्रकार-वर्षा-भर से नहीं जोड़ा । वर्षा तो चार मास ही होती है । बाकी आठ मास इसमें पानी लगातार कैसे बहे, कैसे रहे, इसके लिए प्रकृति ने उदारता का एक और रूप गंगा को दिया है । नदी का संयोग हिमनद से करवाया । जल को हिम से मिलाया ।
प्रकृति ने गंगोत्री और गौमुख हिमालय में इतनी अधिक ऊँचाई पर, इतने ऊँचे शिखरों पर रखे हैं कि वहां कभी हिम पिघल कर समाप्त नहीं होता । जब वर्षा समाप्त हो जाए तो हिम, बर्फ पिघल-पिघल कर गंगा की धारा को अविरल रखते हैं ।
तो हमारे समाज ने गंगा को माँ माना और ठेठ संस्कृत से लेकर भोजपुरी तक में ढेर सारे श्लोक मंत्र, गीत सरस सरल साहित्य रचा । समाज ने अपना पूरा धर्म उसकी रक्षा में लगा दिया । इस धर्म ने यह भी ध्यान रखा कि हमारे धर्म, सनातन धर्म से भी पुराना एक और धर्म है । वह है नदी धर्म । नदी अपने उद्गम से मुहाने तक एक धर्म का, एक रास्ते का, एक घाटी का, एक बहाव का पालन करती है। हम नदी धर्म को अलग से इसलिए नहीं पहचान पाते क्योंकि अब तक हमारी परम्परा तो उसी नदी धर्म से अपना धर्म जोड़े रखती थी ।
पर फिर न जाने कब विकास नाम के एक नए धर्म का झंडा सबसे ऊपर लहराने लगा । यह प्रसंग थोड़ा अप्रिय लगेगा पर यहां कहना ही पड़ेगा कि इस झंडे के नीचे हर नदी पर बड़े-बड़े बांध बनने लगे । एक नदी घाटी का पानी नदी धर्म के सारे अनुशासन तोड़ दूसरी घाटी में ले जाने की बड़ी-बड़ी योजनाओं पर नितांत भिन्न विचारों के राजनैतिक दलों में भी गजब की सर्वानुमति दिखने लगती है ।
अनेक राज्यों में बहने वाली भागीरथी, गंगा नर्मदा इस झंडे के नीचे आते ही अचानक माँ के बदले किसी न किसी राज्य की जीवन रेखा बन जाती हैं और फिर उसका इस राज्य में बन रहे बांधों को लेकर वातावरण में, समाज में इतना तनाव बढ़ जाता है कि कोई संवाद, स्वस्थ बातचीत की गंुजाइश ही नहीं बचती ।
दो राज्यों में एक ही राजनीतिक दल की सत्ता हो तो भी बांध, पानी का बँटवारा ऐसे झगड़े पैदा करता है कि महाभारत भी छोटा पड़ जाए । सब बड़े लोग, सत्ता में आनेवाला हर दल, हर नेतृत्व बांध से बंध जाता है। हरेक को नदी जोड़ना एक जरूरी काम लगने लगता है।
वह यह भूल जाता है कि प्रकृति जरूरत पड़ने पर ही नदियां जोड़ती है। इसके लिए वह कुछ हजार-लाख बरस तपस्या करती है, तब जाकर गंगा-यमुना इलाहाबाद मंे मिलती हैं । कृतज्ञ समाज तब उस स्थान को तीर्थ मानता है । मुहाने पर प्रकृति नदी को न जाने कितनी धाराओं में तोड़ भी देती है। बिना तोड़े नदी का संगम, मिलन सागर से हो नहीं सकता ।
तो नदी में से साफ पानी जगह-जगह बांध,नहर बना कर निकालते जाएं । सिंचाई बिजली बनाने और उद्योग चलाने के लिए विकास के लिए । अब बचा पानी तेजी से बढ़ते बड़े शहरों, राजधानियों के लिए बड़ी-बड़ी पाइपलाईन में डाल कर चुराते जाएं ।
यह भी नहीं भूलें कि अभी ३०-४० बरस पहले तक इन सभी शहरों में अनगिनत छोटे-बड़े तालाब हुआ करते थे । ये तालाब चौमासे की वर्षा को अपने में संभालते थे और शहरी क्षेत्र की बाढ़ को रोकते थे और वहां का भूजल उठाते थे । यह ऊंचा उठा भूजल फिर आने वाले आठ महीने शहरों की प्यास बुझाता था। अब इन सब जगहों पर जमीन की कीमत आसमान छू रही है ।
बिल्डर-नेता-अधिकारी मिल जुल कर पूरे देश के सारे तालाब मिटा रहे हैं । महाराष्ट्र के पुणे, मुंबई में एक ही दिन की वर्षा मंे बाढ़ आ गयी । इन्द्र का एक सुन्दर पुराना नाम, एक पर्यायवाची शब्द है पुरन्दर-पुरों को, किलों को, शहरों को तोड़ने वाले । यानि यदि हमारे शहर इन्द्र से मित्रता कर उसका पानी रोकना नहीं जानते तो फिर वह पानी बाढ़ की तरह हमारे शहरों को नष्ट करेगा ही यह पानी बह गया तो फिर गर्मी में अकाल भी आएगा ही ।
तो नदी से सारा पानी विकास के नाम पर निकालते रहें जमीन की कीमत के नाम पर तालाब मिटाते जाएं, और फिर सारे शहरों, खेतों की सारी गन्दगी, जहर नदी में मिलाते जाएंं फिर सोचें कि अब कोई नयी योजना बना कर हम नदी भी साफ कर लेंगे। नदी ही नहीं बची । गन्दा नाला बनी नदी साफ होने से रही। भरूच में जाकर देखिए रसायन उद्योग विकास के नाम पर नर्मदा को किस तरह बर्बाद किया गया है । नदियां ऐसे साफ नहीं होंगी । हमें हर बार निराशा ही हाथ लगेगी ।
तो क्या आशा बची ही नहीं, नहीं, ऐसा नहीं है । आशा है, पर तब जब हम फिर से नदी धर्म ठीक से समझें । विकास की हमारी आज जो इच्छा है उसकी ठीक जांच कर सकें । बिना कटुता के । गंगा को, हिमालय को कोई चुपचाप षड्यन्त्र करके नहीं मार रहा । ये तो सब हमारे ही लोग हैं । विकास, जी.डी.पी., नदी जोड़ो, बड़े बांध सब कुछ हो रहा है। या तो इसे एक पक्ष करता है या दूसरा पक्ष । विकास के इस झंडे के तले पक्ष-विपक्ष का भेद समाप्त हो जाता है। मराठ ी में एक सुन्दर कहावत है: रावण तोंडी रामायण । रावण खुद बखान कर रहा है । रामायण की कथा । हम ऐसे रावण न बनें ।
नदी धर्म मानने से ही नदिया बचेगी
अनुपम मिश्र
दुनिया की सबसे पवित्र मानी जाने वाली नदी होने के साथ ही गंगा दुनिया की सबसे प्रदूषित नदियों में भी है ।
प्रधानमंत्री मोदी का पसंदीदा कार्यक्रम होने के बावजूद गंगा की सफाई अभी बहुत दूर की कौड़ी है । सरकार ने इस प्रोजेक्ट के लिए २०१५ में ३ अरब डॉलर की रकम खर्च करने की योजना बनाई । लेकिन पिछले दो सालों में गंगा की सफाई के लिए मिले पैसे का महज चौथाई हिस्सा ही खर्च किया है ।
सनातन धर्म से भी पुराना एक और धर्म है । वह है नदी धर्म । गंगा को बचाने की कोशिश में लगे लोगों को पहले इस धर्म को मानना पड़ेेगा ।
गंगा मैली हुई है । उसे साफ करना है । सफाई की अनेक योजनाएँ पहले भी बनी हैं । कुछ अरब रुपए इनमें बह चुके हैं । बिना कोई अच्छा परिणाम दिए । इसलिए केवल भावनाओं में बह कर हम फिर ऐसा कोई काम न करें कि इस बार भी अरबों रुपयों की योजनाएँ बनें और गंगा जस की तस गंदी ही रह जाए ।
बेटे-बेटियाँ जिदद्ी हो सकते हैं। कुपुत्र-कुपुत्री भी हो सकते हैं । पर अपने यहाँ प्राय: यही तो माना जाता है कि माता, कुमाता नहीं होती । तो जरा सोचें कि जिस गंगा माँ के बेटे-बेटी उसे स्वच्छ बनाने के प्रयत्न कोई ३०-४० बरस से कर रहे हैं वह साफ क्यों नहीं होती ? क्या इतनी जिद्दी है हमारी यह माँ ?
साधु-सन्त समाज, हर राजनीतिक दल, सामाजिक संस्थाएँ, वैज्ञानिक समुदाय, गंगा प्राधिकरण और तो और विश्व बैंक जैसा बड़ा महाजन भी गंगा को तन-मन-धन से साफ करना चाहते हैं और यह माँ ऐसी है कि साफ ही नहीं होती ।
शायद हमेंे थोड़ा रुककर कुछ धीरज के साथ इस गुत्थी को समझना चाहिए ।
अच्छा हो या बुरा हो, हर युग का एक विचार एक झंडा होता है । उसका रंग इतना जादुई, इतना चोखा होता है कि वह हर रंग के झंडों पर चढ़ जाता है । तिरंगा, लाल, दुरंगा और भगवा सब उसको नमस्कार करते हैं उसी का गान गाते है। उस युग के, उस दौर के करीब-करीब सभी मुखर लोग, मौन लोग भी उसे एक मजबूत विचार की तरह अपना लेते हैं ।
कुछ समझ कर, कुछ बिना समझे भी । तो इस युग को, पिछले कोई ६०-७० बरस को, विकास का युग माना जाता है । जिसे देखो उसे अपना यह देश पिछड़ा लगने लगा है । वह पूरी निष्ठा के साथ इसका विकास कर दिखाना चाहती है । विकास पुरुष जैसे विश्लेषण सभी समुदायों में बड़े अच्छे लगने लगे हैं ।
वापस गंगा पर लौटें । पौराणिक कथाएँ और भौगोलिक तथ्य दोनों कुल मिलाकर यही बात बताते हैं कि गंगा आपौरुशेय है । इसे किसी एक पुरुष ने नहीं बनाया। अनेक संयोग बने और गंगा को अवतरण हुआ । जन्म नहीं । भूगोल, भूगर्भ शास्त्र बताता है कि इसका जन्म हिमालय के जन्म से जुड़ा है । कोई दो करोड़ तीस लाख बरस पुरानी हलचल से । इसके साथ एक बार फिर अपनी दीवारों पर टंगे कैलेंडर देख लें ।
इस विशाल समय अवधि का विस्तार अभी हम भूल जाएं । इतना ही देखें कि प्रकृति ने गंगा को सदानीरा बनाए रखने के लिए इसे अपनी कृपा के केवल एक प्रकार-वर्षा-भर से नहीं जोड़ा । वर्षा तो चार मास ही होती है । बाकी आठ मास इसमें पानी लगातार कैसे बहे, कैसे रहे, इसके लिए प्रकृति ने उदारता का एक और रूप गंगा को दिया है । नदी का संयोग हिमनद से करवाया । जल को हिम से मिलाया ।
प्रकृति ने गंगोत्री और गौमुख हिमालय में इतनी अधिक ऊँचाई पर, इतने ऊँचे शिखरों पर रखे हैं कि वहां कभी हिम पिघल कर समाप्त नहीं होता । जब वर्षा समाप्त हो जाए तो हिम, बर्फ पिघल-पिघल कर गंगा की धारा को अविरल रखते हैं ।
तो हमारे समाज ने गंगा को माँ माना और ठेठ संस्कृत से लेकर भोजपुरी तक में ढेर सारे श्लोक मंत्र, गीत सरस सरल साहित्य रचा । समाज ने अपना पूरा धर्म उसकी रक्षा में लगा दिया । इस धर्म ने यह भी ध्यान रखा कि हमारे धर्म, सनातन धर्म से भी पुराना एक और धर्म है । वह है नदी धर्म । नदी अपने उद्गम से मुहाने तक एक धर्म का, एक रास्ते का, एक घाटी का, एक बहाव का पालन करती है। हम नदी धर्म को अलग से इसलिए नहीं पहचान पाते क्योंकि अब तक हमारी परम्परा तो उसी नदी धर्म से अपना धर्म जोड़े रखती थी ।
पर फिर न जाने कब विकास नाम के एक नए धर्म का झंडा सबसे ऊपर लहराने लगा । यह प्रसंग थोड़ा अप्रिय लगेगा पर यहां कहना ही पड़ेगा कि इस झंडे के नीचे हर नदी पर बड़े-बड़े बांध बनने लगे । एक नदी घाटी का पानी नदी धर्म के सारे अनुशासन तोड़ दूसरी घाटी में ले जाने की बड़ी-बड़ी योजनाओं पर नितांत भिन्न विचारों के राजनैतिक दलों में भी गजब की सर्वानुमति दिखने लगती है ।
अनेक राज्यों में बहने वाली भागीरथी, गंगा नर्मदा इस झंडे के नीचे आते ही अचानक माँ के बदले किसी न किसी राज्य की जीवन रेखा बन जाती हैं और फिर उसका इस राज्य में बन रहे बांधों को लेकर वातावरण में, समाज में इतना तनाव बढ़ जाता है कि कोई संवाद, स्वस्थ बातचीत की गंुजाइश ही नहीं बचती ।
दो राज्यों में एक ही राजनीतिक दल की सत्ता हो तो भी बांध, पानी का बँटवारा ऐसे झगड़े पैदा करता है कि महाभारत भी छोटा पड़ जाए । सब बड़े लोग, सत्ता में आनेवाला हर दल, हर नेतृत्व बांध से बंध जाता है। हरेक को नदी जोड़ना एक जरूरी काम लगने लगता है।
वह यह भूल जाता है कि प्रकृति जरूरत पड़ने पर ही नदियां जोड़ती है। इसके लिए वह कुछ हजार-लाख बरस तपस्या करती है, तब जाकर गंगा-यमुना इलाहाबाद मंे मिलती हैं । कृतज्ञ समाज तब उस स्थान को तीर्थ मानता है । मुहाने पर प्रकृति नदी को न जाने कितनी धाराओं में तोड़ भी देती है। बिना तोड़े नदी का संगम, मिलन सागर से हो नहीं सकता ।
तो नदी में से साफ पानी जगह-जगह बांध,नहर बना कर निकालते जाएं । सिंचाई बिजली बनाने और उद्योग चलाने के लिए विकास के लिए । अब बचा पानी तेजी से बढ़ते बड़े शहरों, राजधानियों के लिए बड़ी-बड़ी पाइपलाईन में डाल कर चुराते जाएं ।
यह भी नहीं भूलें कि अभी ३०-४० बरस पहले तक इन सभी शहरों में अनगिनत छोटे-बड़े तालाब हुआ करते थे । ये तालाब चौमासे की वर्षा को अपने में संभालते थे और शहरी क्षेत्र की बाढ़ को रोकते थे और वहां का भूजल उठाते थे । यह ऊंचा उठा भूजल फिर आने वाले आठ महीने शहरों की प्यास बुझाता था। अब इन सब जगहों पर जमीन की कीमत आसमान छू रही है ।
बिल्डर-नेता-अधिकारी मिल जुल कर पूरे देश के सारे तालाब मिटा रहे हैं । महाराष्ट्र के पुणे, मुंबई में एक ही दिन की वर्षा मंे बाढ़ आ गयी । इन्द्र का एक सुन्दर पुराना नाम, एक पर्यायवाची शब्द है पुरन्दर-पुरों को, किलों को, शहरों को तोड़ने वाले । यानि यदि हमारे शहर इन्द्र से मित्रता कर उसका पानी रोकना नहीं जानते तो फिर वह पानी बाढ़ की तरह हमारे शहरों को नष्ट करेगा ही यह पानी बह गया तो फिर गर्मी में अकाल भी आएगा ही ।
तो नदी से सारा पानी विकास के नाम पर निकालते रहें जमीन की कीमत के नाम पर तालाब मिटाते जाएं, और फिर सारे शहरों, खेतों की सारी गन्दगी, जहर नदी में मिलाते जाएंं फिर सोचें कि अब कोई नयी योजना बना कर हम नदी भी साफ कर लेंगे। नदी ही नहीं बची । गन्दा नाला बनी नदी साफ होने से रही। भरूच में जाकर देखिए रसायन उद्योग विकास के नाम पर नर्मदा को किस तरह बर्बाद किया गया है । नदियां ऐसे साफ नहीं होंगी । हमें हर बार निराशा ही हाथ लगेगी ।
तो क्या आशा बची ही नहीं, नहीं, ऐसा नहीं है । आशा है, पर तब जब हम फिर से नदी धर्म ठीक से समझें । विकास की हमारी आज जो इच्छा है उसकी ठीक जांच कर सकें । बिना कटुता के । गंगा को, हिमालय को कोई चुपचाप षड्यन्त्र करके नहीं मार रहा । ये तो सब हमारे ही लोग हैं । विकास, जी.डी.पी., नदी जोड़ो, बड़े बांध सब कुछ हो रहा है। या तो इसे एक पक्ष करता है या दूसरा पक्ष । विकास के इस झंडे के तले पक्ष-विपक्ष का भेद समाप्त हो जाता है। मराठ ी में एक सुन्दर कहावत है: रावण तोंडी रामायण । रावण खुद बखान कर रहा है । रामायण की कथा । हम ऐसे रावण न बनें ।
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