जीवन शैली
बोतलबंद पानी का कारोबार
प्रमोद भार्गव
देश में लगातार फैल रहे बोतलबंद पानी के कारोबार पर संसद की स्थाई समिति ने कई सवाल खड़े किए हैं।
समिति की रिपोर्ट से खुलासा हुआ है कि पेयजल के कारोबार से अरबों रुपए कमाने वाली कंपनियों से सरकार भूजल के दोहन के बदले में न तो कोई शुल्क ले रही है और न ही कोई टैक्स वसूलने का प्रावधान है । समिति ने व्यावसायिक उद्देश्य के लिए भूजल का दोहन करने वाली इन कंपनियों से भारी-भरकम जल-कर वसूलने की सिफारिश की है। समिति का विचार है कि इससे जल की बरबादी पर भी अंकुश लगेगा । भाजपा सांसद राजीव प्रताप रूडी की अध्यक्षता में जल संसाधन सम्बंधी इस समिति ने अपनी रिपोर्ट लोकसभा में पेश की है ।
रिपोर्ट का शीर्षक है उद्योगों द्वारा जल के व्यावसायिक दोहन के सामाजिक-आर्थिक प्रभाव । इसमें केन्द्रीय जल संसाधन, नदी विकास व गंगा संरक्षण मंत्रालय की खूब खिंचाई की गई है। समिति ने सरकार को आड़े हाथों लेते हुए कहा है किजनता को शुद्ध पेयजल की आपूर्ति करना सरकार का नैतिक और प्राथमिक कर्तव्य है। किन्तु सरकार इस दायित्व के पालन में कोताही बरत रही है ।
रिपोर्ट के मुताबिक केन्द्रीय भूजल प्राधिकरण (सीजीडब्ल्यूए) ने भूजल के दोहन के लिए ३७५ बोतलबंद पेयजल को अनापत्ति प्रमाण-पत्र दिए हैं। इसके इतर ५,८७३ पेयजल इकाइयों को बीआईएस से बोतलबंद पानी उत्पादन के लायसेंस मिले हैं। ये कंपनियां हर साल १.३३ करोड़ घनमीटर भूजल जमीन से निकाल रही हैं। चिंताजनक पहलू यह है कि ये कंपनियां कई ऐसे क्षेत्रों में भी जल के दोहन में लगी हैंजहां पहले से ही जल का अधिकतम दोहन हो चुका है ।
समिति ने सवाल उठाया है कि न तो सरकार के पास ऐसा कोई प्रामाणिक रिकॉर्ड है कि वाकई ये इकाइयां कुल कितना पानी निकाल रही हैंऔर न ही इनसे किसी भी प्रकार के टैक्स की वसूली की जा रही है जबकि ये देशी-विदेशी कंपनियां करोड़ों-अरबों रुपए का मुनाफा कमा रही हैं और इनसे राजस्व प्राप्त करके जन-कल्याण में लगाने की जरूरत है। समिति ने यह भी सिफारिश की है कि जनता को शुद्ध और स्वच्छ जल की आपूर्ति को केवल निजी उद्योगों के हवाले नहीं छोड़ा जा सकता है ।
संविधान का अनुच्छेद २१ प्रत्येक नागरिक को जीने का अधिकार देता है। लेकिन जीने की मूलभूत सुविधाओं को बिंदुवार परिभाषित नहीं किया गया है। इसीलिए आजादी के ७० साल बाद भी पानी की तरह भोजन, आवास, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे जीने के बुनियादी मुद्दे पूरी तरह संवैधानिक अधिकार के दायरे में नहीं आए हैं। यही वजह रही वि २००२ में केन्द्र सरकार ने औद्योगिक हितों को लाभ पहुंचाने वाली जल-नीति पारित की और निजी कंपनियों को पेयजल का व्यापार करने की छूट दे दी गई । भारतीय रेल भी रेलनीर नामक उत्पाद लेकर बाजार में उतर आई ।
पेयजल के इस कारोबार की शुरुआत छत्तीसगढ़ से हुई । यहां शिवनाथ नदी पर देश का पहला बोतलबंद पानी संयंत्र स्थापित किया गया । इस तरह एकतरफा कानून बनाकर समुदायों को जल के सामुदायिक अधिकार से अलग करने का सिलसिला चल निकला । यह सुविधा युरोपीय संघ के दबाव में दी गई थी । पानी को विश्व व्यापार के दायरे में लाकर पिछले एक-डेढ़ दशक के भीतर एक-एक कर विकासशील देशों के जल स्त्रोत अंधाधुंध दोहन के लिए इन कंपनियों के हवाले कर दिए गए । इसी युरोपीय संघ ने दोहरा मानदंड अपनाकर ऐसे नियम-कानून बनाए हुए हैं कि विश्व के अन्य देश पश्चिमी देशों में आकर पानी का कारोबार नहीं कर सकते हैं।
युरोपीय संघ विकासशील देशों के जल का अधिकतम दोहन करना चाहता है, ताकि इन देशों की प्राकृतिक संपदा का जल्द से जल्द नकदीकरण कर लिया जाए । पानी अब केवल पीने और सिंचाई का पानी नहीं रह गया है, बल्कि विश्व बाजार में नीला सोना के रूप में तब्दील हो चुका है । पानी को लाभ का बाजार बनाकर एक बड़ी आबादी को जीवनदायी जल से वंचित करके आर्थिक रूप से सक्षम लोगों को जल उपभोक्ता बनाने के प्रयास हो रहे हैं । यही कारण है कि दुनिया में देखते-देखते पानी का कारोबार ४० हजार ५०० अरब डॉलर का हो गया है ।
भारत में पानी और पानी को शुद्ध करने के उपकरणों का बाजार लगातार फैल रहा है । देश में करीब ८५ लाख परिवार जल शोधन उपकरणों का उपयोग करने लगे हैं । भारत में बोतल और पाउच में बंद पानी का ११ हजार करोड़ का बाजार तैयार हो चुका है। इसमें हर साल ४० से ५० प्रतिशत की बढ़ोतरी हो रही है। देश में इस पानी के करीब एक सौ ब्रांड प्रचलन में हैं और १२०० से भी ज्यादा संयंत्र लगे हुए हैं । देश का हर बड़ा कारोबारी समूह इस व्यापार में उतरने की तैयारी में है। कम्प्यूटर कंपनी माइक्रोसाफ्ट के संस्थापक बिल गेट्स भारत में ओम्नी प्रोसेसर संयंत्र लगाना चाहते हैं। इस संयंत्र से दूषित मलमूत्र से पेयजल बनाया जाएगा ।
भारतीय रेल भी बोतलबंद पानी के कारोबार में शामिल है । इसकी सहायक संस्था इंडियन रेलवे कैटरिंग एंड टूरिज्म कार्पोरेशन (आईआर-सीटीसी) रेल नीर नाम से पानी पैकिंग करती है । इसके लिए दिल्ली, पटना, चैन्नई और अमेठी सहित कई जगह संयंत्र लगे हैं। उत्तम गुणवत्ता और कीमत में कमी के कारण रेल यात्रियों के बीच यह पानी लोकप्रिय है । अलबत्ता, निजी कंपनियों की कुटिल मंशा है कि रेल नीर को घाटे के सौदे में तब्दील कराकर सरकारी क्षेत्र के इस उपक्रम को बाजार से बेदखल कर दिया जाए । तब कंपनियों को रेल यात्रियों के रूप में नए उपभोक्ता मिल जाएंगे ।
वर्तमान में भारत दुनिया में भूजल का सबसे बड़ा उपभोक्ता देश है । यहां हर साल २५० घन किमी पानी धरती के गर्भ से खींचा जाता है, जो विश्व की कुल खपत के एक चौथाई से भी ज्यादा है । इस पानी की खपत ६० फीसदी खेतों की सिंचाई और ४० प्रतिशत पेयजल के रूप में होती है। इस कारण २९ फीसदी भूजल के स्त्रोत अधिकतम दोहन की श्रेणी में आकर सूखने की कगार पर हैं । औद्योगिक इकाइयों के लिए पानी का बढ़ता दोहन इन स्त्रोतों के हालात और नाजुक बना रहा है । कई कारणों से पानी की बर्बादी भी खूब होती है ।
आधुनिक विकास और रहन-सहन की पश्चिमी शैली अपनाना भी पानी की बर्बादी का बड़ा कारण बन रहा है। २५ से ३० लीटर पानी सुबह मंजन करते वक्त नल खुला छोड़ देने से व्यर्थ चला जाता है । ३०० से ५०० लीटर पानी टब में नहाने से खर्च होता है । जबकि परंपरागत तरीके से स्नान करने में महज २५-३० लीटर पानी खर्चता है ।
एक शौचालय में एक बार फ्लश करने पर कम से कम दस लीटर पानी खर्च होता है । ५० से ६० लाख लीटर पानी मुम्बई जैसे महानगरों में रोजाना वाहन धोने में खर्च हो जाता है जबकि मुम्बई भी पेयजल का संकट झेल रहा है । १७ से ४४ प्रतिशत पानी दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, बैंगलुरू और हैदराबाद जैसे महानगरों में वॉल्वों की खराबी से बर्बाद हो जाता है ।
पेयजल की ऐसी बर्बादी और पानी के निजीकरण पर अंकुश लगाने की बजाय सरकारें पानी को बेचने की फिराक में ऐसे कानूनी उपाय लागू करने को तत्पर हैं । संयुक्त राष्ट्र भी कमोबेश इसी विचार को समर्थन देता दिख रहा है। हालांकि संयुक्त राष्ट्र ने पानी और स्वच्छता को बुनियादी मानवाधिकार घोषित किया हुआ है लेकिन इस बाबत उसके अजेंडे में पानी एवं स्वच्छता के अधिकार का वास्ता मुफ्त में मिलने से कतई नहीं है । बल्कि इसका मतलब यह है कि ये सेवाएं सबको सस्ती दर पर हासिल हों। साफ है, पानी को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बाजार के हवाले करने की साजिश रची जा रही है ।
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