हमारा भूमण्डल
हम व्यापक जैव विलुिप्त् की कगार पर हैं
सोमेन्द्र सिंह खरोला
जैव मंडल की तुलना एक बहुत बड़ी दीवार से की जा सकती है, मनुष्य जिसके ऊपर बैठा है। अगर इस जैव मंडल में से हम जानवरों की कुछ प्रजातियां गंवा भी देते हैं,तो दीवार से महज कुछ इंर्टें गुम होंगी, दीवार तो फिर भी खड़ी रहेगी। परंतु यदि अधिकाधिक जानवर विलुप्त् होते जाएंगे, तो पूरी दीवार भी दरक सकती है। सवाल है कि इंर्टों को हटा कौन रहा है?
व्यापक जैविक विलोपन ऐसी वैश्वक घटना को कहते हैं जिसके दौरान पृथ्वी के ७५ प्रतिशत से अधिक वन्य जीव विलुप्त् हो जाते हैं । पिछले ५० करोड़ वर्षों में, इस तरह के व्यापक विलोपन की पांच घटनाएं हुई हैं। इनमें से सबसे हालिया विलोपन ने डायनासौर को हमेशा के लिए खत्म कर दिया था। लेकिन कितने लोग यह जानते हैंकि हाल ही में किए गए कई शोध अध्ययनों ने समय-समय पर यह दावा किया है कि पृथ्वी एक और व्यापक विलोपन घटना की गिरफ्त में है: छठा व्यापक विलोपन ।
दरअसल, पिछले १०० वर्षों में, रीढ़धारी प्राणियों की २०० प्रजातियां विलुप्त् हो चुकी हैं। प्रजातियों के विलुप्त् होने की यह दर (प्रति वर्ष २ प्रजातियां), आपको शायद मामूली लगे और शायद चिंता का विषय भी न हो। शायद आप कहें कि जीव तो हर समय विलुप्त् होते रहते हैं, यह तो प्रकृति का तरीका है। लेकिन पिछले बीस लाख वर्षों में विलोपन की दर को देखें तो २०० प्रजातियों को विलुप्त् होने में सौ नहीं बल्कि दस हजार साल लगना चाहिए थे। दूसरे शब्दों में, विलुप्त् होने की दर पहले के युगों की तुलना में पिछले मात्र १०० वर्षों में लगभग १०० गुना बढ़ गई है।
प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफसाइंसेज जर्नल में हाल ही में प्रकाशित एक शोध आलेख छठे व्यापक विलोपन के अपने दावों के साथ एक कदम और आगे बढ़ता है।
यह अध्ययन बताता है कि न केवल छठा व्यापक विलोपन एक वास्तविकता है, बल्कि इसके परिणाम हमारे सोच से कहीं अधिक गंभीर होंगे। इसके अलावा यह अध्ययन इसके लिए पूरी तरह मनुष्यों को जिम्मेदार ठहराता है। यह काफी दिलचस्प बात है कि पहला व्यापक विलोपन, जो मनुष्य के अस्तित्व में आने से बहुत पहले हुआ था, वह भी उल्काआें की बौछार या ज्वालामुखी विस्फोटों के कारण नहीं बल्कि जीवों के द्वारा ही हुआ था।
अपने शोध पत्र में लेखक - गेरार्डो सेबालोस, पॉल आर. एह्यलिच, रोडोल्फो दिर्जोलिखते हैं कि पिछले कुछ दशकों में, प्राकृतवासों की हानि, अतिदोहन, घुसपैठी जीव, प्रदूषण, विषाक्तता, और हाल ही में जलवायु की गड़बड़ी, तथा इन कारकों के बीच परस्पर क्रियाएं आम एवं दुर्लभ कशेरुकी आबादियों की संख्या और उनके आकार दोनों में भयावह गिरावट का कारण बनी है। इसके अलावा, अध्ययन के अनुसार, पिछले सौ वर्षों में, हमारे साथ पृथ्वी पर रहने वाले रीढ़धारी जीवों की ५० प्रतिशत संख्या खत्म हो चुकी है, और इस तरह से जीवों की आबादी का ऐसा भयावह पतन इस ओर संकेत देता है कि छठा व्यापक विलोपन शुरू हो चुका है । लेकिन इस व्यापक विलोपन के कारण यदि ७५ प्रतिशत से अधिक जीव भी खत्म हो जाएं मनुष्य होने के नाते हम क्योंपरवाह करें? क्योंकि पारिस्थितिक तंत्र में विभिन्न जीव एक दूसरे पर निर्भर हैं, श्रृंखला प्रभाव की तरह मनुष्यों पर भी इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा ।
उदाहरण के लिए कीट-पतंगों को ही लीजिए । पर्यावरण कीटों की अनुपस्थिति के अनुकूल हो पाए यदि उससे पहले ही कीटों की हजारों प्रजातियां विलुप्त् हो जाएं, तो पेड़ों की हजारों प्रजातियां भी गायब हो जाएंगी, क्योंकि पेड़ों की कई प्रजातियां परागण के लिए कीटों पर निर्भर होती हैं । अगर पेड़ गायब हो जाते हैं, तो मानव जाति के लिए यह मौत की दस्तक होगी। हमारी धरती की हवा गंदी और जहरीली तो होगी ही, पृथ्वी का तापमान कई डिग्री बढ़ जाएगा। भू-क्षरण की दर बढ़ेगी जिससे कृषि योग्य भूमि का नुकसान होगा। वर्षा गंभीर रूप से प्रभावित होगी, जिसके फलस्वरूप मीठे पानी के स्त्रोतों की गुणवत्ता के स्त्रोतों की गुणवत्ता पर भी असर होगा। निश्चित रूप से, मानव पर नकारात्मक वार होगा ।
यह देखते हुए कि यह बड़े पैमाने का विलोपन मानव अस्तित्व के लिए एक वास्तविक खतरा साबित हो सकता है, यह काफी निराशा-जनक है कि इस विलोपन के प्राथमिक कारण - यानी हम - इससे बेखबर हैं। इसकी ओर ध्यान न देने के दो कारण हैं ।
पहला कारण है, औसतन हर साल गायब होने वाली दो प्रजातियां ऐसी होती हैं जो या तो हमारे लिए आकर्षक नहीं हैं (शेर की तरह आकर्षक नहीं हैं) या दुनिया के अलग-थलग कोनों में रहती हैं, इसलिए हम उस नुकसान को महसूस नहीं करते हैं।
विलोपन के खतरे की सूचना से हमें अनभिज्ञ रखने वाला दूसरा कारण यह है कि पृथ्वी के वन्य जीवन के स्वास्थ्य का आकलन करने हेतु शोध अध्ययनों का पूरा ध्यान केवल अंतिम बिन्दु पर रहा है - यानी जीवों की प्रजातियों का पूरी तरह विलुप्त् हो जाना। और वर्तमान अध्ययन यही बताता है कि अंतिम बिन्दु आधारित उन अध्ययनों ने व्यापक विलोपन के परिमाण को कम करके आंका है। अगले हिस्से में इस बात को विस्तार में स्पष्ट किया गया है।
तर्क को आगे बढ़ाने के लिए, एक जीव प्रजाति द पर विचार करते हैं। यह जीव द एशिया के पंद्रह अलग-अलग देशों में फैला हुआ है। दूसरे शब्दों में इस जीव की वैश्विक आबादी पंद्रह अलग-अलग देशों में फैली हुई स्थानीय आबादियों से मिलकर बनी है। किसी भी देश में, इस जीव की स्थानीय आबादी में एक निश्चित संख्या में जीव होंगे; किसी अन्य देश में एक निश्चित संख्या की स्थानीय आबादी होगी, और इसी तरह सब देशों में अलग अलग स्थानीय आबादियां होंगी।
मान लीजिए, एक साल के बाद, पंद्रह स्थानीय आबादियों में से चौदह खत्म हो जाती हैं और केवल एक अंतिम स्थानीय आबादी बची रह जाती है।
ऐसे परिदृश्य में, अगर हम केवल अंतिम बिन्दु - यानी इस जीव प्रजाति का पूर्ण विलोपन - पर ध्यान केन्द्रित करेंगे, तो हर साल हम जीव द के सामने एक टिक मार्क लगाकर इसे विलुप्त् नहीं की श्रेणी में डाल देंगे क्योंकि एक स्थानीय आबादी तो बची हुई है ।
विलुप्त् या विलुप्त् नहीं का यह सख्त विभाजन जंगल में उपस्थित किसी प्रजाति के वास्तविक स्वास्थ्य को समझने का एक अपरिष्कृत तरीका है। इस मामले में, उदाहरण के लिए, केवल जीव द को विलुप्त् नहीं के रूप में अंकित करके, हम जीव द की सोचनीय स्थिति जैसी महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त् करने में विफल हो जाते हैं । इसकी स्थानीय आबादियों की संख्या में भारी गिरावट आई है। इस काल्पनिक परिदृश्य में यह संख्या १५ से घटकर एक तक आ पहुंची है। अर्थात व्यापक विलोपन को कम करके आंका जा रहा है ।
इसलिए, वर्तमान अध्ययन के अनुसार, वर्तमान व्यापक विलोपन की घटना का सही अनुमान लगाने के लिए, यह जरूरी है कि प्रजातियों की स्थानीय आबादियों के विलुप्त् होने पर अधिक ध्यान केंद्रित किया जाए, न कि केवल वैश्विक विलुिप्त् पर । कोई जीव जीवित है इसका मतलब यह नहीं कि वह फल-फूल रहा है ।
पिछले सभी अध्ययनों में इसी दोषपूर्ण रास्ते को अपनाया गया है जिनमें केवल अंतिम बिन्दु पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। इस प्रकार ये अध्ययन इस गलतफहमी के शिकार हैं कि जैव विविधता के नुकसान का दौर शुरू ही हो रहा है, और मानव जाति के पास इसका मुकाबला करने के लिए कई दशकों का समय उपलब्ध है। विलुप्त् होने की दर केवल दो जीव प्रति वर्ष ही तो है। लेकिन वर्तमान अध्ययन इसका जोरदार विरोध करता है: हम इस बात पर जोर देते हैं कि छठा सामूहिक विलोपन शुरू हो चुका है और प्रभावी कार्रवाई के लिए वक्त बहुत कम है, शायद दो या तीन दशक । शायद, इससे भी कम ।
बेशक, यह कहना सही नहीं है कि मानव जाति कुछ दशकों के भीतर विलुप्त् हो जाएगी; लेकिन अगर हमने अभी कार्य करना शुरू नहीं किया तो यह व्यापक विलोपन दो या तीन दशकों के भीतर अपरिवर्तनीय साबित होगा। नतीजतन, इसके साथ ही मानव जाति के विलोपन की संभावना शुरू हो जाएगी ।
इस तरह के मजबूत दावे का समर्थन करने के लिए, यह अध्ययन एक नए दृष्टिकोण का अनुसरण करता है। पूर्व अध्ययनों के विपरीत, यह दो महत्वपूर्ण कारकों को ध्यान में रखता है जो अंतिम बिन्दु - अर्थात किसी जीव प्रजाति के संपूर्ण वैश्विक विलोपन - से ठीक पहले सामने आते हैं । पहला है, जैसा कि ऊपर कहा गया, पिछले सौ वर्षों में विभिन्न जीव प्रजातियों की स्थानीय आबादियों में कमी । दूसरा है, इसी अवधि में उनके भौगोलिक आवास में कमी। (नोट : इस अध्ययन के लिए, २७,६०० कशेरूकी जीवों की स्थानीय आबादियों पर ध्यान दिया गया, जो दुनिया की कुल लगभग ८७ लाख जीव प्रजातियों का एक छोटा-सा अंश है।)
अध्ययन बताता है कि पिछले सौ वर्षों में विभिन्न जानवरों की एक अरब स्थानीय आबादियां विलुप्त् हो चुकी हैं । जी हां, एक अरब । इसका मतलब यह नहीं है कि दुनिया में एक अरब जीव प्रजातियां विश्व स्तर पर पूरी तरह से विलुप्त् हो चुकी हैं, बल्कि यह है कि विभिन्न प्रजातियों की कुल एक अरब स्थानीय आबादियां दुनिया के कुछ क्षेत्रों में हमेशा के लिए खत्म हो गई है, जबकि ये जीव अभी भी दुनिया के अन्य क्षेत्रों में मौजूद है। अर्थात, इन प्रजातियों का स्थानीय विलोपन हुआ है।
उदाहरण के लिए, एक समय में एशियाई शेर की हजारों स्थानीय आबादियां पूरे भारत में पाई जाती थी। लेकिन समय के साथ, ये सभी स्थानीय आबादियां, अन्य जीवों की एक अरब स्थानीय आबादियों के साथ विलुप्त् हो गइंर् । आज, एशियाई शेरों की अंतिम कुछेक स्थानीय आबादियां गुजरात में एक अलग-थलग भाग (गिर वन) में पाई जाती है। जब ये चंद अंतिम स्थानीय आबादियां विलुप्त् हो जाएंगी, तो एशियाई शेर को विश्व स्तर पर विलुप्त् कर दिया जाएगा। तब यह विश्व में कहीं भी नहीं पाया जाएगा ।
अध्ययन एक और विचलित करने वाला तथ्य बताता है। पिछले सौ वर्षों में, पृथ्वी की रीढ़धारी प्रजातियों में से ३२ प्रतिशत की आबादी के आकार और भौगोलिक विस्तार में कमी आई है। अध्ययन में विश्लेषण किए गए सभी १७७ स्तनधारियों ने अपने भौगोलिक क्षेत्रों का ३० प्रतिशत या उससे अधिक हिस्सा खो दिया है। और ४० प्रतिशत से अधिक प्रजातियों की सीमा ८० प्रतिशत से अधिक घट गई है। और तो और, जीवों की जिन प्रजातियां को कम चिंता की श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है, वे भी इसी तरह के संकटों से पीड़ित हैं और लगातार लुप्त्प्राय श्रेणी की ओर बढ़ रही हैं ।
हमारा डैटा बताता है कि प्रजातियों के विलुप्त् होने से परे, पृथ्वी स्थानीय आबादियों में गिरावट और विलुप्त् होने की एक विशाल घटना का सामना कर रही है, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र के कार्य और सेवाओं पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा । यह पारिस्थितिकी तंत्र सभ्यता को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण होता है। अंतत: मानवता इस ब्राह्मण्ड में जीवन के एक मात्र समुच्च्य के उन्मूलन की बहुत बड़ी कीमत चुकाएगी ।
इसलिए, भले ही विश्व स्तर पर हर साल मात्र दो प्रजातियां विलुप्त् हो रही हों, यह मात्र दो की संख्या दुनिया भर में विभिन्न जीव प्रजातियों की सैकड़ों-हजारों स्थानीय आबादियों के कठोर और व्यापक विलोप का संकेत देती है। आखिरकार, इस तरह स्थानीय आबादियों और प्राकृतवासों का नुकसान कुछ ही समय में हजारों जीव प्रजातियों के वैश्विक विलोप का कारण बन जाएगा: जिसको व्यापक विलोपन कहते हैं ।
तो, हम स्थानीय आबादियों के विलोपन की इस लहर का मुकाबला कैसे करें और छठे सामूहिक विलोपन को कैसे रोकें ?
इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए चाहें तो वन्य जीव संरक्षण कार्यक्रमों, लोक निकायों, राष्ट्रीय नीतियों, अंतर्राष्ट्रीय साझेदारी वगैरह की बात कर सकते हैं। लेकिन इस सवाल का असली जवाब वह है जो हम - और हाई स्कूल का कोई भी छात्र - लंबे समय से जानते हैं। यह एक ऐसा जवाब है जिसे इतनी बार दोहराया गया है कि ऐसा लगता है कि इसकी धार बोथरी हो गई है: उपभोग में कमी करें, जनसंख्या पर लगाम कसें ।
हालांकि, अध्ययन के नापसंद दावों को देखते हुए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि कई वैज्ञानिकों ने इसके निष्कर्षों पर सवाल उठाए हैं ।
इन वैज्ञानिकों को लगता है कि यह अध्ययन फालतू में भेड़िया आया, भेड़िया आया का शोर मचाने जैसा है, क्योंकि व्यापक विलुिप्त् की घटनाओं के इरादे कहीं अधिक सख्त होते हैं । इन शंकालुओं का मानना है कि व्यापक विलुिप्त् की घटनाएं लाखों वर्षों में सामने आती हैं । इसलिए यह मान लेना जल्दबाजी होगी कि पानी सिर से ऊपर जा चुका है । आखिरकार इस अध्ययन में मात्र पिछले १०० वर्षों में केवलरीढ़धारी जीवों की विलुिप्त् की संख्या पर ही तो विचार किया गया है । यह अवधि पिछले बड़े पैमाने पर विलोपन घटनाओं की तुलना में पलक झपकाने जैसी है। कीटों और अन्य गैर-कशेरुकी जीवों का क्या ? केवल २७,६०० कशेरुकी जीवों पर ध्यान केन्द्रित करके (जो कुल ८७ लाख जीव प्रजातियों का अंश-मात्र है) यह अध्ययन व्यापक विलुिप्त् की घटना की एक ऐसी तस्वीर खींचता है जो वास्तविकता से कहीं अधिक गंभीर और अतिरंजित बन गई है।
इसके अलावा, एक यह तर्क भी दिया जा सकता है कि विलोपन के दुष्प्रभावों को कम करने के लिए मनुष्य नामक प्राणि कोई न कोई समाधान खोज निकालेगा । जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, यह ध्यान रखना समझदारी होगी कि जैविक व्यापक विलोपन की घटना अचानक होने वाली घटना नहीं है जो पूरी मानव जाति को एक झपट्टा मारकर समाप्त् कर देगी। यह सही है कि ऐसी घटना केदौरान अल्पावधि में हजारों जीव प्रजातियां उच्च् दर से विलुप्त् हो जाती हैं, लेकिन यह अल्पावधि लाखों वर्षों में फैली होती है। यह लम्बी अल्पावधि मनुष्य को पेड़ों में परागण के लिए रोबोट विकसित करने के लिए पर्याप्त् हो सकती है।
उसी तरह यदि विश्व के मत्स्य भंडार प्रभावित होते हैं, तो यह अल्पावधि कृत्रिम मांस तैयार करने केलिए काफी है। यहां तक कि ऐसी प्रौद्योगिकियों का निर्माण करने के लिए भी यह पर्याप्त् समय हो सकता है, जिससे विलुप्त् पेड़-पौधों की नकल कर वायुमंडलीय ऑक्सीजन और अन्य गैसों की निश्चित मात्रा को बरकरार रखा जा सके । तब तक, हम अन्य ग्रहों पर बस ही चुके होंगे। तो, व्यापक विलोपन का खतरा उतना बुरा नहीं हो सकता है जितना लगता है, कम से कम मनुष्योंके लिए तो नहीं।
फिर भी, यह अध्ययन दावा क्रता है िक् अगर हम अभी, दो या तीन दशकों के अंदर, कार्रवाई नहीं करते हैं तो सामूहिक विलोपन स्थायी होगा। नतीजतन, स्थानीय आबादियों के विलुप्त् होने की दर कैंसर की तरह बढ़ सकती है। इसके परिणामस्वरूप जैव विविधता में गिरावट आएगी और मानव अस्तित्व के लिए खतरा पैदा हो जाएगा।
लेकिन क्या जैव विविधता में गिरावट हमारे तकनीकी विकास को पछाड़ देगी ? खतरे की घंटी बजाने से पहले इस सवाल पर विचार करना जरूरी है । फिर भी, मैं कहना चाहूंगा कि हमने पिछले सौ वर्षों में ५० प्रतिशत कशेरुकी जीवों का सफाया तो कर दिया है, अगर अब कुछ नहीं किया गया तो हम जल्द ही बचे हुए ५० प्रतिशत को भी खो सकते हैं। व्यक्तिगत रूप से, विलुप्त् होने की गति को देखते हुए, मेरे मन में सवाल आता है कि क्या मानव के पास, प्रौद्योगिकी या अन्य माध्यम से, इसका सामना करने के लिए पर्याप्त् समय होगा । इसके अलावा, जैव विविधता के नुकसान की ऐसी दर पहले हो चुकी विलोपन की घटनाओं से कहीं अधिक विनाशकारी साबित हो सकती है।
मेरे साथ बातचीत के दौरान अध्ययन के प्रमुख लेखक गेरार्डो सेबलोस ने कहा था कि इससे यह और भी जरूरी हो जाता है। पिछले सभी व्यापक विलोपन की घटनाएं लाखों वर्षों में फैली हुई थीं, लेकिन वर्तमान व्यापक विलोपन केवल कुछ सौ वर्षों में फैला हुआ है ।
उन्होंने बात को जारी रखते हुए कहा: और आप कितना संदेह करेंगे? मैं केवल दो वैज्ञानिकों को जानता हूं जो कहते हैं कि छठा व्यापक विलोपन कुछ नहीं है। अगर हम अगले दो या तीन दशकों के भीतर इस व्यापक विलोपन की घटना पर कोई कार्रवाई नहीं करते हैं, तो हमारा विनाश निश्चित और पूर्ण होगा । वास्तव में, इस बात में क्या तुक है कि आप व्यापक विलोपन के और गंभीर होने की प्रतीक्षा करें ताकि आपको यकीन हो जाए कि व्यापक विलोपन सचमुच हो रहा है? उस समय तक कुछ भी करने का समय बीत चुका होगा। विलोपन की प्रतीक्षा करना और फिर कहना कि अरे, यह तो वास्तव में हो गया बेकार है, क्योंकि तब तक हम जा चुके होंगे । हमको कोई कदम उठाना चाहि ए । अभी ।
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