सोमवार, 20 मई 2019

सामयिक
चुनाव में ओझल है पर्यावरण के मुद्दे
डॉ. ओ.पी. जोशी
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के सर्वोच्च् सदन लोकसभा केचुनाव चल रहे है, परन्तु चुनावी अभियान से लोक-जीवन के जल, जंगल एवं जमीन के मुद्दे गायब हैं । 
सब जानते हैं कि देश का आर्थिक विकास एवं 'सकल घरेलू उत्पाद` (जीडीपी) इन्हीं प्राकृतिक संसाधनों पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निर्भर रहता है । भारत जैसे कृषि-प्रधान देश में तो ये संसाधन पैदावार बढ़ाने हेतु भी जरूरी हैं । 'विश्व पर्यावरण एवं विकास आयोग` की १९८७ में जारी रिपोर्ट में बड़ी दृढ़ता एवं स्पष्टता से कहा गया था कि ``सभी देशों की सरकारें यह समझ लें कि उनके देश की अर्थव्यवस्था जिस नाजुक धुरी पर टिकी है, वह है-वहां के प्राकृतिक संसाधन,`` लेकिन मौजूदा चुनाव अभियान बताते हैं कि हमारे देश में जल, जंगल एवं जमीन की कोई पूछ-परख नहीं है ।
मसलन, जीवन का आधार माने गये जल की उपलब्धता लगातार घटती जा रही है । आजादी के समय प्रति व्यक्ति ६००० घन मीटर (घ.मी.) जल उपलब्ध था जो वर्ष २०१० में घटकर लगभग १६०० घ.मी. ही रह गया । 'केन्द्रीय जल-संसाधन मंत्रालय` के अनुसार यह जल उपलब्धता वर्ष २०२५ में १३४१ घ.मी. तथा २०५० तक ११४० घ.मी. ही रह जावेगी । 'वर्ल्ड-रिसोर्स इंस्टीट््यूट` की मार्च, २०१६ की रिपोर्ट के अनुसार भारत का ५४ प्रतिशत हिस्सा पानी की कमी से परेशान है। 
'नीति आयोग` की २०१८ की रिपोर्ट में भी बताया गया है कि एक तरफ, देश के लगभग ६० करोड़ लोग पानी की भयानक कमी से जूझ रहे हैं तो दूसरी तरफ, ७० प्रतिशत पानी पीने योग्य नहीं बचा है। भू-जल स्तर गिरने, सूखा, कृषि, कारखानों एवं निर्माण कार्यांे में बढ़ती पानी की मांग, सतही जल-स्त्रोतों के बढ़ते प्रदूषण एवं गलत जल प्रबंधन जैसी चुनौतियां, मौसमी बदलाव व जलवायु परिवर्तन के चलते और   बढ़ेंगी । 
जल एवं जंगल के अटूट रिश्ते को कौन नहीं जानता ? किसी प्रकृति प्रेमी ने वर्षों पूर्व लिखा था कि ``जिन पेड़ों, जंगलों पर बादलों के जनवासे (बारात के ठहरने की जगह) दिए जाते थे, उनका सफाया हो रहा है । 'राष्ट्रीय वन नीति` के अनुसार मैदानी तथा पहाड़ी क्षेत्रों में क्रमश: ३३ एवं ६६ प्रतिशत भू-भाग पर जंगल होना जरूरी है, परंतु यह स्थिति कहीं ठीक नहीं है। आज देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल के लगभग २१-२२ प्रतिशत पर ही जंगल है ।  इनमें भी २-३ प्रतिशत सघन वन, ११-१२ प्रतिशत मध्यम वन और ९-१० प्रतिशत छितरे जंगल हैं । देश के १६ पहाड़ी राज्यों एवं केन्द्र शासित प्रदेशों   में केवल ४० प्रतिशत भाग पर ही जंगल   है । 
उत्तर-पूर्वी राज्यों में देश के जंगलों का एक चौथाई हिस्सा है, परंतु यहां वर्ष २०१५ से २०१७ के मध्य लगभग ६३० वर्ग किमी जंगल क्षेत्र घट गया है। यह इलाका दुनिया के १८ प्रमुख जैव-विविधता क्षेत्रों (हाट स्पॉट्स) में आता है। जानकारों के अनुसार लगभग ८० प्रतिशत जैव-विविधता जंगलों में ही पायी जाती है। एक आंकलन के  अनुसार देश में जंगलों के घटने से २० प्रतिशत से ज्यादा जंगली पौधों एव जीवों पर विलुप्ति का खतरा फैल गया है । हिमालयी पर्वतमाला, अरावली पहाडियां, विंध्याचल एवं सतपुड़ा के पहाड़ तथा पश्चिमी-घाट क्षेत्र में भी विकास कार्यो हेतु भारी मात्रा में जंगल काटे गये हैं एवं काटे जा रहे हैं । बीसवीं सदी के अंत तक अरावली पहाडियों पर ५० प्रतिशत हरियाली थी जो अब घटकर महज .०७ प्रतिशत रह गयी है। अवैध, खनन सेेकई स्थानों पर समाप्त पहाडियों के कारण थार के रेगिस्तान की रेत दिल्ली की ओर आ रही है । जाहिर है, देश की राजधानी दिल्ली रेगिस्तान विस्तार की गिरफ्त में है ।
जल एवं जंगल का जमीन से भी गहरा रिश्ता होता है, क्योंकि जमीन ही इन दोनों को जगह देकर खेती में भी मद्दगार होती है। खेती के लिए उपजाऊ भूमि जरूरी है, परन्तु हमारे देश में खेती की भूमि पर दो प्रकार के संकट हैं । पहला, बढ़ते शहरीकरण, औद्योगी-करण एवं परिवहन योजनाओं के कारण इसका क्षेत्र घटता जा रहा है। दूसरा, बाढ़, सूखा, अम्लीयता, क्षारीयता, प्रदूषण एवं जल-जमाव आदि कारणों से इसकी उत्पादकता कम हो रही है। 
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) ने कुछ वर्ष पूर्व अपने एक अध्ययन में बताया था कि देश की कुल १५० करोड़ हेक्टर कृषि भूमि में से लगभग १२ करोड़ की पैदावार घट गयी है एवं ८४ लाख हेक्टर समस्या ग्रस्त है। आठ राज्यों (राजस्थान, महाराष्ट्र, दिल्ली, झारखंड़, गोवा, हिमाचल प्रदेश, नागालैंड एवं त्रिपुरा) में लगभग ४० से ७० प्रतिशत भूमि कई कारणों से बंजर होने की कगार पर है ।  
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि देश में जल, जंगल, जमीन एवं खेती के  हालात अच्छे नहीं हैं, लेकिन इन पर किसी भी राजनैतिक दल ने सत्रहवीं लोकसभा के इस चुनाव में कोई गंभीरता नहीं दिखाई है। किसानों को कर्जमाफी एवं कुछ कुछ राशि देने की ही चर्चाएं होती रहीं हैं, परंतु इससे जल, जंगल, जमीन एवं खेती के सुधरने के  कोई आसार नजर नहीं आते । ये सारे संसाधन मनुष्य के जीवन-व्यापन हेतु जरूरी आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ती करते हैं । यह मनुष्य ही आखिरकार चुनाव में भी वोटर या मतदाता होता है। 
राजनैतिक दल इन संसाधनों के रख-रखाव, संरक्षण एवं उन्हें बढ़ाने की ओर प्रतिबद्धता दर्शाते तो यह वोटरों को लाभ पहुंचाने का ही प्रयास माना जाता। देश में जलवायु परिवर्तन से पैदा समस्याओं के प्रति भी विभिन्न राजनीतिक दलों ने उदासीनता ही दिखायी है । कई देशों में तो अब पर्यावरण संरक्षण हेतु अलग से दल तक बन रहे हैं, परंतु हमारे यहां अभी तक किसी भी लोकसभा चुनाव में पर्यावरण, कोई  मुद्दा तक नहीं बना है ।

कोई टिप्पणी नहीं: