सोमवार, 20 मई 2019

विशेष लेख
वनाधिकार अधिनियम और आदिवासी
अनुराग मोदी
लोकसभा चुनाव से  ठीक पहले जंगल को लेकर आए दो फैसलों ने आदिवासियों को बेचैन कर दिया है। 
भाजपा की केन्द्र सरकार के प्रति नाराजी पैदा करने वाले इन फैसलों में पहला है, 'वनाधिकार अधिनियम-२००६` पर हाल में आया सुप्रीम कोर्ट का वह आदेश जिसमें करीब १२ लाख आदिवासी परिवारों को उनकी पीढ़ियों की बसाहट से बेदखल किया जाना था । इन आदिवासियों और अन्य पारंपरिक वन-निवासियों के 'वनाधिकार कानून` के तहत किए गए दावे खारिज कर दिए गए थे। सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश सुनवाई में केन्द्र सरकार की लापरवाही के चलते कई-कई बार आदिवासियों का पक्ष नहीं रखे जाने के कारण आया था। 
दूसरा फैसला, चुनाव की घोषणा के ठीक पहले, ७ अप्रेल-मई को 'वन कानून- १९२७` में अंग्रेजों को भी शर्मसार करने वाले संशोधन का प्रस्ताव । हालांकि, दोनों ही मामलों में फिलहाल को कार्यवाही नहीं की जाएगी । पहले मामले में केंद्र सरकार की अंतरिम याचिका के चलते सुप्रीम कोर्ट ने जुलाई माह तक बेदखली के अपने ही आदेश पर रोक लगा दी है और दूसरे में 'वन कानून-१९२७` में परिवर्तन  भी आम चुनाव के बाद ही संभव होगा ।   
केन्द्र सरकार के इन आदिवासी विरोधी कदमों को लेकर आदिवासियों के बीच सक्रिय संगठनों ने कमर कस ली है। उनका स्पष्ट मानना है कि यह आदिवासियों के जंगल पर पारंपरिक अधिकारों पर सीधा हमला है। चुनाव के बाद इन दोनों ही मामलों में कार्यवाही होगी, इसलिए देशभर के आदिवासियों ने लोकसभा चुनाव में इसे मुद्दा बनाने का तय कर लिया है। एक अप्रैल को मध्यप्रदेश के बुरहानपुर शहर में 'जागृत आदिवासी दलित संगठन` के बैनर तले आयोजित 'चेतावनी रैली` में एकत्रित हुए पांच हजार आदिवासियों एवं अन्य संगठनों के प्रतिनिधियों के तेवर से यह बात साफ थी। शहरभर में निकाली गई रैली के बाद हुई आमसभा में इन संगठनों ने कांग्रेस और भाजपा से वन अधिकार के मुद्दे पर अपना पक्ष साफ करने को कहा है। 'वोट हमारा-राज तुम्हारा, नहीं चलेगा, नहीं चलेगा` का नारा देते हुए इस विशाल जमावडे ने खुलासा कर दिया कि अब आदिवासी चुपचाप आँख मूंदकर अपना वोट नहीं देगा ।
बुरहानपुर में आदिवासियों का सबसे बड़ा सवाल था कि 'वनाधिकार अधिनियम` पर सुनवाई  के दौरान सुप्रीम कोर्ट में केन्द्र सरकार मौन क्यों रही ? जबकि  सच्च् यह है कि 'वनाधिकार कानून-२००६` के क्रियान्वयन के नाम पर उसकी धज्जियाँ उड़ा  जा रही हैं। इस कानून में ग्राम सभाओं को वन अधिकार के दावों की जांच कर पात्रता तय करने का हक है, पर ग्राम सभाओं के बैठने के  पहले ही या ग्राम सभाओं के प्रस्तावों को नजरंदाज कर वन विभाग का अमला एवं जिला प्रशासन दावों को अपात्र बता देता है। सामुदायिक वन अधिकार कहीं नहीं दिए गए हैं। 
सभा में आदिवासियों ने विस्तार में बताया कि किस तरह पीढ़ियों से उन्हें प्रताड़ित किया जा रहा है, उनको अपने घर और खेत से उजाड़ा गया है, उनके घर जलाये गए हैं, महिलाओं और बच्चें के साथ भी मार-पीट की गई है, उन्हें जेल में बंद किया गया है, उनके खेत नष्ट किये गए हैं, मवेशी जब्त किये गए हैं । वनाधिकार कानून के तहत यह सब प्रतिबंधित है, पर आज भी ये सिलसिला जारी है और इस गैर-कानूनी आतंक के खिलाफ सभी नेता और प्रशासन मौन हैं। 
केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के बेदखली केआदेश के बाद दायर अंतरिम याचिका में खुद ही यह माना है कि दावे को तय करने की प्रक्रिया सही ढंग से नहीं हुई है एवं जिनके दावे खारिज हुए हैं उन्हें सुना भी नहीं गया है। अगर सरकार पहले ही यह पूरी बात कोर्ट के सामने रखती तो बेदखली का आदेश नहीं आता।
मध्यप्रदेश-महाराष्ट्र की सीमा पर स्थित बुरहानपुर में आयोजित आदिवासियों की आमसभा में कांग्रेस के रवैये पर भी नाराजी जाहिर की गई । उनका सवाल था कि यूपीए सरकार क्यों अपने कार्यकाल में, अपने ही द्वारा लाए गए 'वनाधिकार कानून-२००६` का सही-सही पालन नहीं करवा पाई ? मोदी सरकार के दोनों फैसलों को इस लोकसभा चुनाव में कांग्रेस क्यों प्रमुख चुनावी मुद्दा नहीं बना रही है? जबकि आज मध्यप्रदेश, छतीसगढ़ एवं राजस्थान में कांग्रेसी सरकार आदिवासियों, दलितों की दम पर है । मध्यप्रदेश में ही कांग्रेस के ४१प्रतिशत विधायक आरक्षित वर्ग से हैं । 
'वन कानून-१९२७` ब्रिटिश सरकार के व्यापारिक हितों को ध्यान में रखकर बनाया गया था। इस कानून ने आदिवासियों की रोजमर्रा की जरूरतों को अपराधिक करार देते हुए उन्हें अपने ही घर में चोर बना दिया था । इस कानून के आधार  पर  ही वन विभाग आदिवासी क्षेत्र के लगभग आधे भू-भाग का मालिक बन गया था। वन विभाग को दुनिया का सबसे बड़ा जमींदार और आदिवासियों को गुलाम बनाने वाले इस कानून से मुक्ति पाकर असली आजादी प्राप्त करने के लिए इसमें बड़े बदलाव की जरुरत लम्बे समय से महसूस की जा रही थी। अब, आजादी के ७२ साल बाद इसमें जो बदलाव प्रस्तावित किए जा रहे हैं वे इस कानून को और अत्याचारी बना देंगे।
मसलन-'वन कानून-१९२७` में बदलाव के प्रस्ताव के अनुसार जंगल में अतिक्रमण कर खेती करने,झोपडी बनाने या बिना इजाजत वनोपज लेने, पत्ते बीनने पर होने वाली सजा को एक माह से बढ़ाकर ६ माह किया जाएगा ।  उसके साथ ही जुर्माने की राशि को ५०० से बढ़ाकर पांच हजार रुपए किया जाएगा। दूसरी बार पकड़ाने पर यह सजा बढ़कर एक साल और जुर्माने की राशि २० हजार से लेकर दो लाख रुपए तक हो जाएगी । इतना ही नहीं, वन विभाग व्दारा बनाए कच्च्े या पक्के पिलर, टीला, फेंसिंग, गड्ढे, रेलिंग आदि किसी भी चीज को नुकसान पहुंचता है, या जगह से हटाया जाता  है, तो तीन से सात साल तक की सजा और ५० हजार से ५० लाख रुपए तक का जुर्माना होगा। 
'वनाधिकार कानून-२००६` में निस्तार के क्या अधिकार हैं और वो किन-किन लोगों के नाम पर हैं, यह वन विभाग के पास लिखा रहेगा । इसके अलावा अगर जंगल से गिरे हुए पत्ते भी उठाकर लाएंगे तो वन-अपराध में प्रकरण बनेगा। इस तरह के प्रावधान किसी भी कानून में शामिल करना तो दूर, इसके बारे में सोचना भी जन-विरोधी है। किसी भी लोकतांत्रिक  देश की सरकार ऐसा कैसे सोच सकती है कि कुपोषण और भुखमरी से पीड़ित को समुदाय हजारों और लाखों रुपयों का जुर्माना भर   पाएगा ! इन अपराधों में लोगों को पकड़कर बंद करने के लिए जंगल में वन थाने बनाने का प्रस्ताव भी है। 
इतना ही नहीं, हर जिला अदालत में इन मामलों की सुनवाई के लिए अलग से कोर्ट बनाने की भी खा़स व्यवस्था करने की बात है। ऐसे में सहज सवाल उठता है कि ऐसी कौन-सी जरुरत आन पड़ी कि लोकसभा चुनाव की घोषणा के ठीक दो दिन पहले सरकार ने 'वन कानून-१९२७` में अंग्रेजों को भी शर्मसार करने वाले संशोधन प्रस्तावित किए ?
जाहिर है, केन्द्र की भाजपा सरकार समूचा जंगल कंपनियों को देने की हड़बड़ी में है। हाल ही में छतीसगढ़ में चार लाख एकड जंगल अडानी से जुड़ी एक कंपनी को कोयला निकालने के लिए दिया जा चुका है। बाकी जंगल पर्यावरण बचाने के नाम पर उद्योगों, पूंजीपतियों को दिया जाएगा। सरकार आदिवासियों और वननिवासियों की  रोजमर्रा की जरूरतों को भी अपराध मानकर उन्हें जेल में डालने और भारी जुर्माने ठोंकने की तैयारी कर रही है। इस सबके खिलाफ चुनाव के बाद भी आदिवासी और सरकार के बीच कड़े संघर्ष की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता ।                    

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