ज्ञान विज्ञान
बर्फ के नीचे छिपे महासागर की खोज
जुलाई २०१७ में, अंटार्कटिक प्रायद्वीप के पूर्वी भाग में लार्सन सी आइस शेल्फ से एक विशाल हिमखंड टूट गया था । इसके टूटने के साथ ही वर्षों से बर्फ के नीचे ओझल समुद्र की एक बड़ी पट्टी सामने आ गई । इस समुद्र में जैव विकास और समुद्री जीवों की गतिशीलता तथा जलवायु परिवर्तन के प्रति उनकी प्रतिक्रिया के सुराग मिल सकते हैं।
जर्मनी के अल्फ्रेड वेगेनर इंस्टीट्यूट फॉर पोलर एंड मरीन रिसर्च के वैज्ञानिक बोरिस डोर्सेल के नेतृत्व में ४५ वैज्ञानिकों की एक अंतर्राष्ट्रीय टीम इस समुद्र की खोजबीन के लिए रवाना होने की योजना बना रही है । किन्तु इस दूरस्थ क्षेत्र तक पहुंचना और इतने कठिन मौसम में शोध करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है, अलबत्ता यह काफी रोमांचकारी भी होगा ।
लार्सन सी से अलग हुआ बर्फ का यह टुकड़ा ५,८०० वर्ग किलोमीटर का है और २०० किलोमीटर उत्तर की ओर बह चुका है । वैज्ञानिक यह जानने को उत्सुक है कि कौन सी प्रजातियां बर्फ के नीचे पनप सकती हैं, और उन्होंने अचानक आए इस बदलाव का सामना कैसे किया होगा । छानबीन के लिए पिछले वर्ष कैंब्रिज विश्वविद्यालय की जीव विज्ञानी कैटरीन लिनसे की टीम का वहां पहुंचने का प्रयास समुद्र में जमी बर्फ के कारण सफल नहीं हो पाया था। परिस्थिति अनुकूल होने पर नई टीम वहां समुद्र और समुद्र तल के नमूने तो ले पाई, लेकिन ज्यादा आगे नहीं जा पाई ।
अल्फ्रेड वेगेनर इंस्टीट्यूट द्वारा संचालित पोलरस्टर्न जर्मनी का प्रमुख धु्रवीय खोजी पोत है और दुनिया में सबसे अच्छा सुसज्जित अनुसंधान आइसब्रोकर है। इसमें मौजूद दो हेलीकॉप्टर सैटेलाइट इमेजरी और उड़ानों का उपयोग करके बर्फ की चादर में जहाज का मार्गदर्शन करेंगे ।
यदि बर्फ और मौसम की स्थिति सही रहती है तो टीम कुछ ही दिनों में वहां पहुंच सकती है । वहां दक्षिणी गर्मियों और विभिन्न आधुनिक उपकरणों की मदद से वैज्ञानिकों को काफी समय मिल जाएगा जिससे वे समुद्र के जीवों और रसायन के नमूने प्राप्त् कर सकेगे । टीम का अनुमान है कि वेडेल सागर जैसे गहरे समुद्र का पारिस्थितिकी तंत्र बर्फ के नीचे अंधेरे में विकसित हुआ है ।
यदि नई प्रजातियां इस क्षेत्र में बसना शुरू करती हैं, तो कुछ वर्षों के भीतर पारिस्थितिकी तंत्र में काफी बदलाव आ सकता है। गैस्ट्रोपोड्स और बाईवाल्व्स जैसे जीवों के ऊतक के समस्थानिक विश्लेषण से आइसबर्ग के टूटने के बाद से खाद्य श्रृंखला में बदलाव का पता लगाया जा सकता है, क्योंकि जानवरों के ऊतकों में रसायनों की जांच से उनके आहार क ेसुराग मिल जाते हैं।
मानवीय गतिविधियों से अप्रभावित इस क्षेत्र से लिए जाने वाले नमूने शोधकर्ताओं के लिए एक अमूल्य संसाधन साबित होंगे । इस डैटा से वैज्ञानिकों को समुद्री समुदायों के विकास से जुड़े प्रश्नों को सुलझाने में तो मदद मिलेगी ही, यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि इस समुद्र के नीचे पाई जाने वाली ये प्रजातियां कितनी जल्दी बर्फीले क्षेत्र में रहने के सक्षम हो जाएंगी
क्या बिल्लियां अपना नाम पहचानती हैं ?
बिल्लियां इंसानों के प्रति थोड़े उदासीन स्वभाव के लिए जानी जाती हैं। कई बिल्लियोंके मालिकों को लगता है कि जब वे उन्हें पुकारते हैं तो वे प्रतिक्रिया नहीं देती । लेकिन हाल ही में साइंटिफिक रिपोर्टस में प्रकाशित अध्ययन कहता है कि पालतू बिल्लियां अपना नाम पहचानती हैं और पुकारे जाने पर अपना सिर घुमाकर या कान खड़े कर उस पर प्रतिक्रिया भी देती हैं।
बिल्लियांअपना नाम पहचानती हैं या नहीं? यह जानने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ टोक्यो के अत्सुतो साइतो और उनके साथियों ने जानवरों के व्यवहार के अध्ययन के लिए इस्तेमाल की जाने वाली तकनीक की मदद से बिल्लियों पर अध्ययन किया। शोधकर्ताओं ने घरेलू पालतू बिल्लियों (फेलिस कैटस) के मालिकों से बिल्लियों के नाम से मिलती-जुलती और उतनी ही लंबी ४ संज्ञाएं पुकारने को कहा। अंत में मालिकों को बिल्ली का नाम पुकारना था ।
शोधकर्ताओं ने संज्ञाओं के पुकारे जाने पर बिल्लियों की प्रतिक्रिया का बारीकी से अध्ययन किया । उन्होंने पाया कि पहली संज्ञा पुकारे जाने पर बिल्लियों ने अपना सिर या कान घुमाकर थोड़ी-सी प्रतिक्रिया दिखाई थी लेकिन चौथी संज्ञा आते-आते बिल्लियों की प्रतिक्रिया में कमी आई थी। और जब पांचवी बार बिल्लियों का अपना नाम पुकारा गया तब ११ में से ९ बिल्लियों की प्रतिक्रिया फिर से बढ़ गई थी ।
लेकिन सिर्फ इतने से साबित नहीं होता कि वे अपना नाम पहचानती हैं। अपने नाम के प्रति प्रतिक्रिया देने के पीछे एक संभावना यह भी हो सकती है कि अन्य पुकारे गए शब्दों (नामों) की तुलना में उनके नाम वाला शब्द ज्यादा जाना-पहचाना था । इस संभावना की जांच के लिए शोधकर्ताओं ने एक और प्रयोग किया। इस बार उन्होंने उन बिल्लियों के साथ अध्ययन किया जहां एक घर में पांच या उससे ज्यादा पालतू बिल्लियां थीं । बिल्लियों के मालिकों को शुरुआती ४ नाम अन्य साथी बिल्लियों के पुकारने थे और आखिरी नाम बिल्ली का पुकारना था ।
शोधकर्ताओं ने पाया कि आखिरी नाम पुकारे जाने तक २४ में से सिर्फ ६ बिल्लियों की प्रतिक्रिया में क्रमिक कमी आई थी, अन्य बिल्लियां सभी नामों के प्रति सचेत रहीं । इस परिणाम से लगता है कि बिल्लियां जाने-पहचाने नामों (शब्दों) के साथ कोई अर्थ या इनाम मिलने की संभावना देखती हैं इसलिए सचेत रहती हैं । लेकिन अध्ययन में जिन ६ बिल्लियों ने अन्य नामों के प्रति उदासीनता दिखाई उन्होंने अपना नाम पुकारे जाने पर अत्यंत सशक्त प्रतिक्रिया दी। इससे लगता है कि कुछ बिल्लियां अपने नाम और अन्य नामों के बीच अंतर कर पाती हैं।
इस बात की पुष्टि के लिए शोधकर्ताओं ने कैट कैफे की बिल्लियों के साथ एक और अध्ययन किया, जहां लोग आकर बिल्लियों के साथ वक्त बिताते हैं। इस अध्ययन में बिल्लियों ने अपने नाम के प्रति अधिक प्रतिक्रिया दिखाई। इन सभी अध्ययनों के परिणामों के मिले-जुले विश्लेषण से लगता है कि बिल्लियों के लिए उनका अपना नाम उनके लिए कुछ महत्व रखता है। युनिवर्सिटी ऑफब्रिस्टल के जॉन ब्रेडशॉ का कहना है कि बिल्लियां कुतों की तरह सीखने में माहिर होती हैं। लेकिन उन्होंने जो सीखा उसका वे प्रदर्शन नहीं करती । ।
सुपर प्लांट जो सोख लेगा कार्बन डाई ऑक्साइड
दुनियाभर में जलवायु परिवर्तन की बढ़ रही समस्याआें से कुछ हद तक निजात पाने के लिए अमरीका के कैलिफोर्निया स्थित साल्क इंस्टीट्यूट ऑफ बायोलॉजिकल स्टडीज की प्रोफेसर डॉ जोन चोरि ने एक नायाब तरीका खोज निकाला है ।
असल में डॉ जोन एक ऐसी योजना पर काम कर रही है जोकि पृथ्वी के तापमान को कम कर देगा । उन्होंने एक ऐसे पौधे को विकसित किया है जो वातावरण से कार्बन डाई ऑक्साइड को सोख लेगा, इससे प्रतिवर्ष ४६ फीसदी तक कार्बन की मात्रा को कम किया जा सकेगा ।
जलवायु संरक्षण को लेकर लम्बे समय से काम कर रही डॉ. जोन बताती है कि वैसे सुनने में यह बहुत ही आसान है, लेकिन जिस पौधे की हम कल्पना कर रहे हैं उससे वातावरण में तेजी से बढ़ रही कार्बन की मात्रा को कम करने का प्रयास है ।
निश्चित ही इसे जलवायु परिवर्तन की दिशा में एक सार्थक कदम के रूप में देखा जा सकता है । वैसे तो प्राकृतिक रूप से हर पौधे कार्बन का अवशोषण करके ऑक्सीजन देते हैं ।
कार्बन शोषित करने और एकत्र करने के लिए समय के साथ पौधे विकसित हुए हैं । असल में पौधों की जड़ों में सबेरिन नाम का एक पदार्थ पाया जाता है जोकि कार्बन को अवशोषित करने में मदद करता है । जिस पौधे के विकास पर डॉ. जोन की टीम काम कर रही है उसकी जड़े प्राय: सामान्य पौधों से लम्बी होगी । ऐसे में ये पौधे अधिक मात्रा में कार्बन का अवशोषण कर सकेंगे ।
मौजूदा समय में साल्क इंस्टीट्यूट बीज कंपनियों के साथ बातचीत कर दुनियाभर में नौ कृषि फसलोंपर परीक्षण कर आदर्श पौधे तैयार करने की दिशा में काम कर रहा है ।
गेहूं, सोयाबीन, मक् का और कपास के पौधों पर इस साल के अंत में फील्ड-टेस्टिंग शुरू हो सकती है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें