कविता
हमारा पर्यावरण
श्याम मोहन दुबे
प्रकृतिका यदि चाहो पावन वातावरण,
बन्द करना होगा, वनों का विनष्टीकरण ।
नदियों, ताल, झीलें, रहें सदा जलवती,
होगा तभी जब सुचारू होगा पर्यावरण ।।
हर ओर होता जा रहा है, अतिक्रमण,
इससे प्रदूषित हो रहा वातावरण ।
गन्दगी के शिखर पर खड़े है हर नगर,
कितना असंतुलित हो गया, पर्यावरण ।
अनियोजित बसाहट का विस्तार हर ओर,
ध्वनि प्रदूषण का बढ़ता जा रहा है शोर ।
बढ़ती आबादी, गंदी बस्तियां, महामारी,
नियंत्रित कर इन्हें लाना अब सुहानी भोेर ।
कीड़े मकोड़े कीच दुर्गंंध और दूषित पानी,
अनियोजित बस्तियों की दुर्दशा की कहते कहानी ।
वायु की शुद्धता पर लगी प्रश्न चिन्हों की कतारें,
इन बस्तियों का हो रही बूढ़ी असमय जवानी
हमारा पर्यावरण
श्याम मोहन दुबे
प्रकृतिका यदि चाहो पावन वातावरण,
बन्द करना होगा, वनों का विनष्टीकरण ।
नदियों, ताल, झीलें, रहें सदा जलवती,
होगा तभी जब सुचारू होगा पर्यावरण ।।
हर ओर होता जा रहा है, अतिक्रमण,
इससे प्रदूषित हो रहा वातावरण ।
गन्दगी के शिखर पर खड़े है हर नगर,
कितना असंतुलित हो गया, पर्यावरण ।
अनियोजित बसाहट का विस्तार हर ओर,
ध्वनि प्रदूषण का बढ़ता जा रहा है शोर ।
बढ़ती आबादी, गंदी बस्तियां, महामारी,
नियंत्रित कर इन्हें लाना अब सुहानी भोेर ।
कीड़े मकोड़े कीच दुर्गंंध और दूषित पानी,
अनियोजित बस्तियों की दुर्दशा की कहते कहानी ।
वायु की शुद्धता पर लगी प्रश्न चिन्हों की कतारें,
इन बस्तियों का हो रही बूढ़ी असमय जवानी
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