शनिवार, 18 जून 2016

कृषि जगत
जलवायु परिवर्तन और हमारी कृषि
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित

आजकल तापमान निरन्तर बढ़ता जा रहा है । २१वीं शताब्दी के पहले १६ बरसों में १५ बरस पिछली एक शताब्दी की तुलना में सर्वाधिक गर्म रहे हैं इसके कई कारण है लेकिन इसका एक बड़ा कारण हरियाली में आ रही निरन्तर कमी   है । 
यह आश्चर्य का विषय है कि पेड़, नदियों और पहाड़ों के अलावा जीव जन्तुआें तक की पूजा करने वाले भारतीय समाज को आज इनके विनाश को लेकर उतनी चिंता नहीं है जितनी होनी चाहिए । 
तापमान में वृद्धि और जलवायु परिवर्तन की समस्या केवलपर्यावरण का विषय नहीं है बल्कि यह हमारी कृषि व्यवस्था, आर्थिक और औघोगिक नीति और जीवन शैली से जुड़ा हुआ है । जलवायु परिवर्तन का सीधा प्रभाव खेती पर पड़ेगा क्योंकि तापमान, वर्षा आदि में बदलाव आने से मिट्टी की क्षमता में कमी होगी और कीट पतंगों से फैलनेवाली बीमारियां बड़े पैमाने पर होगी । गर्म मौसम होने से वर्षा चक्र प्रभावित होता है, इससे बाढ़ या सूखे का खतरा बढ़ता है । 
मालवा की बात करे तो एक समय था जब डग-डग रोटी पग-पग नीर के मुहावरे के लिए मालवांचल प्रसिद्ध था इन दिनों गायब होती हरियाली और तेजी से नीचे जा रहे भूजल स्तर के कारण मालवा की वर्तमान स्थिति को डग-डग अभाव और पग-पग प्यास के रूप में अभिव्यक्त किया जा सकता है । कृषि वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे है यदि तापमान ३-५ डिग्री बढ़ता है तो गेहूं के उत्पादन में १०-१५ प्रतिशत की कमी आ जाएगी ।
जलवायु परिवर्तन के कारणों को देखे तो औद्योगिकरण के कारण वर्तमान में जीवाश्म ईधनों का अधिकाधिक उपयोग हो रहा है । फलत: प्रचुर मात्रा में कार्बन-डाई-ऑक्साईड, कार्बन मोनो ऑक्साइड, नाईट्रस ऑक्साइड जैसी गैसें उत्सर्जित होकर वायु मण्डल में मिल रही है, इससे पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है । पृथ्वी का औसत वार्षिक तापमान लगभग १५ डिग्री सेटीग्रेट है । पृथ्वी को गर्म रखने की वायुमण्डल की यह क्षमता ग्रीन हाऊस गैसों की उपस्थिति पर निर्भर करती   है । यदि ग्रीन हाऊस गैसों की मात्रा में वृद्धि हो जाए तो, वे पराबैगनी किरणों को अत्यधिक मात्रा में अवशोषित कर लेगी । परिणामस्वरूप ग्रीन हाउस प्रभाव बढ़ जाएगा, जिससे वैश्विक तापमान में अत्यधिक वृद्धि हो जाएगी । तापमान में वृद्धि की इस स्थिति को ही ग्लोबल वार्मिग कहते है । 
बढ़ते वैश्विक तापमान यानि ग्लोबल वार्मिग के लिये कोई एक कारण जिम्मेदार नहीं है वरन् इसके लिए अनेक कारण जिम्मेदार है और इन सब में महत्वपूर्ण है, मानव गतिविधियाँ । मनुष्य की उपभोगवादी प्रवृत्ति, जिसके कारण हमारी पृथ्वी का सुन्दर पर्यावरण बिगड़ता चला जा रहा है और अनेक विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न हो रही है । 
बढ़ता शहरीकरण, औद्योगिकरण, वाहनों की भीड़, क्लारो फ्लोरो कार्बन का वातावरण में रिसाव, बढ़ती विमान यात्राएें, प्रकृति के साथ किया जा रहा खिलवाड़ एवं सबसे बढ़कर हमारी विलासितापूर्ण जीवन शैली का असर पूरे विश्व पर पड़ रहा है एवं सबसे ज्यादा प्रभावित वे देश हो रहे है जिनकी आबादी ज्यादा है और विकास की दृष्टि से पीछे है । 
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव कई देशों की सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था पर पड़ा है । कतिपय देशों का सकल घरेलू उत्पाद और उनसे प्राप्त् होने वाली आय में प्राकृतिक संसाधनों की अहम भूमिका है । दक्षिणी एशिया के चीन व भारत दो ऐसे विकासशील देश है, जहाँ प्राकृतिक साधनों के दोषपूर्ण विदोहन से यहाँ की अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ रहा है । यहा वन क्षेत्र कम हुआ है, बीसवीं सदी में भारत भूमि लगभग ३० प्रतिशत वनाच्छादित थी, जो घटकर मात्र १९.४ प्रतिशत ही रह गई है । भारतीय अर्थव्यवस्था मुख्यत: कृषि आधारित है, कृषि के लिये जल का महत्व है, पहले ही मानसून की अनिश्चिता के कारण भारतीय कृषि अनिश्चितता का शिकार रही है । 
विभिन्न फसलोंके उत्पादन एवं उसकी उत्पादकता पर प्रभाव पड़ा है, फसलों पर कीटों का प्रकोप बढ़ा है, कृषि उत्पादन में कमी के कारण, कृषि पदार्थो की कीमतों में भारी वृद्धि देखी जा रही है, जिससे आम आदमी को अपनी रोजमर्रा की आवश्यकता को पूरा करने में भारी कठिनाईयों को सामना करना पड़ रहा है । जलवायु परिवर्तन के कारणों से मानव का स्वास्थ्य भी अछूता नहीं है । स्वाईन फ्लू, डेंगू, चिकन गुनिया, बर्ड फ्लू, कैंसर इत्यादि बीमारियों की संख्या बढ़ी है । 
हमारी कृषि व्यवस्था पर प्रसिद्ध विज्ञान लेखक प्रो. दिनेश मणि का कहना है भारत में वैज्ञानिक कृषि का शुभारंभ १६वीं शताब्दी में हुआ । जनसंख्या में निरन्तर वृद्धि होने के कारण कृषि उत्पादन बढ़ाने की आवश्यकता पड़ी । नई नीतियों का जन्म हुआ जिनका सीधा प्रभाव कृषि पर पड़ा । नकदी खेती के लिए गन्ना, कपास, तम्बाकू, चारा, पशु उत्पादन, ऊन और चमड़ा पैदा करने पर ध्यान दिया गया । १९वीं शताब्दी में यातायात के साधनों से कृषि के विकास को बल मिला । नदियों से नहरे निकालने की योजनाआें को क्रियान्वित किया गया । मृदा पर परीक्षण किए गए तथा उन्हें विभिन्न भागों में उनके विन्यास के अनुसार बांटा गया । उर्वरता पर आधारित पूरे देश की मृदाआें को नक्शे पर लाया गया । मृदाआें एवं जलवायु की विविधताआें को ध्यान में रखकर उपयुक्त फसलें एवं फसल पद्धतियां सुझाई गई । सिंचित एवं बारानी खेती के लिए कृषि तकनीकों का ज्ञान एवं विकास इन्हीं दिनों में प्रारंभ हो गया था । इस प्रकार कृषि के क्षेत्र में भारत प्रगति के पथ पर आगे बढ़ने लगा । 
यह सर्वविदित है कि हमारा देश कृषि प्रधान देश है । कृषि पर सबसे अधिक दबाव देश में बढ़ती जनसंख्या का है । देश के ३२ करोड़ ९० लाख हेक्टेयर भौगोलिक क्षेत्रफल में से खेती केवल १४ करोड़ ३० लाख हेक्टेयर में ही की जाती है । हमें वर्तमान में इन उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों द्वारा ही कृषि उत्पादों में बढ़ोतरी करनी होगी ।
भारतीय कृषि में किसान और पर्यावरण का सीधा संबंध है तथा किसान कृषि और पर्यावरण के बीच की महत्वपूर्ण कड़ी है । इसलिए किसानों को ऐसी खेती करनी चाहिए जिससे खेती में उन्नति के साथ-साथ पर्यावरण को भी शुद्ध बनाये रखा जा सके । जलवायु परिवर्तन के कारण फसलोंकी उत्पादकता एवं गुणवत्ता में कमी आएगी तथा अनेक फसलों के उत्पादन क्षेत्रों में परिवर्तन होगा । तापमान में वृद्धि के फलस्वरूप फसलों की वानस्पतिक वृद्धि, पुष्पन तथा परिपक्वन अवधि में भी परिवर्तन होंगे । जलवायु परिवर्तन के कारण सूखा, अतिवृष्टि तथा चक्रवात जैसी प्राकृतिक आपदाआें में वृद्धि होगी । जलवायु परिवर्तन के कारण खेती के लिए जल की उपलब्धता घटेगी, मृदा अपरदन बढ़ने तथा मृदा में कार्बन की मात्रा घटने से उर्वरता घटेगी और इसका सबसे अधिक असर विकासशील देशों पर पड़ेगा । 
जलवायु परिवर्तन के संभावित दुष्प्रभावों से कृषि को बचाने के लिए अनुकूलन हेतु अनेक कार्यनीतियोंको मूर्तरूप देना होगा । फसलों एवं जीव-जन्तुआें में स्वाभाविक रूप से काफी हद तक अपने आपको ढालने की क्षमता होती है जिसे प्राकृतिक अनुकूलन करते हैं । हमें परम्परागत या आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल कर फसलों की ऐसी प्रजातियां विकसित करनी होगी जो उच्च् तापमान को सह सके । वहीं दूसरी ओर कृषि प्रबंध तकनीकों में सुधार करके हम जलवायु परिवर्तन के संभावित प्रभावोंको काफी हद तक कम कर सकते है । जैसे बुआई का समय, रासायनिक उर्वरकों का संतुलित प्रयोग, कृषि विविधिकरण इत्यादि ऐसी क्रियायें हैं जिनके द्वारा हम जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को काफी  हद तक नियंत्रित कर सकते है । कृषि क्षेत्र में अनुकूलन हेतु नयी प्रणालियों में प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करते हुए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करनी होगी । 
इस कार्य को पूरा करने के लिए टिकाऊ खेती के सिद्धांतोंको समझने व उनके अनुसरण पर जोर देना होगा । पारंपरिक खेती के साथ-साथ कृषि वानिकी, जैविक खेती, न्यूनतम जोत, समन्वित पोषक तत्व प्रबंधन तथा समन्वित नाशीजीव प्रबंधन को अपनाने की आवश्यकता है । तभी हम कृषि को सुरक्षित रख पायेंगे तथा पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचा सकेंगे । बढ़ते तापमान, समुद्री तूफान व अन्य प्राकृतिक आपदाआेंकी चुनौती का सामना करने के लिए अनुसंधानकर्ताआें को एकजुट प्रयास करने चाहिए । कृषि में सुधार के साथ ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को घटाने के विकल्पों की खोज भी अत्यन्त आवश्यक है । 
सम्पूर्ण कृषि विकास के लिए समेकित जलप्रबंधन द्वारा जल की प्रत्येक बूंद का इस्तेमाल कृषि में करने की आवश्यकता है । उन्नत कृषि तकनीकी के प्रचार-प्रसार के लिए कृषि शिक्षा के पाठ्यक्रम को नया रूप देना होगा ताकि कृषि शिक्षा, अनुसंधान विस्तार और भारतीय कृषि में आवश्यकताआें के अनुरूप जनशक्ति तैयार की जा सके । इससे हमारी कृषि और कृषकों को मजबूती मिलेगी । 
मानव जीवन में तीन बुनियादी आधार शुद्ध हवा, ताजा पानी और उपजाऊ मिट्ठी मुख्य रूप से वनों पर ही आधारित है । इसके साथ ही पेड़ से कई अप्रत्यक्ष लाभ भी है जिनमें खाद्य पदार्थ, औषधियों, फल-फूल, इंर्धन, पशु आहार, इमारती लकड़ी, वर्षा सन्तुलन, भूजल संरक्षण और मिट्टी की उर्वरता आदि प्रमुख है। 
पेड़ और पर्यावरण की रक्षा की महान विरासत हमारी राष्ट्रीय धरोहर है । हमने सबसे पहले संसार को संदेश दिया कि पेड़ों से हमारे पारिवारिक रिश्ते है, हम उसे अपना भाई मानते है, उसकी रक्षा में प्राणों की बलि देने में हम संकोच नहीं करते है । 
अतीत में देखे तो पेड़ लगाने और उन्हें सुरक्षित रखने के लिए हमारे देश में प्राचीनकाल से ही प्रयास होते रहे है जिसमें सरकार और समाज दोनों ही समान रूप से भागीदार होते थे राजा सड़क किनारे छायादार पेड़ लगवाते थे तो जन सामान्य इनके संरक्षण की जिम्मेदारी निभाता था इस प्रकार राज और समाज के परस्पर सहकार से देश में एक हरित संस्कृति का विकास हुआ जिसने वर्षो तक देश को हरा भरा रखा आज की विषम परिस्थिति में इसी विचार से हरियाली का विकास होगा जिसकी आज सर्वाधिक आवश्यकता है ।

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