शनिवार, 18 जून 2016

विशेष लेख
साहित्य में प्रकृति और पर्यावरण
मेहता नगेन्द्र सिंह
साहित्य समाज का दर्पण   है । मनीषी के हितकारी विचारों का शाश्वत संग्रह है । मेरे द्वारा साहित्य, खासकर हिन्दी काव्य-साहित्य को अभी तक जिस रूप में जाना और समझा गया है, उसके आधार पर यह कह सकने की स्थिति में हॅू कि साहित्य समग्र अतीत, वर्तमान और अदृश्य सम्भावी भविष्य का समुद्भावक गद्यपद्यात्मक वाक्यों का संचयन है, चिन्तन-मनन का विषय है, जो युगों-युगों से भारतीय संस्कृतिऔर भाषाई सभ्यता को प्रतिध्वनित करता आ रहा है । 
वस्तुत: साहित्य विचारों की उत्तमता, उत्कृष्ट चिन्तन की लक्ष्यधारिता और काल वैशिष्टय की यथार्थ परक सत्यानुभूति है, जो परम दिव्य उपलब्धियों तथा बौद्धिक अनुभवों पर आधृत होकर मानवता का उच्च्तर विकास करता है । साहित्य हमेशा से सत्याधारित, सौन्दर्य एवं शिवत्व के साथ समस्त प्राणियों का हितकारी और ह्दयस्पर्शी रहता आया है । 
यह मानव सभ्यता एवं संस्कृति से तालमेल बैठाता हजारों वर्षो से मनुष्य के ज्ञान का अक्षय स्त्रोत रहा है । साहित्य के बिना जीवन का सरस, आनन्दमय, गतिमय तथा प्रकृति सम्पन्न शाश्वत अस्तित्व संभव नहीं है । इसलिए साहित्यको सत्यम, शिवम और सुन्दरम का प्रतिरूप कहा गया है । यही कारण है कि सहित में तात्विक हितैषणा के भाव में य प्रत्यय के योग से साहित्य निष्पन्न हुआ है । इसके सृजन में प्रकृति उत्प्रेरक तत्व और पर्यावरण संरक्षक-तत्व के रूप मेंसदैव साथ रहा है । यही कारण है कि साहित्य मानव जीवन के लिए आज भी प्रासंगिक और आवश्यक रह सका है । इस तरह साहित्य में प्रकृति और पर्यावरण का चित्रात्मक वर्णन कब और कैसे हुआ है, उसका उल्लेख निम्न पक्तियों में उद्धत है । विषय बोध और उसके विश्लेषण के लिए सर्वप्रथम इसके पारिभाषिक प्रकरण से अधोगत होना जरूरी है । 
प्रकृति और पर्यावरण क्रमश: निम्न पंक्तियों में विनिवेदित है - पृथ्वी पर सृष्टिकर्त्ता ने सर्वप्रथम जीव-सृष्टि के पूर्व उसके आवासन का सृजन किया, जिसमें हरीतिमा, मनोरमता, सौम्यता, सुवासिता, जीवनोपयोगी उत्पादकता, विविधता और गतिशीलता जैसे वैशिष्ट्या की सतत उपलब्धता का प्रबन्धन कर दिया था । ऐसे प्राकृतिक व्यवस्था-विधान के मूर्तरूप को प्रकृति कहा गया है । इसकी मुख्य घटकों में पेड़-पौधों से सम्पन्न जंगलों और वन्य-जीवों की उपस्थिति अनिवार्य रही है । उतंग शिखरों से नदियों एवं झरनों का क्रमश: उतरना और गिरना, चिड़ियों का चहकना, वन फूलों का खिलना और हवा के झोकों से झूलना तथा चन्द्र किरणों का थिरकना आदि प्रकृति की रमनीयता में चार चाँद लगा देते हैं । इसे हम सृष्टिकर्ता की चमत्कारी कारीगरी भी कह सकते है । 
भारतीय वाड़मय मंे प्रकृति का चित्रण अथवा वर्णन भरपूर मात्रा में उपलब्ध है । इसका अध्ययन-मनन क्रमश: आदिकालीन, भक्तिकालीन, रीतिकालीन, छायावादकालीन और उत्तर छायावादकालीन साहित्य में किया गया है । यों तो ये सारे साहित्य आकाशीय विस्तार और सागरीय अगम्यता ग्रहण किये हुए हैं, फिर भी संक्षेप में इन्हें निम्नांकित प्रकारों से उदघाटित करने का प्रयास अपेक्षित है।  
प्रकृति चित्रण का वर्णन प्राय: काव्य साहित्य में समग्र भाव से अधिक हुआ है । हिन्दी काव्य साहित्य का अध्ययन और अनुशीलन से ज्ञान होता है कि भिन्न-भिन्न कालों में भिन्न-भिन्न काव्यकारों ने प्रकृति-चित्रण की प्रवृति पृथक-पृथक ढंग से किया है । आदिकालीन काव्यकारों में से अधिकतर चारण और भाट थे । इनकी काव्य रचना का मुख्य उद्देश्य वीरों का यशोगान करना और युद्ध में संलीन वीरों के ह्दयों में रणोत्साह का संचार करना था । फलत: उनके लेखन में प्रकृति उतनी मुखरित नहीं हो सकी, जितनी होनी चाहिए थी । 
लेकिन आदि कवि वाल्मिकि ने सर्वप्रथम काव्यधारा को प्रवाहित किया, जिससे परवर्ती काव्यकारों की काव्य यात्रा का मार्ग प्रशस्त हुआ । वहीं कालिदास ने प्रकृति के विशाल क्षेत्र का परिभ्रमण किया । मेघदूत उनका मुख्य वाहन रहा । भक्तिकाल में संत कबीरदास, कृष्णभक्त सूरदास और रामभक्त तुलसीदास ने प्रकृति के प्रति अनुराग की भावना प्रकट करने में असीम सफलता पायी । सूफी काव्यकार जायसी ने भी अपने ब्रह्म के वाहय जगत में प्रकृति के प्रत्येक परमाणु को व्याप्त् पाया । परोक्ष ब्रह्म के अनन्त सौन्दर्य की दीिप्त् से समस्त प्रकृति को पूर्ण दिखाया । इसी तरह रीति काल में प्रकृति का उपयोग भाव के उद्दीपन और अलंकार रूप में  हुआ । कवि केशव और बिहारी ने प्रकृति को अपनी नायिका बनाया और उसके सौष्ठव एवं सौन्दर्य का रसमय बखान किया । 
छायावाद कालीन कवियों के बीच प्रकृति सहचरी बनकर अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान पायी । इसी काल में प्रकृति और पुरूष का एकीकरण  हुआ । इस काल के काव्यकार-प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी ने प्रकृति के अमूर्त्त और जड़ पदार्थो को मूर्त्त रूप प्रदान किया और उनका मानवीकरण किया । उन्होंने प्रकृतिमें मानवीय व्यापार और भावों को प्रतिबिम्बित देखा और आने ह्दय में प्रकृति के हर्ष-विवाद का प्रत्यक्ष अनुभव किया । मानव और प्रकृति का यही रागात्मक सम्बन्ध विराट सत्ता के सम्मिलन का माध्यम हुआ । इस तरह मानव ने समझा कि प्रकृति साहचर्य के बिना उनका जीवन अधूरा है । क्यांेकि छायावादी काव्य साहित्य और प्रकृति का परस्पर बड़ा घनिष्ठ संबंध रहा है । 
वस्तुत: प्रकृति ही इन कवियों की सौन्दर्य सर्जना का मूलाधार रहा । छायावादी चतुष्टय के प्राय: सभी कवि प्रकृति-सौन्दर्य से अभिभूत होकर ही मूर्धन्य कवि कहलाये । खासकर पंतजी का काव्य-सौन्दर्य प्रकृति सौन्दर्य से निरूपित है, ऐसा कहना गलत नहीं होगा । 
छायावादोत्तरकालीन कवियों ने भी अपना काव्य परचम प्रकृति प्रांगण से अन्यत्र नहीं लहराया । यद्यपि वे सभी प्रकृतिकी हरीतिमा को निहारते रहे तथापि उन्हें आजादी की लड़ाई भी लड़नी पड़ी । प्रकृति से शक्ति लेकर राष्ट्र प्रेम और राष्ट्रीयता का बोध जनमानस को कराते रहे । आजादी की लड़ाई जीतने के बाद भी पड़ोसी देशों के कटुतापूर्ण दंश झेलने को हम शापित रहे । उन दिनों राष्ट्र कवि दिनकर और गीतों के राजकुमार गोपाल सिंह नेपाली ने अपने ओजस्वी स्वरों से जागृति का शंखनाद करते रहे । 
वर्तमान युग भूमंडलीकरण के गिरफ्त मेंउलझकर यांत्रिक और संवेदनहीन होता गया । फलस्वरूप काव्य पर गद्यात्मक प्रभाव बढ़ता गया । कवियों की कलमों को कृत्रिम स्याही मिलने लगी । कागजी फूलों की रंगीन छटा दिखने लगी । काव्य की खुशबू में विषैली बदबू प्रवेश कर गई । प्रकृति का अंग-प्रत्यंग क्षत-विक्षत होता गया । प्रकृति-प्रांगण भी उदास और बंजर बनता गया क्योंकि वे सभी कांक्रीट के जंगल से घिर गये । ऐसे में कलमकारों के समक्ष कृत्रिम अथवा काल्पनिक प्रकृति उपस्थित हो गयी । कहने का आशय यह है कि हम प्रकृतिवादी की जगह प्रगतिवादी होते गये । इस परिवर्तन का असर हमारे लेखन और साहित्य पर भी पड़ा है, जो हमारी भावभूमि और संवेदनशीलता के लिए घातक सिद्ध होगा । 
हिन्दी साहित्य में पर्यावरण शब्द का प्रवेश स्टॉकहोम में आहूत पृथ्वी शिखर सम्मेलन (१९७२) से हुआ, और ब्राजील सम्मेलन (१९९२) के बाद इस शब्द का प्रयोग और प्रचलन साहित्य में बढ़ने लगा । पर्यावरण प्राकृतिक परिवेश को कहा जाता है । यह दो शब्द खंडों यथा परि और आवरण से निर्मित है । परि का अर्थ घेराव अथवा घिरा हुआ और आवरण का अर्थ आच्छादन अथवा ढका हुआ से है । प्रकृति के जो घटकें यथा क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा के साथ पेड़-पौधे हैं वही घटकें पर्यावरण के भी हैं । इस आशय में प्रकृति और पर्यावरण को पृथक नहीं कर सकते । चूकि पर्यावरण एक वैज्ञानिक  विषय है जो हमारे जीवन अस्तित्व से सीधे जुड़ा होता है । अतएव इस विषय के प्रति हमारी सजगता सर्वोपरि होनी चाहिए । 
यह ज्ञातव्य है कि आज सारा विश्व पर्यावरणीय अवनयन और प्रदूषण के बढ़ते प्रकोप से ग्रसित है । इन दोनों से उत्पन्न समस्याएँ दिनोंदिन जटिल होती जा रही है । इसके निदान और नियंत्रण के लिए सरकारी तंत्रों के साथ-साथ जनमानस को भी आन्दोलित करना नितान्त आवश्यक हो गया है । इसके लिए एक सशक्त साहित्य यानी पर्यावरण साहित्य का सृजन सामयिक और अनिवार्य हो गया । यही कारण रहा कि दलित साहित्य और स्त्री विमर्श साहित्य के अनुरूप पर्यावरण साहित्य का सृजन आन्दोलन आज समय की आवश्यकता है । 
पर्यावरण को लेकर निकलने वाली नियमित पत्रिकाओें मे हरित वसुन्धरा (पटना), पर्यावरण (भारत सरकार), पर्यावरण डाइजेस्ट (रतलाम), हमारी धरती (अलीगढ), पृथ्वी और पर्यावरण (ग्वालियर), पर्यावरण और विकास (इन्दौर) और शिवमपूर्णा (भोपाल) ने भी पर्यावरण साहित्य के संवर्द्धन मेंभरपूर सहयोग प्रदान किया जो प्रशंसनीय ही नहीं आदर के पात्र है । 
समस्त प्राणी जगत के जीवन अस्तित्व के लिए साहित्य में प्रकृति और पर्यावरण को जीवन्त बनाए रखना समय की अहम और अपेक्षित मांग है । जीवन्तता के साथ-साथ इसकी निरन्तरता बनी रहनी चाहिए । 

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