शनिवार, 18 जून 2016

ज्ञान-विज्ञान
पेड़ शाखाएं झुकाकर सोते हैं 
पेड़ शायद खर्राटे न लेते हो मगर नींद के दौरान शायद उनके बदन चटकते है । पहली बार यह अवलोकन किया गया है कि रात के समय पेड़ों के शरीर मेंभौतिक परिवर्तन होते हैंं जो नींद के समान माने जा सकते हैं । नींद की बात छोड़ दें तो भी ये परिवर्तन पेड़ों में दिन-रात के चक्र को तो दर्शाते ही   है । ऐसे परिवर्तन पहले छोटे-छोटे पौधों में ही देख गए थे । 
भूर्ज के पेड़ों पर किए गए अवलोकनों से पता चला है कि रात पूरी होते-होते इनकी शाखाएं पूरे १० से.मी. तक झुक जाती है । हंगरी के इकॉलॉजिकल रिसर्च सेन्टर के एंड्रास ज्लिस्की का कहना है कि यह प्रभाव पूरे पेड़ पर देखा गया और अदभूत  था ।  उनके अनुसार ऐसा प्रभाव पहले किसी ने नहीं देखा था जबकि परिवर्तन काफी बड़ा था ।
ज्ंलिस्की और उनके साथियों ने ऑस्ट्रिया और फिनलैण्ड में भुर्ज पेड़ों का अध्ययन किया है । उन्होंने अपने अध्ययन के लिए सूर्यास्त से सूर्योदय के बीच इन पेड़ों को लेसर पूंजों से स्कैनिंग किया था । लेसर पुंज को पेड़ पर एक ही जगह से डाला जा रहा था । इस पुंज को शाखाआें और तने से टकराकर वापिस आने में लगने वाले समय के आधार पर प्रत्येक पेड़ की गति को नापा जा सकता है । और यह मापन तीन आयामों में हो सकता है और इसकी विभेदन क्षमता १ से.मी. है । 
ऐसे अध्ययन पहले सिर्फ छोटे पौधों पर किए थे और संभवत: बड़े पेड़ों पर ऐसा अध्ययन पहली बार किया गया है । टीम ने भुर्ज के दो पेड़ों को स्कैनिंग के लिए चुना था । एक पेड़ ऑस्ट्रिया में था और दूसरा फिनलैण्ड में । प्रत्येक पेड़ का स्कैनिंग पूरी एक रात के लिए किया गया । फिनलैण्ड के पेड़ का स्कैनिंग हर एक घंटे बाद किया गया जबकि आस्ट्रिया के पेड़ को हर १० मिनट में एक बार स्कैन किया गया । टीम ने लेसर पुंज का इस्तेमाल इसलिए किया था ताकि फोटोग्राफी के दौरान हर बार फ्लैश चमकाने से पेड़ का कुदरती चक्र न गड़बड़ा जाए । 
स्कैनिंग के लिए ऐसी रातें चुनी गइ्र थी जब हवा न चल रही हो ताकि हवा के चलने के असर से बचा  सके । दोनों पेड़ दिन व रात की अवधियों के लिहाज से एक-सी स्थितियों में थे । 
ज्ंलिसकी का मत है कि शाखाआें के ढलने का कारण शायद यह है कि कोशिकाआें के अंदर पानी का दबाव कम हो जाता है जिसकी वजह से उनमें उतना तनाव नहीं रह पाता और वे अपने ही वजन से झुक जाती है । यह भी हो सकता है कि पेड़ आराम फरमा रहा हो । दिन के समय शाखाएं ऊपर की ओर तनी रहे तो धूप मिलने में आसानी होती है । मगर उन्हें तानकर रखने में ऊर्जा खर्च होती है । तो जब रात में रोशनी के लिए जद्दोजहद न करना हो तो शाखाआें को तानकर रखने में कोई तुक नहीं है ।
तो सवाल है कि क्या शाखाआें का झुकना सक्रिय प्रतिक्रिया है जो रात-दिन के चक्र को दर्शाती है या क्या यह पानी और धूप की उपलब्धता के नियंत्रण में  है ? इस सवाल का जवाब देने के लिए पहले तो ऐसे प्रयोग अन्य प्रजातियों पर भी करने होंगे । उसके बाद ही यह देखने का मौका आएगा कि इसकी क्रियाविधि क्या है । 

पतंगे और चमगादड़

पिछले करीब ६.५ करोड़ वर्षो से चमगादड़ों और टाइगर मॉथ्स (व्याघ्र शलभ) के बीच हथियारों की होड़ जारी है । चमगादड़ प्रतिध्वनि की मदद से पतंगों की स्थिति को भांपकर उनका भक्षण करते हैं और पंतगे उनकी आवाज को सुनकर उन्हें छकाते रहते हैं । इसके अलावा पतंगे इस होड़ में खुद अपनी तीक्ष्ण आवाज (अल्ट्रासाउंड) का भी उपयोग करते है । 
वैज्ञानिकों के मन में यह प्रश्न बरसों से था कि क्यों कुछ पतंगे ऊंची आवृत्ति वाली ऐसी टिक-टिक पैदा करते है जो सुनने में ऐसी लगती है मानो फर्नीचर चरमरा रहा हो । एक जवाब यह लगता था कि शायद इस आवाज से वे चमगादड़ की प्रतिध्वनि तकनीक को जाम कर देते होंगे । वहीं दूसरा जवाब यह भी  समझ में आता था कि शायद इस आवाज से वे चमगादड़ों का आगाह करते है कि पंतगे जहरीले होते हैं । 
इस बात का पता लगाने के लिए वैज्ञानिकों ने दो तरह के टाइगर मॉथ लिए । एक थे लाल सिर वाले मॉथ और दूसरे थे मार्टिन्स लाइकेन मॉथ । इसके बाद उन्होंने इनमें से कुछ कीटों के ध्वनि पैदा करने वाले अंग हटा दिए । अब एरिजोना के घास के मैदान में प्रयोग की तैयार की    गई । वहां इंफ्रा रेड वीडियो कैमरे लगाए गए, अल्ट्रासोनिक माइक्रोफोन लगाए गए और पराबैंगनी रोशनियां चमगादडों को आकर्षित करने के लिए लगाई गई थी । 
अंधेरे में उन्होंने पंतगों को एक-एक करके छोड़ और चमगादड़ पतंगा अंतक्रिया का पूरा रिकॉर्ड  किया । उन्होंने पाया कि पतंगे अल्ट्रासोनिक टिक-टिक कभी-कभार ही इतनी तेजी से पैदा कर पाते हैं कि उससे चमगादड़ का प्रतिध्वनि तंत्र जाम हो सके । उन्होनें यह भी देखा कि अल्ट्रासोनिक ध्वनि पैदा करने का उपकरण न हो तो ६४ प्रतिशत लाल सिर वाले और ९४ प्रतिशत लाइकेन मॉथ पकड़े तो जाते है मगर वापिस थूक दिए जाते हैं । 
प्लॉस वन नाम ऑनलाइन शोध पत्रिका में प्रकाशित इन परिणामों के आधार पर शोधकर्ताआें का निष्कर्ष है कि टाइगर पतंगों की कुछ प्रजातियों के विपरीत ये प्रजातियां चमगादड़ के प्रतिध्वनि सिस्टम को जाम नहीं करती बल्कि उन्हें अपने जहरीले होने की चेतावनी देती है । 

क्या समंदरों में ऑक्टोपस वगैरह का राज होगा ?

ऑस्ट्रेलिया के एडीलेड विश्वविद्यालय की जो डबलडे और उनके साथी अध्ययन तो कर रहे थे समुद्र में एक स्थानीय प्रजाति- ऑस्ट्रेलियन कटलफिश की तादाद में गिरावट का मगर उन्होनें पाया यह कि दरअसल समुद्र में ऑक्टोपस और संबंधित प्रजातियां की संख्या तेजी से बढ़ी है । 
कटलफिश वास्तव में मछली नहीं होती बल्कि यह प्राणि जगत के समुदाय सेफेलोपोडा की सदस्य है । इस समुदाय मेंऑक्टोपस वगैरह प्राणि शामिल है । डबलडे यह जानना चाहती थी कि कटलफिश की आबादी में जो गिरावट देखी गई है वह किसी कुदरती चक्र का हिस्सा है या कुछ और । इसके लिए उन्होनेंसेफेलोपॉड मत्स्याखेट के सर्वेक्षणों के आंकड़े देखे । ये आंकड़े आम तौर पर सामान्य मत्स्याखेट के दौरान पकड़े गए सेफेलोपॉडस के होते हैं, जिन्हें आम तौर पर वापिस समुद्र में फेंक दिया जाता है ।
जब उन्होंने देखा कि पिछले ६ दशकों में दुनिया भर के समुद्रों में, तटवर्ती और गहरे दोनों समुद्रों में सेफेलोपॉड्स की संख्या नाटकीय ढंग से बढ़ी है, तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा । और यह भी पता चला कि २०१३ के बाद कटलफिश की संख्या भी बढ़ने लगी है । मगर जब डबलडे का सरोकार सिर्फ कटलफिश तक सीमित नहीं था । 
विश्व सतर पर सेफेलोपॉड्स की संख्या में वृद्धि का कारण स्पष्ट नहीं है अलबत्ता कुछ सशक्त परिकल्पनाएं जरूर विकसित की गई है ।  एक परिकल्पना तो यह है कि जब मत्स्याखेट में बेतहाशा वृद्धि होती है तो समुद्र में मछलियों की संख्या घटती है । ये मछलियां सेफेलो-पॉड्स प्राणियों का शिकार करके भक्षण करती हैं । शिकारी के नहोने पर शिकार को संख्या वृद्धि का मौका मिल जाता है । 
इस संदर्भ में इक्वेडोंर के जीव वैज्ञानिक रिगोबर्टो लोसास-लुइस का कहना है कि सेफेलोपॉड्स सामान्यत: बड़ी संख्या में बच्च्े पैदा करते हैं और इनका जीवन चक्र छोटा होता है । इस वजह से किसी भी इकोतंत्र में रिक्त हुई जगह को भरने में ये मुफीद होते है । 
अभी यह कहना मुश्किल है कि क्या सेफेलोपॉड्स की संख्या वृद्धि अच्छी बात या नहीं 

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