शनिवार, 18 जून 2016

हमारा भूमण्डल
बढ़ती गर्मी से सुलगती आर्थिक असमानता
टिम रेडफोर्ड 
धरती का तापमान बढ़ने से हम सब पर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर अब नए और क्रांतिकारी विचार सामने आ रहे हैं। वैज्ञानिकों और समाजशास्त्रियों का एक वर्ग मानता है कि इससे प्राकृतिक संसाधनों और संपदा के पुर्नवितरण एवं पुर्नआबंटन की प्रक्रिया में समृद्ध देश और ठंडी जलवायु क्षेत्रों में रहने वाले लाभान्वित होंगे । वैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि अंतत: तो समय ही सिद्ध करेगा कि कौन कितने लाभ और कौन कितने घाटे में है ।
जलवायु परिवर्तन के कारण अब गंभीरता के साथ संसाधनों के पुनर्वितरण और संपदा के पुर्नआबंटन की संभावना तो बढ़ती जा रही है, परंतु इस प्रक्रिया के न्यायोचित ढंग से अंतिम परिणाम तक पहुंचने में शंका है । शोधकर्ताओं का मानना है कि यह सब राबिनहुड की प्रसिद्ध दंतकथा के विपरीत होगा यानी कि अब संपदा व धन गरीबों से लूटकर अमीरों को दे दिया जाएगा । इसके बावजूद अमीर भी संभवत: स्वयं को अमीर महसूस नहीं कर पाएंगे । वैज्ञानिक लगातार इस बात की चेतावनी दे रहे हैं। उनके अनुसार मछलियों एवं अन्य जलीय जलचर अब भूमध्य से ध्रुवों की ओर कूच करने लगे हैं क्योंकि उष्णकटिबंधीय क्षेत्र ज्यादा तप रहा है और यह विस्तारित भी होता जा रहा है । इसका सीधा सा अर्थ है कि कम से कम एक मूल्यवान संसाधन अब विश्व के सर्वाधिक गरीब देशों से निकलकर उन समुदायों की ओर जा रहा है जो कि तुलनात्मक रूप से अधिक समृद्ध हैं। गौरतलब है कि दुनिया की अधिकांश आर्थिक महाशक्तियां कम तापमान वाले क्षेत्र में ही स्थित हैं।
अमेरिका स्थित याले वानिकी एवं पर्यावरण शिक्षण विद्यालय में बायो इकॉनामिक्स एवं इकोसिस्टम के सहायक प्रोफेसर इलि फेनिचेल का कहना है कि ``लोगों का ध्यान मुख्यत: इन संपत्तियों के भौतिक पुर्नआबंटन पर ही केन्द्रित है । मुझे नहीं लगता कि हम लोगों ने इस दिशा में सोचना प्रारंभ किया है कि किस प्रकार जलवायु परिवर्तन संपदा का पुर्नआबंटन करवा सकता है और उन संपदाओं के मूल्यों (कीमत) को प्रभावित कर सकता है । हम सोचते हैं कि मूल्यों का प्रभाव अत्यधिक महत्वपूर्ण है ।`` पिछले महीने ही डॉ. फेनिचेल ने ``वास्तविक नकद मूल्य`` की गणना की एक विधि खोजी है, जिसे पर्यावरणविद ``प्राकृतिक संपदा`` कहते हैं। अब उन्होंने और उनके साथियों ने ``प्रकृति जलवायु परिवर्तन`` का अध्ययन प्रारंभ किया है और यह विचार करना प्रारंभ किया है कि यह नकद राशि अंतत: कहां जाकर इकट्ठा होगी । वैसे उनके पास तत्काल इसका कोई उत्तर नहीं है ।
वह कहते हैं, ``हम नहीं जानते कि यह किस तरह सामने आएगा परंतु हम यह तो जानते हैंकि इसका मूल्यों पर प्रभाव अवश्य  पड़ेगा । मूल्य (कीमतें) मात्रा और कमी को दर्शाता है और प्राकृतिक पूंजी को लेकर लोगों का कहीं और पलायन बहुत ही दुष्कर है । परंतु यह उसी तरह अपरिहार्य है जिस तरह मछलियों की प्रजातियों का आवागमन ।`` शोधकर्ता अत्यन्त सचेत होकर कह रहे हैंकि ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन जनित यह जलवायु परिवर्तन जो कि पिछली शताब्दी या उससे थोड़े अधिक समय से जीवाष्म इंर्धन के अत्यन्त दुरुप्रयोग से बढ़ता जा रहा है, की वजह से प्राकृतिक पूंजी का पुर्नआबंटन हो सकता है, सभी प्रकार की पूंजी के मूल्य में परिवर्तन हो सकता है और इससे संपदा का व्यापक स्तर पर पुनर्वितरण संभव हो सकता है । 
उनका मानना है कि हालांकि यह स्पष्ट नहीं है, कि बेहतर आर्थिक स्थिति वाले प्राकृतिक पूंजी के संभाव्य परिवर्तन जैसे मछलियों के निवास स्थान में परिवर्तन होने से अनिवार्यत: लाभान्वित होंगे ही    होंगे । उत्तरी विश्व के अधिकांश मछली मारने वाले बंदरगाहों पर इच्छित प्रजातियों के अन्तर्वाह का वास्तविक प्रभाव यह पड़ेगा कि पकड़ी गई मछली का मूल्य वास्तव में घट जाएगा । डॉ. फेनिचेल का कहना है कि, ``यदि उत्तरी समुदाय विशेष रूप से अच्छे प्रबंधकों जैसा कार्य नहीं करेंगे तो जिस असाधारण संपत्ति के वे वारिस हैंउसकी कीमत बहुत कम आंकी जाने लगेगी । ऐसे में उनका एकत्रीकरण भी कम होता जाएगा ।``
संपन्न ही लाभ में :  यह तो स्पष्ट है कि उन्हें ही ज्यादा फायदा हो रहा है जो ज्यादा संपन्न हैं। जिनसे छिन रहा है वे उनसे बहुत ज्यादा खो रहे हैं, जितना ही फायदा लेने वालांे को फायदा मिल रहा है । अंत में पाने वाले भी खोने तो वालों के मुकाबले बहुत अधिक अर्जित नहीं कर   पाएंगे । अंतत: होगा यही कि संपदा का कुशल पुर्नआंबटन संभव नहीं हो पाएगा ।
जलवायु वैज्ञानिक इस बात की लगातार चेतावनी देते रहे हैंकि जलवायु परिवर्तन गरीबों पर सबसे कठोर मार करेगा । उदाहरण के जलवायु परिवर्तन की वजह से विश्व के सूखे क्षेत्रों के और अधिक सूख जाने की आशंका है और  विश्व के  तमाम निर्धनतम लोग अभी से ही इस तरह का दबाव महसूस करने लगे हैं। उष्णकटिबंधीय वन एवं समुद्री चट्टानंे जैव विविधता संबंधी ``प्राकृतिक पूंजी`` में अधिक समृद्ध हैं, परंतु वैश्विक तापमान वृद्धि से इनमें से कुछ के सामने खतरा पैदा हो गया है । 
रुटगेर्स विश्वविद्यालय के  एक पर्यावरणविद् और उपरोक्त रिपोर्ट के  सह लेखक मालिन प्लिन्सिकी का कहना है, ``हम अब तक यही सोचते थे कि जलवायु परिवर्तन मात्र भौतिकशास्त्र और जीवशास्त्र संबंधी समस्या है। परंतु अब लोगबाग भी जलवायु परिवर्तन पर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं। परंतु हाल-फिलहाल हमारे पास जलवायु परिवर्तन से प्रभावित प्राकृतिक संसाधनों की वजह से मनुष्य के स्वभाव पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर बेहतर समझ मौजूद नहीं है । 

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