मंगलवार, 17 जुलाई 2018

रहन-सहन
सत्तर फीसदी पानी पीने लायक नहीं
शर्मिला पाल
आजादी के सत्तर सालों बाद भी देश में पचहत्तर फीसदी घरों में पीने का पानी उपलब्ध नहीं है । सत्तर फीसदी पानी पीने लायक ही नहीं है । शहरों-कस्बों में जिनके पास पर्याप्त् पैसा है, वे खरीद कर बोतलबंद पानी पीते हैं । लेकिन भारत जैसे गरीब देश में हर कोई बोतल बंद पानी खरीद नहीं सकता । तो क्?या वे प्रदूषित पानी पीने को अभिशप्त् हैं  ?
देश में जल संकट की समस्या आने वाले कुछ वर्षो में और अधिक विकराल हो सकती है। हाल ही में जारी नीति आयोग की जल-प्रबंधन रिपोर्ट के मुताबिक, देश के साठ करोड? लोग पानी की गंभीर कमी से जूझ रहे हैं ; स्वच्छ पेयजल उपलब्ध न होने से प्रति वर्ष जल-जनित बीमारियों की वजह से करीब दो लाख मौतें हो रही हैं । अचरज की बात है कि आज?ादी के सत्तर सालों बाद भी पचहत्तर फीसदी घरों में पीने का पानी मुहैया नहीं है। मतलब यही है कि जल संकट के प्रति लोकप्रिय कल्याणकारी सरकारों का  नजरिया उदासीन रहा है ।
जल संकट कोई नई समस्या नहीं है । देश के जागरूक सामाजिक संगठन दशकों से जल संकट का मुद्दा उठाते रहे हैं, लेकिन किसी सरकार ने इस ओर ध्यान नहीं दिया । नतीजा है कि देश में सत्तर फीसदी पानी पीने लायक ही नहीं है । अगर चुनी हुई सरकारें नागरिकों को शुद्ध पेयजल भी मुहैया नहीं करा सकतीं तो उनकी जवाबदेही पर सवाल उठना स्वाभाविक है ।
भारत में फिलहाल प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता १५४४ घन मीटर है। इस स्थिति को जल की कमी की चेतावनी के रूप में देखा जाता है । अगर यह उपलब्धता १००० घन मीटर से नीचे आ जाए तो जल संकट माना जाता है । देश की आबादी जिस रफ्तार से बढ? रही है, उसे देखते हुए आने वाले एक दशक में भारत जल संकट-ग्रस्त की श्रेणी में आ जाएगा । इसकी एक बड?ी वजह भूजल का बेतरतीब दोहन है । 
जल राज्य सूूची के अंतर्गत आता है । लिहाजा,राज्य सरकारों को जल के महत्व के प्रति जागरूकता अभियान चलाना चाहिए । दरअसल, जल संकट प्राकृतिक और मानव-निर्मित, दोनों है । जल का समुचित प्रबंधन करके  हम जल संकट का समाधान निकाल सकते हैं । सरकार को जल सम्बंधी राष्ट्रीय कानून बनाने पर भी विचार करना चाहिए । किसी ने कहा भी है कि पानी तीसरे विश्व युद्ध का कारण बन सकता है । लिहाज?ा, हमें पानी की बर्बादी को रोकने के उपायों पर भी ध्यान देना होगा ।
देश में ४.११ करोड? लोगों को पीने का साफ व सुरक्षित पानी नहीं  मिलता । नीति आयोग ने देश में बढ?ते पेयजल संकट पर गहरी चिंता जताई है । आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अमिताभ कांत ने कहा है कि आयोग के संयुक्त जल प्रबंधन सूचकांक में लगभग ६० फीसदी राज्योंका प्रदर्शन बेहद लचर रहा है। इनमें उ.प्र., बिहार, राजस्थान और हरियाणा जैसे राज्य शामिल हैं, जहां देश की आबादी के आधे लोग रहते हैं ।  इस मामले में गुजरात का प्रदर्शन सबसे बेहतर रहा है । उसके बाद म.प्र. व आंध्र प्रदेश का स्थान है । 
आयोग का कहना है कि जिन राज्यों में जल प्रबंधन ठीक नहीं है, वहीं से कुल कृषि उत्पादन का २०-३० फीसदी आता है । अमिताभ कांत कहते हैं,  देश के समक्ष फिलहाल पूरी आबादी को पीने का साफ  व सुरक्षित पानी मुहैया कराना ही सबसे बड?ी चुनौती है ।  पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार को अभी से इस संकट की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए जल संरक्षण के उपायों पर जोर देना होगा ।
ऑल इंडिया इंस्टीटयूट ऑफ हाइजीन एंड पब्लिक  हेल्थ के पूर्व निदेशक के.जे. नाथ कहते हैं, सरकार को बारिश के पानी का संरक्षण अनिवार्य बनाना होगा । आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों ने इसके ज?रिए संकट पर काफी हद तक काबू पा लिया है ।  पर्यावरणविद? कल्याण रुद्र कहते हैं,  पानी के संरक्षण की दिशा में तुरंत ठोस पहल न की गई तो आने वाली पीढि?यों के समक्ष पीने के साफ पानी का गंभीर संकट पैदा हो जाएगा ।  
नीति आयोग की रिपोर्ट देखने के बाद यह स्पष्ट है कि भारत अपने इतिहास के सबसे भयावह जल संकट से गुज?र रहा है और हालात को इस कदर बिगाड?ने में अकर्मण्य सरकारी तंत्र के  साथ हमारी भी बड?ी भूमिका है। इससे पहले कि बहुत देर हो जाए, सरकार के  साथ-साथ हमें भी अपने-अपने स्तर पर सक्रिय हो जाने की जरूरत है । 
नीति आयोग के जल प्रबंधन सूचकांक के अनुसार, देश के तकरीबन ६० करोड? लोग पानी की भयंकर कमी से जूझ रहे हैं, और दो लाख लोग हर साल सिर्फ इस कारण मर जाते हैं कि उनकी पहुंच में पीने योग्य पानी नहीं होता । ७५ फीसदी घरों में पीने का पानी नहीं है और देश का करीब ७० फीसदी पानी पीने योग्य नहीं है । जल गुणवत्ता सूचकांक में १२२ देशों की सूची में भारत १२०वें स्थान पर है । रिपोर्ट आगाह करती है कि समुचित प्रबंधन न हुआ, तो २०३० तक बात हाथ से निकल जाएगी, क्योंकि तब तक पानी की मांग आपूर्ति से दुगनी हो चुकी होगी । 
कुल मिलाकर, स्थिति भयावह है और बात कटते वनों, नव-वनीकरण में कोताही, अंधाधुंध निर्माण के लिए जल दोहन और शहरीकरण में जल स्त्रोतोंके खत्म होते जाने के सियापे से आगे जा चुकी है । तमाम और कारण भी हैं । आज भी हम खेती के लिए पानी के तार्किक उपयोग वाले सिंचाई के उन्नत इंतज?ाम में पीछे हैं । अंधाधुंध शहरीकरण में उगते कंक्रीट के जंगलों ने पानी का पारंपरिक पुनर्भरण तो कम किया ही, पारंपरिक जल स्त्रोतों को खत्म ही कर दिया । इन्हें किसी भी सूरत में वापस लाना होगा । नदी-नालों व तालाबों में रसायन और कचरा डालने पर दिखावटी सख्ती हुई, लेकिन असल में कुछ नहीं हुआ । शहरी उपभोक्ता, कृषि व उद्योगों के बीच पानी के बंटवारे का असंतुलन भी हम दूर नहीं कर पाए । इस मामले में सरकारी तंत्र की नाकामी साफ है । 
आंकड़े बताते हैं कि महज घरों के यूरीनल में हर बार फ्लश चलाने से बचा जाए या वाटर फ्री यूरीनल का प्रयोग किया जाए, तो सौ फ्लेट वाली एक इमारत हर दिन कम से कम सात हज?ार लीटर पानी बचा सकती है । कल्पना करें कि यह प्रयोग अगर हर शहर के हर अपार्टमेंट, दफ्तर और स्कूल में अनिवार्य हो जाए, तो नतीजे कितने सुखद होंगे । हर अपार्टमेंट यदि किचन और बाथरूम के पानी का संचय कर उसके शोधन और फिर से इस्तेमाल की व्यवस्था कर ले, वाटर फ्री यूरीनल का प्रयोग शर्त बन जाए, तो नतीजे अत्यंत नाटकीय  होगे ।मानव निर्मित घटनाएं प्राकृतिक संसाधनों को चौपट कर रही हैं. पेड? पौधे मिट रहे हैं, नदियां, तालाब, पोखर सूख रहे हैं और भूजल सूख रहा है । इस मामले में कुछ गतिविधियां पर ध्यान देने की जरूरत है ।  

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